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कोई शक? 


कहते हैं कि शक करना एक बीमारी है। शक करने वाला कभी शान्ति से नहीं रह पाता। शान्ति से न रह पाने वाली बात तो सही है इसीलिए हमारे बड़े-बूढ़े विश्वास करने की बात कहते थे। विश्वास में शान्ति और सुख है अतः हमें उसी का पाठ पढ़ाया जाता रहा और शक या संदेह को बहुत निम्न स्तर का या कहें कि रोग की तरह ‘छी-छी’ करके दुत्कारा गया। 

मैं सोचती हूँ कि शक को हीनता से देखना किस समय से सिखाया जा रहा होगा क्योंकि सनातन धर्म में और उससे निकले धर्मों में तो तर्क को, प्रश्न को स्थान दिया गया है। गीता में अर्जुन लगातार युद्ध पर शक करते हैं और श्री कृष्ण बिना नाराज़ हुए उत्तर देते हैं यहाँ तक कि उनके शक को दूर करने के लिए अपने विराट स्वरूप को दिखा कर प्रमाण देते हैं। रामकथा में भी अनेक स्थानों पर संदेह/प्रश्न हैं जिनका उत्तर दिया गया है। शक तभी पैदा होते हैं जब मिले हुए उत्तरों पर विश्वास नहीं होता। विश्वास न होने के लिए शक का होना आवश्यक है। मुझे शक है कि शक को रोग बता कर ‘हकीम लुकमान के पास भी इसका इलाज न होने’ की बात करने वाले समाज ने शक को कमतर ठहराया होगा। साथ ही हर शीर्ष सत्ता ने अपने से नीचे के लोगों को दबाने के लिए शक न करने की सलाह दी होगी जिससे उनका वर्चस्व कभी प्रश्नों और संदेह के घेरे में न आए। 

मुझे इस शक न करने वाली सीख पर शक हुआ और शक करना अच्छी और सही बात लगी। शक करने से व्यक्ति को सही और ग़लत जाँचने की बुद्धि को तीव्र करने का मौक़ा मिलता है। अगर यह शक न किया जाता कि जिस जगह हम रह रहे हैं तो जान न पाते कि उसके आगे भी दुनिया है, तो लोग नए देशों की खोज न करते बल्कि आज के समय में कहें तो वे न कभी चाँद पर जा सकते थे और न ही वे नए ग्रहों की खोज कर पाते। उन्होंने शक किया कि चंद्रमा केवल कवियों की उपमाओं को सुंदर स्त्रियों के चेहरे से तुलना करने के लिए नहीं बना, उन्होंने यह भी शक किया कि वह न तो मामा है और न ही बूर में पुए पकाता है, न वहाँ कोई बूढ़ी नानी अकेली बैठी चरखा कात रही है, शक ने उन्हें खोज करने, आविष्कार करने और उस तक पहुँचने के दुस्साहस की ओर ढकेला। अगर वे इन्हीं कही हुई बातों पर विश्वास कर लेते तो मामा के आने और पुए खिलाने का इंतज़ार ही करते रहते! और जब वे इस इंतज़ार से दुखी होते तो शायर लोग फिर उन्हें समझाते कि ‘इंतज़ार करने में जो मज़ा है . . .’ धत! यह भी झूठ है। झूठ के सच होने का इंतज़ार मज़ा नहीं, सज़ा है। समाज में आधे से ज़्यादा रोग इस झूठ के सच होने के इंतज़ार से पैदा होते हैं . . . ख़ैर! इंतज़ार की तह में मेरे साथ जाने के लिए आपको अगले लेख तक का इंतज़ार करना होगा क्योंकि इस समय मैं शक की क़ैद में हूँ। 

