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चूड़ीवाला और अन्य कहानियाँ –लेखक- अमरेन्द्र कुमार

चूड़ीवाला और अन्य कहानियाँ
लेखक: अमरेन्द्र कुमार
प्रकाशक: पेंगुइन बुक्स
मूल्य: रु. १२५
पृष्ठसंख्या : १७५
सम्पर्क: www.penguinbooksindia.com

 

अमरेन्द्र जी की कहानियों का पहला संकलन “चूड़ीवाला और अन्य कहानियाँ” अपनी परिपक्वता और गहन भाव प्रस्तुति के कारण प्रथम कहानी संग्रह सा नहीं लगता। बहुत ही कम लेखकों की रचनाओं में प्रारंभ से ही ऐसी परिपक्वता देखने को मिलती है। आठ कहानियों का यह संग्रह भाषा, भाव, संवेदन और छपाई, प्रत्येक दृष्टि से अति उत्तम है।

अमरेन्द्र के कहानी संकलन की पहली कहानी का नाम है “चिड़िया”। यह कहानी सर्वप्रथम “अभिव्यक्ति” में पढ़ी थी और पढ़कर यह प्रभाव पड़ा कि मैंने तुरंत अमरेन्द्र को बधाई का पत्र लिखा; पुनः इस कहानी को संग्रह की प्रथम कहानी के रूप में देखकर अच्छा लगा।

“चिड़िया” कहानी कई अर्थों में विशिष्ट है। कहानी पर ऐसी पकड़ और प्रस्तुति बहुत ही कम लेखकों में मिलती है। यह कहानी सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक या राजनैतिक घटना से खाली है। यहाँ तक कि इस कहानी में स्थूल स्तर पर कोई संवाद भी नहीं है पर बिना किसी स्थूल संवाद के भी एक बड़ा संवाद हो रहा है – भाव और संवेदना के स्तर पर। यह संवाद दो भिन्न प्रकार के प्राणीयों के बीच का संवाद है – चिड़िया और मनुष्य। दोनों अपनी अपनी स्वाभाविक अस्मिता के साथ यहाँ उपस्थित हैं – कोई किसी पर हावी नहीं है; कहीं कोई छोटाई-बड़ाई नहीं है। चिड़िया मनुष्य की पालतू चिड़िया नहीं है अपितु मनुष्य की करुणा और संवेदना की वशीभूत है, ठीक वैसे ही मनुष्य भी चिड़िया के अपने प्रति विश्वास और सहजता से पराभूत है। प्रायः आपसी समझ और विश्वास का वातावरण मनुष्य, आपस में बातचीत करने के बाद भी नहीं बना पाते, वहीं वातावरण चिड़िया और मनुष्य के बीच बिना बातचीत के बन गया है। चिड़िया का अपनी साथिन चिड़िया को लेकर आना, बीमार लेखक के ऊपर से उड़ना, गरम हथेलियों में बैठे रहना, फैले कागज़ों पर आकर बैठना और फिर साथी चिड़िया का आकर मानों पहली चिड़िया के न रहने का समाचार देने आना कल्पित सा लगता हुआ भी विश्वसनीय है। लेखक की भाषा बहुत ही सधी हुई है। कहानी का वातावरण कहीं-कहीं निर्मल वर्मा की याद दिलाता है, जैसे – “बुखार में एक खास बात और होती है कि आदमी एक साथ कई दुनिया में होता है, डूबता-उतरता हुआ, पीड़ा और सुख, तपन और हल्का...”

यह कहानी विषयवस्तु और विषय-प्रस्तुति दोनों ही दृष्टियों से बहुत ही अनोखी है।

“चूड़ीवाला” कहानी ने समय के साथ होने वाले सामजिक परिवर्तन, मनुष्यों के आपसी संबंधों की दरार और उनसे उत्पन्न दर्द को स्वर दिया है। चूड़ीवाला कहानी पुराने भारतीय समाज के उस सामाजिक पक्ष की याद दिलाती है जहाँ गाँव का व्यक्ति ही संबंधी होता था और परस्पर उस मान-मर्यादा का निर्वाह किया जाता था। कहानी आगे बढ़ती हुई उस नए समाज का भी दर्शन कराती है जहाँ यह मान, यह संबंधों का भाव समाप्त हो जाता है और हर चीज़ को बाज़ारवाद की दृष्टि से देखा जाता है। कहानी के नायक बूढ़े सलीम चाचा पर जब यह बाज़ारवाद प्रहार करता है तो वह कहते हैं – “बहू, आज मुझे पता चला कि मेरी उम्र क्या है, मैं कौन हूँ और मेरी हस्ती क्या है। अच्छा हुआ ये भ्रम टूट गया कि जिन्हें मैं अपनी बेटी और बहू समझता था वे एक खरीददार से ज़्यादा कुछ न थीं....”

