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इसी बहाने से - 06 भक्ति: उद्‌भव और विकास

भक्ति किसी काल विशेष में बँधकर रहने वाला भाव नहीं है। भक्ति का प्रार्दुभाव कब हुआ, इसके विषय में स्पष्ट एवं निश्चित रूप से कुछ कहा नहीं जा सकता। अत्यन्त प्राचीन काल अर्थात्‌ वैदिक युग में ही कभी इसका जन्म हुआ था एवं प्रकारान्तर में यह अपने स्वरूप को और अधिक स्पष्ट करने में सफल हुई।

प्राय: साहित्य का, उसकी प्रवृत्तियों के आधार पर काल विभाजन करते हुए हमारे विद्वान आचार्यों ने मध्यकाल के प्रारम्भिक भाग को भक्तिकाल की संज्ञा दी है। इसका तात्पर्य यह कदापि नहीं है कि इस काल में अन्य प्रकार की रचनाएँ ही नहीं होती थीं अथवा इस काल के समस्त ग्रन्थ भक्तिमूलक हैं। वस्तुत: प्रवृत्तिविशेष के आधार पर आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने इस काल को यह संज्ञा प्रदान की। उन्होंने इसकी अवधि तक निश्चित की है। यद्यपि यह कालावधि बहुत से विद्वानों को पूर्णतया उचित नहीं जान पड़ती है तथापि ठोस प्रमाण के अभाव में वे इसमें परिवर्तन कर सकने में असमर्थ सिद्ध हुए हैं। विषयवस्तु के आधार पर कुछ अन्य रचनाओं को इस काल-धारा में अन्तर्युक्त करते हुए डा. नगेन्द्र भक्तिकाल को चौदहवीं शती के मध्य से सत्रहवीं शती के मध्य तक मानते हैं क्योंकि उनके अनुसार चौदहवीं शती के मध्य तक आदिकाल की प्रवृत्तियाँ पर्याप्त बलवती थीं। अपना मत देने के उपरान्त भी उन्होंने अन्य विद्वानों की भाँति ही आचार्य शुक्ल के निर्णय को स्वीकार किया है। इस तरह काल विभाजन के विषय में आचार्य शुक्ल का मत मान्य है परन्तु भक्ति के प्रार्दुभाव के विषय में दिए गये आचार्य शुक्ल के विचार विश्लेषण विवेचन के आधार पर मान्य नहीं हुए हैं। शुक्ल जी का मत था - "देश में मुसलमानों का राज्य प्रतिष्ठित हो जाने पर हिन्दू जनता के हृदय में गौरव, गर्व और उत्साह के लिए अवकाश न रह गया। उनके सामने ही उनके देवमन्दिर गिराए जाते थे, देवमूर्त्तियाँ तोड़ी जाती थीं, अपने पौरुष से हताश जाति के लिए भगवान की शक्ति और करुणा की ओर ध्यान ले जाने के अतिरिक्त दूसरा मार्ग ही क्या था?"

इस तरह शुक्ल जी ने भक्ति को पराजित, असफल एवं निराश मनोवृत्ति की देन माना था। अनेक अन्य विद्वानों ने इस मत का समर्थन किया जैसे, बाबू गुलाब राय आदि। डा. राम कुमार वर्मा का मत भी यही है - "मुसलमानों के बढ़ते हुए आतंक ने हिंदुओं के हृदय में भय की भावना उत्पन्न कर दी थी इस असहायावस्था में उनके पास ईश्वर से प्रार्थना करने के अतिरिक्त अन्य कोई साधन नहीं था।"

आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने सर्वप्रथम इस मत का खंडन किया तथा प्राचीनकाल से इस भक्ति प्रवाह का सम्बन्ध स्थापित करते हुए अपने मत को स्पष्टत: प्रतिपादित किया। उन्होंने लिखा - "यह बात अत्यन्त उपहासास्पद है कि जब मुसलमान लोग उत्तर भारत के मन्दिर तोड़ रहे थे तो उसी समय अपेक्षाकृत निरापद दक्षिण में भक्त लोगों ने भगवान की शरणागति की प्रार्थना की। मुसलमानों के अत्याचार से यदि भक्ति की धारा को उमड़ना था तो पहले उसे सिन्ध में फिर उसे उत्तरभारत में प्रकट होना चाहिए था, पर हुई वह दक्षिण में।"