यह बात तब की है जब मैं वोट देने लायक़ बड़ी हुई। इस महत्त्वपूर्ण राजनैतिक निर्णय को लेने के लिए मैंने अपने माता-पिता के विश्वास की पार्टी पर मोहर लगाने से पहले अपने सामान्य ज्ञान को बढ़ाने के लिए राजनैतिक पार्टियों के इतिहासों और वर्तमान पर विहंगम दृष्टि डाली। सच मानिये, बचपन से लेकर अब तक के खेले गए खेलों से ज़्यादा रोमांचक यह खेल निकला। लूडो की गोटियों की तरह पार्टियों के नेता चुनाव के खेल के मैदान से कभी बाहर हो रहे थे तो कभी फिर जीवित हो कर खेल में जम रहे थे। कोई अपने खेल पर ध्यान देना छोड़ कर दूसरे की गोटी का पीछा कर रहा था। वैसे ऐसा तो बहुत से कर रहे थे, कोई मोनोपॉली खेल की तरह दूसरों को ख़रीद रहा था तो कोई अपने भाग्य के साँप से डसे जाकर सीढ़ियों से फिसल कर औंधे मुँह नीचे आ गिरा था। शरलॉक होम्स की तरह मैंने इन पार्टियों के बनने के इतिहास की सुरंगों में घुसने का फ़ैसला किया। यहाँ गहरे अँधेरे में कौन किस से हाथ मिला रहा था, कौन किसे पीछे से धक्का दे रहा था, साफ़ देख पाना कठिन था। कहे और करे के बीच की फाँक पर मैं बेहद शक से भरी सबूत ढूँढ़ रही थी पर बहुतों ने पैसों पर बिके विश्वासी लिक्खाड़ों से (मैं उन्हें लेखक नहीं कहना चाहती क्योंकि लेखक अपनी दृष्टि से सृजन करता है) अपने परम पुनीत होने की कथा लिखवा कर सही सबूत ग़ायब कर दिये थे। शब्दों में असलियत के जलने की बू थी और अर्थ दुबक कर बैठे थे। इन शब्दों पर मैं शक कर रही थी और शक कर रही थी कि मेरे माता-पिता और उनके भी माता-पिता ने इन बातों पर शक क्यों नहीं किया? अगर लिक्खाड़ उनके इतिहास में अँधेरे होने पर प्रश्न करता, इस ऐतिहासिक अँधेरे के होने के कारणों पर शक करता, इस शक के चलते जो भी बाँच दिया गया, उसे पुराने ज़माने के श्रुतलेख या इमला की तरह न लिख देता, लिख कर हमारे गलों में उस बेतुके इतिहास को न उँडेलता तो आज हम सही ऐतिहासिक उत्तरों के सच की रौशनी में खड़े होते, भले ही उस सच की आँच हमें चौंधियाती, जलाती या राह दिखाती . . . कम से कम हम सच को सच की तरह जान तो पाते . . .! मुझे इन सबके शक न करने से वितृष्णा हुई। ऐसे विश्वास करना रोग की तरह मनुष्य को चौपाया बनाने और केवल सिर ‘हाँ’ में हिलाने के लिए ‘ब्रेन वॉश’ करता है। बस तभी से मुझे शक करने का तथाकथित ‘रोग’ लगा। मुझमें शक पैदा करने का दायित्व सभी पर जाता है, सब से अधिक जो अपनी कमी छुपाने के लिए ‘तुम्हारी भलाई के लिए हमने सच छुपाया’ के वाक्य बच्चों या समाज को देते हैं। मुझे शक है कि या तो वे अपनी करनी छुपा रहे हैं या अपनी अज्ञानता। संस्कृति, सभ्यता, इतिहास और व्यक्ति सभी में ये छुपाने का खेल सदियों से चलता रहा है, इसीलिए इस छुपे हुए को देखने के लिए शक की अनिवार्यता है। 