कहानी में भाव का प्रवाह है और सरल-सहज शब्दों के बीच से संबंधों के प्रति अविश्वास की पीड़ा उभरती है।

तीसरी कहानी है “ग्वासी”। ग्वास का क्या अर्थ है पता नहीं पर वह एक इमारत का नाम है। एक बहुत पुरानी, हज़ार साल या उससे भी अधिक पुरानी इमारत। इस कहानी का नायक या नायिका यह भवन ही है जिसके चारों ओर लेखक या कहानी के मुख्य पात्र का जीवन घूमता है। कभी-कभी कोई ऐतिहासिक भवन किसी शहर या प्रांत की पहचान बन जाता है, ग्वासी भी कहानी के मुख्य पात्र के शहर की पहचान है, जहाँ शहर के सभी सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनैतिक कार्य संपन्न होते हैं पर इस कहानी में “ग्वासी” की महत्ता इस दृष्टि से नहीं उभरती अपितु इसकी महत्ता इसलिए है कि ग्वासी कहानीके प्रमुख पात्र के जीवन में गुंथा हुआ है। उसके बचपन के खेल, किशोर मन के कौतूहल-कल्पना, वहाँ होने वाली गतिविधियों और युवक मन की संवेदना का रेशा रेशा ग्वासी की ईंटों, सीमेंट, नक्शे, उद्यान, दीवारों और सीढ़ियों के ताने-बाने से बना हुआ है। “ग्वासी” यँ इमारत नहीं अपितु ेखक को एक ऐसा वृद्ध व्यक्ति दिखाई देता है जो कभी हँसता, मुस्कुराता है तो कभी आँखें झपकता है। “अतीत और वर्तमान का इतना रँगीन मिलन अद्‍भुत जान पड़ता और ’ग्वासी’ एक बुज़ुर्ग़ की तरह मुस्कुरा पड़ता अपनी एक-एक झुर्री को एक नए रंग में रँगते देखकर!”

यह कहानी जहाँ ’ग्वासी’ जैसे ऐतिहासिक स्थलों के महत्व को वर्तमान जीवन में रेखांकित करती है वहीं सर्वसामान्य के दैनंदिन जीवन से उसके घनिष्ठ आत्मिक संबंध को उभारती है। लेखक की वैचारिक प्रक्रिया ’घटना और दृश्य के समानांतर चलती हुई कहानी में हल्की सी दार्शनिक गहराई उत्पन्न करती है जिससे कहानी में आभा उत्पन्न होती है।

“रेत पर त्रिकोण” कहानी कलापक्ष की दृष्टि से तो अमरेन्द्र जी की अन्य कहानियों की तरह हि वैचारिक परिपक्वत और प्रवाह लिए हुए है किन्तु वस्तुपक्ष इसका कुछ भिन्न है। यह कहानी भारतीय समाज के मध्यवर्गीय युवक की कहानी है जो जीवन चलाने की चेष्टा में जीवन से कहीं दूर होता चला जाता है। कहानी के प्रमुख पात्र, लेखक, नीरज और सचिन तीनों अपनी-अपनी जगह जीवन का संघर्ष कर रहे हैं। लेखक जहाँ जीवन को लक्ष्यहीन समझ कर शादी आदि विषयों से उदासीन है, वहाँ नीरज महानगर की समस्याओं से जूझता हुआ ’घर’ जाने को उत्सुक है। सचिन प्रतियोगी-परीक्षाओं में अपना भाग्य आज़माआ हुआ एक नौकरी पा जाने को उत्सुक है। कहानी कई विषयों पर टिप्पणी करती हुई चलती है और निष्कर्ष पर पहुँचती है कि “एक वृत्त और उसके अंदर एक समबाहु त्रिभुज, तीन बिंदु एक-दूसरे से समान दूरी पर; परन्तु एक-दूसरे से किन्हीं रेखाओं से जुड़ी हुई”

अमरेन्द्र के इस कहानी संग्रह में विभिन्न विषयों पर विचार किया गया हि। जहाँ कहीं कोई पात्र, कोई जगह, प्रकृति का कोई हिस्सा या कोई घटना लेखक के मन को छू गई, वहीं वह उसके विचारों और संवेदना में गुंथ कर सहज भाषा में प्रवाहित हो कर कहानी के रूप में प्रस्तुत हो गई है।

“मीरा” और “एक पत्ता टूटा हुआ” भी इसी प्रकार की कहानियाँ हैं। “मीरा” एक विदेशी स्त्री के भारतीय धर्म से प्रेम और विपरीत स्थितियों में भी हिम्मत न हारने की कहानी है। मीरा में मीरा के जीवन का संघर्ष है तो लेखक का अपना संघर्ष भी पूरी करुणा के साथ उपस्थित है। माँ की मृत्यु, विदेश से देश की दूरी, भारत से विवश होकर पुनः विदेश लौटना, सभी कुछ प्रवासी जीवन की मर्मान्तक पीड़ा का विवेचन करते हैं। मीरा अपने बचपन के कटु अनुभवों से अकेलेपन से और फिर अकेले ही मातृत्व के दायित्वभार को संभालने के कार्य से जूझने वाली स्त्री का नाम है जिसका जीवन संघर्षों में झकझोरे खाता है पर अन्ततः आत्मविश्वास और प्रभु भक्ति से पूर्ण होकर पुनः समय की ताल पर थिरकने लगता है, ठीक वैसे ही लेखक का जीवन भी सामाजिक, आर्थिक परिस्थितियों से जूझता, माँ को खो देने में टूटता सा जान पड़ने के उपरांत भी फिर साहस से उन्नति मार्ग पर कदम-कदम रखता आगे बढ़ने लगता है ।