इस मत का समर्थन उन्होंने पुष्ट, प्रामाणिक विचारों द्वारा किया है जिससे यह सिद्ध हुआ है कि भक्ति किसी आतंक या भय से उत्पन्न पंगु विश्वास नहीं था अपितु उत्साह एवं वीरता से पूर्ण क्षणों में कल-कल निनाद कर बह उठने वाली श्रद्धाधारा थी जिसे सूर, तुलसी, कबीर जैसे सशक्त व्यक्तित्व मिले थे। वस्तुत: अधिकांश मुसलमान शासक अत्याचारी थे। फिर भी अकबर, शाहजहाँ, जहाँगीर का राज्यकाल भारत को समृद्ध एवं सम्पन्न बनाने वाला काल था। इस समय तक हिन्दू एवं मुसलमान संस्कृतियों का पारस्परिक वैचारिक आदान-प्रदान द्वारा समन्वय भी स्थापित हो चला था। यह भारतीय संस्कृति की अत्यन्त प्राचीन काल से विशेषता रही है कि वह इस धरती पर आने वालों की संस्कृति का स्वागत कर उसे अपना लेती है अत: भारतीयों के लिए इस प्रकार की घटना कोई पहली घटना नहीं थी। आर्य जाति का यक्ष, किन्नर आदि जातियों से समन्वय उससे बहुत पहले ही इस तथ्य का प्रमाण बन चुका था। मुगलों के भारत आने से पूर्व भी अनेकों विदेशी आक्रमण भारतीय झेल चुके थे। आतंक, भय, विनाश का वातावरण वे सह चुके थे। अत: मुगलों का आक्रमण, देवमन्दिरों का गिराया जाना, आदि घटनाएँ उनके लिए अचानक आई हुई या अनोखी विपत्ति नहीं थी। फिर मुगल इस दृष्टि से अन्य आक्रमणकारियों से भिन्न थे कि वे भारत को लूट कर वापिस नहीं लौटे अपितु यहीं बस गए। सूफ़ी सन्तों ने इनसे भी पूर्व
अपनी सहृदयता एवं प्रेम से हिन्दुओं के मन में कुछ विश्वास जागृत करने की सफल चेष्टा की थी। इस तरह लम्बे समय तक साथ रहने से तथा एक-दूसरे के विषय में कुछ जानकारी मिलने से भारतीयों ने मुसलमानों के साथ सहिष्णुता एवं उदारतापूर्वक व्यवहार किया फलत: ये दोनों संस्कृतियाँ भी परस्पर बहुत कुछ समन्वित हुईं।

इस तरह यह एक तथ्य तो स्पष्ट हो गया कि भक्ति का सम्बन्ध मुगलों के आक्रमण या उनके आने से मुख्यरूप से नहीं है। दूसरा विचार भक्ति को पराजित मनोवृत्ति की देन मानने का था, यह उचित नहीं है।