इस शरलॉक होम्स के चोले में रह कर जो कुछ मैंने देखा उससे अब हर बात मुझे सफ़ेद और काली नहीं दिखती। सफ़ेद के पीछे काला और काले के पीछे सफ़ेद के होने का शक होता है। पार्टियों के इतिहास ही नहीं बल्कि लेखकों के शब्दों पर अब मुझे शक है। पहले जिन लेखकों के शब्दों का अर्थ निकालने की होड़ में हम लगते थे, जिनकी अबूझ सी भाषा और गूढ़ उपमाओं में हमारी बुद्धि कल्पना के खेल खेलती थी, उन पर मंत्रमुग्ध हो कर हम अपने सजृनात्मक दिल को लुटाने के उद्वेलित होते थे, अब उन शब्दों पर मुझे शक है। अब लगता है कि हो सकता है कि लेखक को ख़ुद न पता हो कि वो क्या और क्यों लिख रहा है। उसका लिखना उस ऐब्स्ट्रैक्ट पेंटिग की तरह हो जिन्हें बनाने वाले के मित्रों ने प्रसिद्ध किया हो! मुझे शक है कि यह ‘इलीट क्लास’ की कोई चाल रही होगी ताकि आर्ट गैलरियों और विशिष्ट कवि सम्मेलनों में आम जनता अपनी स्पष्टवादिता लेकर प्रवेश न पा सके। कैसा लगेगा न जब कोई धूल भरे चप्पलों को कला गृहों या गैलारियों के लाल कार्पेट पर रखेगा, पुराने कपड़ों में लिपटा, अपनी आँखें छोटी कर, सोचता हुआ सा इन पेंटिग को घूरता हुआ अपना प्रश्न रखेगा कि ‘यह क्या है?’ ऐसे में इलीट समाज उसे बहुत रहस्मय शब्दों में कुछ समझायेंगे और वह जीभ से ‘च्च . . .’ की ध्वनि निकालता अपना शक ज़ाहिर करेगा, ‘न, मुझे तो यह ऐसा नहीं लगता’ तब उसे समझाने के सारे प्रयास निष्फल जाएँगे। आम आदमी का शक इस ‘विशिष्ट’ कला के लिए ख़तरा है इसलिए इसे दूर रखने और इसे निचले स्तर के भौंडे कार्यक्रम परोसने में ही भलाई दिखी। वही प्रारंभ हुआ . . .

ऐसा आदमी लेखकों को पढ़ कर हठात्‌ कह सकता है, कि ‘बात ही पल्ले को नी पड़ी’। फिर आलोचक उसे समझाने की कोशिश करेंगे और लेखक उदास हो जाएगा। लेखन का सारा संसार इस शक के चलते ख़तरे में आ सकता है, इसी से ‘बड़े लोगों की बड़ी बातें’ कह कर विश्वास दिलाया जाता रहा कि यह समझना उसके बस की बात नहीं। उसके शक को दबाना ज़रूरी था अन्यथा तो वह दबाए जाने वाले हाथों और दबाए जा रहे सिरों के रहस्य को समझ लेता। वर्चस्व बनाए रखने के लिए शक को मारना और हाथों में विश्वास का झुनझुना पकड़ाना ज़रूरी था, राज्यों को बनाए रखने के लिए जैसे सेना की आहुति ज़रूरी होती है, बाज़ार को चलाए रखने के लिए सामान खारीदने के लिए ‘यू डिज़र्व दिस’ कह कर विश्वास दिलवाना जैसे ज़रूरी होता है, बच्चों की जिज्ञासा को रोकने के लिए जैसे उन्हें खेल या लॉलीपॉप में उलझाना ज़रूरी होता है, वैसे ही शक जैसी उपजाऊ चीज़ को ‘रोग’ कह कर उससे दूर रहने की सलाह दी जाती है और एक बार आपने शक को छोड़ा तो मानो विश्वास करने का कॉन्ट्रैक्ट ही साइन कर दिया। अब आप शक की तरफ़ मुड़े कि आपको दुगुने वार से इसके नुक़्सान गिनाए जाते हैं। 

मित्रो, अब तो फ़ेसबुक और व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी की पढ़ाई भी सच नहीं, तो कम से कम अब तो शक का सहारा लें जो हमारी आँखों को खोज करने की राह पर ले जाएगा। एक ज़रूरी बात और कि इस रास्ते पर जो सच निकल कर आएगा, वह ख़तरनाक होगा, कड़वा होगा, यह डर भी बेहद सताता है पर बिना शक करे और सच को जाने मर गए तो इस मानव देह और बुद्धि के साथ गद्दारी होगी इसलिए शक करना सीखना होगा और डर को हिम्मत से ख़त्म करना होगा . . . समस्त शुभकामनाएँ! 

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टिप्पणियाँ

नोरिन शर्मा 2023/04/26 04:37 AM

बिना " शक " शानदार लेख...ऐसा ही कुछ मैंने लिखा था...संतोष धनं परम....! संतुष्टि भी हमारे उन्नति के मार्ग हेतु बाधा है....! बहुत बढ़िया उदाहरण...!

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