यह कहानी जीवन के ’न हारने’ की कहानी है।

“एक पत्ता टूटता हुआ” संग्रह की अन्य कहानियों के समान ही आत्मपरक शैली का अनुसरण करती है। यहाँ “मैं” मनुष्य या ’अमर’ नहीं अपितु एक पत्ता है जो उगने से लेकर टूटने की कहानी को, टूटने के बाद लोगों के जीवन को देखने की कथा को कहता है। कहानी छोटे-छोटे दृश्यों को मिलाकर एक बड़ा बिम्ब उपस्थित करती है। सहज – सरल भाषा और लेखक की गहरी कल्पना ही इस कहानी की सफलता का आधार है।

अंतिम दो कहानियाँ ’रेलचलितमानस’ और ’वज़न’ का स्वर संग्रह की सभी कहानियों से हटकर है। ये हास्य-व्यंग्य की कहानियाँ हैं और आकार में भी अन्य कहानियों से छोटी हैं। ’वज़न’ कहानी तो लगभग लघुकथा सी है। इन कहानियों ने यह प्रमाणित किया है कि अमरेन्द्र जी दार्शनिक विचारों को अगर कथा के स्वरूप में बाँध सकते हैं तो हास्य-व्यंग्य पर भी अच्छी पकड़ रखते हैं।

इन सभी कहानियों की पहली विशेष बात यह है कि लेखक वर्तमान और स्मृति का बहुत ही संगुफित, प्रवाहपूर्ण रूप प्रस्तुत करने में सफल रहा है। बहुत आसानी से वह स्मृति के पन्नों में पहुँच वहाँ के दृश्य साकार कर देता है और उसी आसानी से वह वर्तमान में आकर चीज़ों व स्थितियों पर टिप्पणी करने लगता है। यह सब ऐसे सहज भाव से होता है, पाठक भी लेखक के मन और दिमाग के साथ कदमताल करता हुआ चलने लगता है।

प्रायः सभी कहानियों में लेखक उपस्थित है। लेखक प्रायः प्रमुख पात्र है, न केवल वह “मैं” का अर्थत्‌ आत्मपरक शैली का उपयोग करता है अपितु “अमर” नाम से स्वक्षात रहना भी है। ऐसा प्रायः कम देखा गया है कि कोई लेखक अपने संग्रह की लगभग पचास फीसदी कहानियों में अपने से जुड़ी घटनाओं, अपनी मनःचिन्ता और भावनाओं को बिना दूसरे नाम से छुपाए, ईमानदारी से प्रस्तुत कर दे। इसे मैं अमरेन्द्र जी का आत्म-विश्वास मानती हूँ जो वे ’स्वानुभूत सत्य’ को ’स्वपरक शैली’ में प्रस्तुत कर सके हैं। बहुत से आलोचक इस प्रकार कहानी में लेखक के रहने को अच्छा नहीं समझते हैं क्योंकि इससे उन्हें लेखक के जल्दी चुक जाने या कहानी के पात्रों के भावों में उलझ कर लेखक के निष्पक्ष न रह पाने की बाधा उत्पन्न होती लगती है। ऐसे आलोचकों की बात शायद कहीं-कहीं सत्य हो पर अमरेन्द्र जी के साथ यह बात सत्य होती नहीं लगती। ऐसा लगत हि कि घटनाओं, दृश्यों और पात्रों का पहले वे मानसिक अनुवाद करते हैं फिर वे बिंब उनके विचार के स्तर पर प्रतिबिंबित होते हैं – इस स्तर पर लेखक इन बिंबों में घुल-मिल कर भीतर ही भीतर कहीं पैठ जाता है और तब ये बिंब कहानी के रूप में पृष्ठों पर उतरते हैं। इस प्रक्रिया में लेखक का कहानी में उभरना स्वाभाविक ही है। अमरेन्द्र जी की भाषा शैली पर निर्मल वर्मा की भाषा शैली का प्रभाव भी है। प्रायः वातावरण-वर्णन करते समय अमरेन्द्र जी निर्मल वर्मा की तरह उसमें खो जाते हैं। परन्तु अमरेन्द्र जी की कहानियाँ निर्मल वर्मा की कहानियाँ नहीं हैं क्योंकि वे प्रकृति में कुछ देर खोकर भी उसमें डूब नहीं जातीं, यहाँ वातावरण और कहानी दो पृथक अस्तित्व के रूप में आते हैं और दोनों ही अपनी सशक्तता और गहनता से प्रभावित करते हैं। ऐसे सुंदर कहानी संग्रह के प्रकाशन पर अमरेन्द्र जी को बधाई!!!

 

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