भारतीय अपनी पराजय बहुत सरलता से स्वीकार नहीं करते हैं और यदि पराजित हो भी जाते हैं तो आशा नहीं त्यागते हैं। संघर्ष और कर्म वैदिक काल से ही इस संस्कृति के दो प्रमुख तत्त्व रहे हैं जिसके मर्म को भारतीय पहचानते हैं अत: हर परिस्थिति में संघर्ष एवं कर्म करना यहाँ का इतिहास रहा है। पलायन इस धरती की प्रवृति नहीं है। इस आधार को लेकर चलने वाले राजपूतों को हम मुगलों से अपनी शक्ति के अन्तिम सोपान तक लड़ते हुए पाते हैं। हिन्दू जाति की जीवनी शक्ति विषम से विषम परिस्थिति में भी प्रखर रही है अत: इस इतिहास को ध्यान में रखते हुए हम उन्हें पराजित मनोवृत्ति युक्त नहीं मान सकते। इसी सन्दर्भ में दूसरा महत्त्वपूर्ण तथ्य यह है कि भक्ति का उदय अशान्ति, निराशा या कुण्ठित वातावरण में संभव नहीं है। भक्ति कोई बाह्य आवरण या कवच नहीं है जिसे असुरक्षा की अनुभूति से बचने के लिए कुछ क्षणों के लिए पहना जा सके। भक्ति हृदय के भीतर से उत्पन्न होने वाला सघन रागात्मक तत्त्व है जिसमें हृदय की समस्त संवेदना, अनुभूति प्रेम का रूप धारण करके ईश्वर के चरणों में समर्पित होती है अत: इसे "रेडीमे" वस्तु नहीं माना ा सकता आ्रमण होता देखा तो ग्रहण कर लिया एवं शान्तिपूर्ण दिनों में इसे त्याग दिया। एक तथ्य यह भी ध्यान देने योग्य है कि भक्तिकाल के प्रमुख व्यक्तियों - सूर, तुलसी, कबीर, मीरा आदि में से कोई भी राजनैतिक नेता या सेनापति नहीं था। इन लोगों में तो राजनैतिक निर्लिप्तता का ही गहन भाव दिखाई देता है। इस दृष्टि से भयाकुल एवं आतंकपूर्ण वातावरण में सूर के कृष्ण की विविध लीलाओं का लोकप्रिय होना भी कम आश्चर्य की बात नहीं थी। उपरोक्त विवेचन से भी यही स्पष्ट होता है कि भक्ति निराशा की देन नहीं थी। फिर यह भी महत्त्वपूर्ण तथ्य है कि उसी काल में सूफ़ी सन्त भी भक्ति का मार्ग क्यों ग्रहण कर रहे थे? उन पर तो कोई आतंक, भय नहीं था, उन्हीं के धर्मावलंबी इस देश पर शासन चला रहे थे, इसलिए इन कारणों से उनका ’ख़ुदा’ की ओर झुकना अस्वभाविक दिखाई देता है।

इन सबसे यह स्पष्ट होता है कि भक्ति के उदय का कारण कुछ और ही था, पराजित या निराशा मनोवृत्ति नहीं थी। आचार्य शुक्ल का मत भी इसी कारण मान्य नहीं हो सका।

कुछ पश्चिमी विद्वानों ने भारत में भक्ति को ईसाई धर्म की देन सिद्ध करने की चेष्टा की थी जैसे वेवर, कीथ, ग्रियर्सन तथा विलसन आदि। ग्रियर्सन का मत है कि ईसा की दूसरी-तीसरी शताब्दी में कुछ ईसाई मद्रास में आकर बस गए थे तथा इनके प्रभाव से भक्ति का प्रसार हुआ। वेवर महोदय ने महाभारत में वर्णित ’श्वेत द्वीप’ का अर्थ गौरांग जातियों का निवास स्थान (यूरोप) बताया है। एक महोदय तो ’कृष्ण’ को यीशु का ही रूपांतरण मानते हैं।

इन सभी मतों का खंडन किया जा चुका है। भक्ति भारत की अपनी ही उपज है, बाहर से आयातित विचार नहीं। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी लिखते हैं - "एक जमाने में ग्रियर्सन, केनेडी आदि पंडितों ने उसमें ईसाईपन का आभास पाया था। उनकी समझ में नहीं आ सका कि ईसाई धर्म के सिवाय इस प्रकार के भाव कहीं और से भी मिल सकते हैं। लेकिन आज की शोध की दुनिया बदल गई है। ईसाई धर्म में जो भक्तिवाद है वही महायानियों की देन है सिद्ध होने चला है।"

द्विवेदी जी ने भक्ति को पराजित मनोवृत्ति की प्रतिक्रिया नहीं मानकर उसे ’जातिगत कठोरता और धर्मगत संकीर्णता’ की प्रतिक्रिया माना है जिसके कारण "साधुओं की विशाल वाहिनी सेना खड़ी होती जाती थी।" भक्ति के कारण इस अवस्था में नवीन आशा एवं उदारता का संचार हुआ था।

हम भक्ति को वैदिक काल में भी किसी न किसी रूप में उपस्थित देखते हैं। यज्ञ कार्यों में जो श्रद्धा तत्त्व था वही भक्ति का भी मूल तत्त्व है। उस काल में बहुदेववाद के प्रचलन को कालान्तर में भाव-एकता के आधार पर एक माना गया तथा उसे ’सत्‌’ कहा गया। वैदिक भक्ति परम्परा का सूत्रपात हो चुका था। यह परम्परा ईसा पूर्व कई शताब्दियों से शरणागति एवं समर्पण की प्रबल भावना को लेकर चली आ रही थी। इस धारा को दक्षिणात्य आचार्यों ने उत्तर भारत में भी बहुत लोकप्रिय बनाया। वैदिक काल की भक्ति के बीज लेकर ब्रह्मसूत्रों, उपनिषदों, गीता एवं भाष्यों की परम्परा को अपनाया गया। फलत: तत्कालीन पारम्परिक भक्तिमार्ग में भी कई नूतन परिवर्तन हुए। दक्षिण से आने वाला भक्ति का प्रवाह उत्तर भारत पर पूरी तरह छा गया परन्तु इसका तात्पर्य यह नहीं था कि उत्तर भारत भक्ति से पूर्णतया शून्य था। वैदिक काल से श्रद्धा, प्रेम के भाव शाश्वत प्रवाह की तरह यहाँ की जनता को भी विरासत में मिले थे। राजनैतिक उथल-पुथल के समय में भी पण्डितों के शास्त्रार्थ, भाष्यों का विवेचन, गीता पाठ आदि चलता ही रहता था। उत्तर भारत में बहुत पहले से (ई.पू. 200 से ई.पू. 600 तक) ब्राह्मण युग में समन्वय की चेष्टाएँ प्रारम्भ हो गई थीं। दक्षिण भारत में यह स्थिति बहुत समय बाद आई। मौर्य-साम्राज्य में ब्राह्मणों के ओज एवं तेज को नवीन उत्साह मिला। तब सूत्रों-स्मृतियों की व्याख्या आदि का शिथिल पड़ा हुआ कार्य फिर प्रारम्भ हुआ। गुप्तकाल में भी वैदिक धर्म के पुनरुत्थान की सफल चेष्टा हुई। देवी-देवताओं एवं मन्दिरों की स्थापना द्वारा यह लुप्त होती हुई व्यवस्था फिर जागृत हो उठी। इस काल में वैष्णव धर्म या विष्णु आराधना पर विशेष बल दिया गया था। ब्राह्मणों में भी एक ऐसा वर्ग उभर रहा था जो शास्त्रों के नियमों की कट्टरता त्याग कर, समय के प्रवाह के साथ ब्राह्मणेतर श्रमणादि के साथ समन्वय कर रहा था। इसे नव ब्राह्मणवाद कहा गया जिसके अरन्तर्गत -

1.धर्म विशेष का लौकिकी करण
2.अवतारवाद की स्वीकृति
3. देवालयों में देव प्रतिमाओं की पूजा
4. तीर्थादि की स्थापना
5. भारतीय जीवन में धर्म का संरक्षण।

इन सबका भारत के मध्यकालीन जीवन पर बहुत प्रभाव पड़ा था। जनता में तीर्थाटन, साधु-संन्यासियों का सम्मान, कर्म-फल में विश्वास, स्वर्ग-नरक, मूर्त्ति पूजा, अवतारवाद आदि के प्रति विश्वास थे। इस तरह एक दृढ़ पृष्ठ-भूमि यहाँ दक्षिण से आने वाले भक्ति प्रवाह के लिए पहले ही बन चुकी थी। हिन्दू समाज इस समय दो मुख्य वर्गों में बँटा हुआ था - एक, जो कि शास्त्रों के समर्थक थे, दूसरे - जिनकी परम्परागत -त्रयी (श्रीमद्‌भगवत गीता, उपनिषद्‌, बादरायण का ब्रह्मसूत्र) पर श्रद्धा थी। ब्रह्मसूत्रों पर शंकराचार्य (ई. 788-820ई.) का ’शारीरिक भाष्य’ का महत्त्व इतना अधिक था कि वेदान्त का अर्थ - शंकर वेदान्त - ही समझा जाता था। कुमारिल भट्ट ने भी भारतीय वैदान्तिक चिन्तन-धारा को बहुत अधिक प्रभावित किया था।

शास्त्र-समर्थित वेदान्त प्रसार की स्थिति में भी दक्षिण भारत में वैष्णव भक्ति के संरक्षण एवं प्रसार की सफल चेष्टा की जा रही थी। यह कार्य मुख्यत: दक्षिण के आलवार भक्त कर रहे थे। आचार्य हज़ारी प्रसाद द्विवेदी ने भक्ति आन्दोलन का श्रेय इन्हीं आलवार भक्तों को दिया है। वैसे इनकी संख्या अधिक नहीं थी, ये केवल 92 थे जिनमें मीरा के समान मधुराभक्ति करने वाली एक भक्तिन भी थीं। इनका समय ईसा की प्रथम शताब्दी से कुछ पहले से लेकर 8वीं - 9वीं शती तक माना गया है। इन भक्तों में भक्ति के सैद्धान्तिक पक्ष को ध्यान में रखते हुए व्यावहारिक भक्ति पर बहुत अधिक बल दिया गया था। 10-11वीं शताब्दी में आचार्य नाथ मुनि हुए, जिन्होंने वैष्णवों का संगठन, आलवरों के भक्तिपूर्ण गीतों का संग्रह, मन्दिर में कीर्त्तन एवं वैष्णव सिद्धान्तों की दार्शनिक व्याख्या आदि महत्त्वपूर्ण कार्य किए जिनसे भक्ति परम्परा को नया बल मिला। इन्हीं के उत्तराधिकारियों में रामानुजाचार्य हुए जिन्होंने उत्तर भारत में भगवान विष्णु की दास्य भक्ति पर बल दिया था, इनका सम्प्रदाय श्री सम्प्रदाय था। इस तरह भक्ति की यह धारा, दक्षिण से उत्तर में आई किन्तु इसको पुष्ट करने में उत्तर एवं पूर्व भारत के अपने विश्वासों, मतों तथा विचारों का सहयोग मुख्यत: रहा है। इसी परम्परा में रामानन्द जी हुए। इन्होंने विष्णु के रामावतार पर मुख्य रूप से बल दिया। इस तरह राम भक्ति का प्रवाह आरम्भ हुआ जिसको कालान्तर में व्यापक एवं पुष्ट बनाने में रामानन्द जी से प्रभावित तुलसी का सहयोग मुख्य रहा। तुलसी ने रामभक्ति को सर्वाधिक लोकप्रिय बनाया। राम को मर्यादा पुरुषोत्तम के रूप में प्रतिष्ठा करके नैतिक तथा सामाजिक जीवन को ऊँचा उठाने का अप्रत्यक्ष प्रयास उन्होंने किया।

गुजरात के स्वामी माधवाचार्य (संवत्‌ 1254-1333) ने द्वैतवादी वैष्णव सम्प्रदाय (ब्राह्म सम्प्रदाय) चलाया जिसकी ओर भी लोगों का झुकाव हुआ। इसके साथ ही द्वैताद्वैतवाद (सनकादि सम्प्रदाय) के संस्थापक निम्बार्काचार्य ने विष्णु के दूसरे अवतार कृष्ण की प्रतिष्ठा विष्णु के स्थान पर की तथा लक्ष्मी के स्थान पर राधा को रख कर देश के पूर्व भाग में प्रचलित कृष्ण-राधा (जयदेव, विद्यापती) की प्रेम कथाओं को नवीन रूप एवं उत्साह प्रदान किया। वल्लभाचार्य जी ने भी कृष्ण भक्ति के प्रसार का कार्य किया। जगत्‌प्रसिद्ध सूरदास भी इस सम्प्रदाय की प्रसिद्धि के मुख्य कारण कहे जा सकते हैं। सूरदास ने वल्लभाचार्य जी से दीक्षा लेकर कृष्ण की प्रेमलीलाओं एवं बाल क्रीड़ाओं को भक्ति के रंग में रंग कर प्रस्तुत किया। माधुर्यभाव की इन लीलाओं ने जनता को बहुत रसमग्न किया। इस तरह दो मुख्य सम्प्रदाय सगुण भक्ति के अन्तर्गत अपने पूरे उत्कर्ष पर इस काल में विद्यमान थे - रामभक्ति शाखा; कृष्णभक्ति शाखा।

इसके अतिरिक्त भी दो शाखाएँ प्रचलित हुईं - प्रेममार्ग (सूफ़ी) तथा निर्गुणमार्ग शाखा।

सगुण धारा के इस विकास क्रम के समानांतर ही बाहर से आए हुए मुसलमान सूफ़ी संत भी अपने विचारों को सामान्य जनता में फैला रहे थे। मुसलमानों के इस लम्बे प्रवास के कारण भारतीय तथा मुस्लिम संस्कृति का आदान-प्रदान होना स्वाभाविक था। फिर इन सूफ़ी संतों ने भी अपने विचारों को जनसाधारण में व्याप्त करने की, अपने मतों को भारतीय आख्यानों में, भारतीय परिवेश में, यहीं की भाषा-शैली लेकर प्रस्तुत करने का सफल प्रयास किया। इनके मतों में कट्टरता का कहीं भी आभास नहीं था। इनका मुख्य सिद्धान्त प्रेम तत्त्व था। यद्यपि प्रेम के माध्यम से ईश्वर को पाने के लिए किए जाने वाले प्रयास - (विधि) में कुछ अन्तर अवश्य था तथापि इनके प्रेम तत्त्व के प्रतिपादन एवं प्रसार शैली ने लोगों को आकर्षित किया। इन्होंने एकेश्वरवाद का प्रतिपादन भी किया जिसे कुछ लोगों ने अद्वैतवाद ही मान लिया, जो कि उचित नहीं है। हज़रत निज़ामुद्दीन चिश्ती, सलीम चिश्ती आदि अनेक संतों ने हिन्दू-मुसलमान सबका आदर प्राप्त किया। इस सूफ़ी मत में भी चार धाराएँ मुख्यत: चलीं-

1. चिश्ती सम्प्रदाय
2. कादरी सम्प्रदाय
3. सुहरावर्दी सम्प्रदाय
4. नक्शबंदिया सम्प्रदाय।

जायसी, कुतुबन, मंझन आदि प्रसिद्ध (साहित्यकार) कवियों ने हिन्दी साहित्य को अमूल्य साहित्य रत्न भेंट किए। निर्गुणज्ञानाश्रयी शाखा पर भी इनका प्रभाव पड़ा तथा हिन्दू-मुसलमानों के भेद को मिटाने की बातें कही जाने लगीं। आचार्य शुक्ल ने भी इन्हें ’हिन्दू और मुसलमान हृदय को आमने सामने करके अजनबीपन मिटाने वाला कहा।

रामानन्द जी उत्तर भारत में रामभक्ति को लेकर आए थे। उनके सिद्धान्तों में इस भक्ति का स्वरूप दो प्रकार का था - राम का निर्गुण रूप; राम का अवतारी रूप। ये दोनों मत एक साथ ही थे। निर्गुण रूप में राम का नाम तो होता पर उसे ’दशरथ-सुत’ की कथा से सम्बद्ध नहीं किया जाता। रामानन्द ने देखा कि भगवान की शरण में आने के उपरान्त छूआ-छूत, जाँत-पाँत आदि का कोई बन्धन नहीं रह जाता अत: संस्कृत के पण्डित और उच्च ब्राह्मण कुलोद्‌भूत होने के पश्चात भी उन्होंने देश-भाषा में कविता लिखी और सबको (ब्राह्मण से लेकर निम्नजाति वालों तक को) राम-नाम का उपदेश दिया। कबीर इन्हीं के शिष्य थे। कबीर, रैदास, धन्ना, सेना, पीपा आदि इनके शिष्यों ने इस मत को प्रसिद्ध किया। रामनाम के मंत्र को लेकर चलने वाले अक्खड़-फक्कड़ संतों ने भेद-भाव भुला कर सबको प्रेमपूर्वक गले लगाने की बात कही। वैदिक कर्मकाण्ड के द्वारा फैले हुए आडंबरों एवं बाह्य विधि-विधानों के त्याग पर बल देते हुए राम नाम का प्रेम, श्रद्धा से स्मरण करने की सरल पद्धति और सहज समाधि का प्रसार किया। कबीर में तीन प्रमुख धाराएँ समाहित दिखाई देती हैं -

1. उत्तरपूर्व के नाथ-पंथ और सहजयान का मिश्रित रूप
2. पश्चिम का सूफ़ी मतवाद और
3. दक्षिण का वेदान्तभावित वैष्णवधर्म

हठयोग का कुछ प्रभाव इन पर अवश्य है परन्तु मुख्यत: प्रेम तत्त्व पर ही बल दिया गया है। सामाजिक सुधार के क्षेत्र में इन संतों का महत्त्वपूर्ण योग रहा है। इन संतों के साहित्य में हमें तत्कालीन युग की सामाजिक, धार्मिक, राजनैतिक समस्त स्थितियों के दर्शन हो जाते हैं। धार्मिक दृष्टि से भी इनका योग बहुत है। सहज प्रेम की भाषा पर बल देने के कारण लोगों का इन पर भी बहुत झुकाव रहा। कबीर कीमृत्यु के कुछ समय बाद इसमें भी सम्प्रदाय की स्थापना हो गई। अन्य शाखाओं के समान इसका महत्व भी भक्तिकाल को पूर्ण बनाने में है।

ये चारों शाखाएँ भक्तिकाल या मध्यकाल के पूर्व भाग में अपने उत्कर्ष में थीं। इन चारों ही शाखाओं ने हिन्दी साहित्य को बड़े-बड़े व्यक्तित्व प्रदान किए जैसे - सूर, तुलसी, कबीर आदि । अपने भक्तिभाव की चरम उत्कृष्टता के लिए भी ये जनता के मन-मानस पर आधिपत्य कर सके। आज भी ये श्रद्धा एवं आदर से देखे जाते हैं। यद्यपि कालान्तर में इन सम्प्रदायों में भी अनैतिकता के तत्त्वों के प्रवेश के कारण शुद्धता नहीं रह गई थी तथा इनका पतन भी धीरे-धीरे हो गया था तथापि जो अद्‌भुत मणियाँ इस काल में प्राप्त हुईं, वे किसी भी अन्य काल में प्राप्त नहीं हो सकीं, यह निस्संदेह कहा जा सकता है। भक्तिकाल में हर प्रकार से कला समृद्धि हुई, नवीन वातावरण का जन्म हुआ, जन-जन में भक्ति, प्रेम और श्रद्धा के स्रोत फूट पड़े, ऐसा काल वस्तुत: साहित्येतिहास का "स्वर्णकाल" कहलाने योग्य है।

सम्प्रदायों से मुक्त रूप में भी भक्ति का प्रचार था। मीरा, रसखान, रहीम का नाम उतनी ही श्रद्धा से लिया जाता है जितना कि किसी सम्प्रदायबद्ध संत कवि का। इस तरह कहा जा सकता है कि जनता में सम्प्रदाय से भी अधिक शुद्ध भक्ति-भाव की महत्ता थी। ऐकान्तिक भक्ति ने समष्टिगत रूप धारण किया और जन-जन के हृदय को आप्लावित कर दिया।

तुलसी की मृत्य (1680 ई.) के कुछ समय बाद ही रीतिकाल के आगमन के चिह्न दिखाई देने लगे थे। राम के मर्यादावादी रूप का सामान्यीकरण करके उसमें भी लौकिक लीलाओं का समावेश कर दिया गया। कृष्ण की प्रेम भक्ति (मूलक) जागृत करने वाी लीलाओं में से कृष्ण की श्रृंगारिक लीलाओं को ग्रहण करके उसका अश्लील चित्रण होने लगा था। यह स्थिति रीतिकाल में अपने घोरतम रूप में पहुँच गई थी। इसीलिए कहा गया था "राधिका कन्हाई सुमरिन को बहानो है।" रामभक्ति का जो रूप तुलसी ने अंकित किया था, यद्यपि वह धूमिल नहीं हुआ तथापि राजाओं के आश्रय में रहने वाले कवियों ने श्रृंगारिकता के वातावरण में उसे विस्मृत कर दिया था। इस तरह धीरे-धीरे ई.1680-90 के आसपास भक्तिकाल समाप्त हो गया।

कालांतर में यद्यपि जनता में भक्तिभाव विद्यमान रहे तथापि न तो इस (तुलसी आदि के समान) को महान विभूति पैदा हो सकी और न कोई बहुत अधिक लोकप्रिय ग्रंथ ही लिखा जा सका।

भक्ति युग का यह आन्दोलन बहुत बड़ा आन्दोलन था एवं ऐसा आन्दोलन भारत ने इससे पहले कभी नहीं देखा था। इस साहित्य ने जनता के हृदय में श्रद्धा, भक्ति, विश्वास, जिजीविषा जागृत की, साहस, उल्लास, प्रेम भाव प्रदान किया, अपनी मातृभूमि, इसकी संस्कृति का विराट एवं उत्साहवर्धक चित्र प्रस्तुत किया, लोगों के हृदय में देशप्रेम भी प्रकारंतर से इसी कारण जागृत हुआ।

भक्तियुग में इस तरह मुख्यत: भक्तिपरक साहित्य की रचना हुई परन्तु यह भी पूर्णतया नहीं कहा जा सकता कि किसी अन्य प्रकार का साहित्य उस काल में था ही नहीं। यह अकबर का शासन काल था तथा उसके दरबार में अनेक कवि थे। अब्दुर्रहीम खानखाना आदि की राजप्रसस्तिपरक कुछ कविताएँ मिलती हैं। अकबर ने साहित्य की पारम्परिक धारा को भी प्रोत्साहन दिया था अत: काव्य का वह रूप भी कृपाराम की "हिततरंगिणी" बीरबल के फुटकर दोहों आदि में उपलब्ध होता है। इसके अतिरिक्त नीति परक दोहे आदि लिखे गये।

एक और महान कवि आचार्य केशव को शुक्ल जी ने भक्तिकाल के फुटकर कवियों में रखा है। यह कार्य उन्होंने केशव के रचनाकाल के आधार पर किया है। केशव की अलंकार, छंद, रस के लक्षणों - उदाहरणों को प्रस्तुत करने वाली तीन महत्त्वपूर्ण रचनाओं - कवि प्रिया, रसिक प्रिया तथा रामचन्द्रिका को भक्ति से भिन्न मान कर भी उन्हें इस युग के फुटकर कवियों में शुक्ल जी ने रखा है परन्तु यह उचित नहीं है। केशव का आचार्यत्त्व पूरे रीतिकाल को गौरव प्रदान करता है। रीति - लक्षण -उदाहरण के निर्धारण की परम्परा भी सर्वप्रथम उन्हीं में दिखाई देती है चाहें रीतिकाल में इस निर्धारण के लिए केशव को रीतिकाल से पृथक करना अनुचित है अत: उन्हें भक्तियुग में रखना उचित नहीं है।

भक्तिकाल में ललित कलाओं का उत्कर्ष दिखाई देता है। श्रीकृष्ण-राधा की विभिन्न लीलाओं के चित्र इस काल में मिलते हैं, कोमल एवं सरस भावों को अभिव्यक्त करने वाली अनेक मूर्त्तियाँ इस काल में मिलती है। मूर्तिकला का बहुत विकास इस युग में बहुत अधिक हुआ था। वास्तुकला, चित्रकला में मुस्लिम (ईरानी) शैली का समन्वय भारतीय शैली में हुआ फलत: मेहराबें, गुम्बद आदि का प्रयोग अधिक दिखाई देने लगा। मध्यकाल में राजस्थानी शैली अधिक लोकप्रिय थी। मानवीय चित्रों के अतिरिक्त प्राकृतिक दृश्यों का अंकन, दरबारी जीवन के विविध प्रसंग भी भित्ति चित्र इस युग में प्राप्त होते हैं। ’कुतुबमीनार’, ’अढ़ाई दिन का झौंपड़ा’ आदि ऐतिहासिक वास्तुकला के अप्रतिम नमूने हैं।

इस तरह साहित्य के साथ ललित कलाओं का विकास भी बहुत अधिक हुआ था। संगीत के क्षेत्र में बहुत प्रगति हुई। कृष्णलीलाओं का गायन, साखी, रमैनी, पद को राग निबद्ध करने की जैसी योजना इस काल में है वैसी अन्यत्र प्राप्य नहीं है। सूर और तुलसी साहित्य में अनेक राग-रागनियों का वर्णन आता है।

निष्कर्षत: कह सकते हैं कि भक्ति के उद्‌भव एवं विकास के समय जो कुछ भी भारतीय साहित्य, भारतीय संस्कृति तथा इतिहास को प्राप्त हुआ, वह स्वयं में अद्‌भुत, अनुपम एवं दुर्लभ है। अंतत: हज़ारी प्रसाद द्विवेदी जी के शब्दों में कह सकते है - "समूचे भारतीय इतिहास में यह अपने ढंग का अकेला साहित्य है। इसी का नाम भक्ति साहित्य है। यह एक नई दुनिया है। भक्ति का यह नया इतिहास मनुष्य जीवन के एक निश्चित लक्ष्य और आदर्श को लेकर चला। यह लक्ष्य है भगवद्‌भक्ति, आदर्श है शुद्ध सात्विक जीवन और साधन है भगवान के निर्मल चरित्र और सरस लीलाओं का गान।"

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  1. क्या तुमको भी ऐसा लगा