आग
कथा साहित्य | कहानी डॉ. शैलजा सक्सेना15 May 2025 (अंक: 277, द्वितीय, 2025 में प्रकाशित)
पता चला कि रात घर के आदमियों ने खाना नहीं खाया और औरतों में देर तक चिल्ल-पौं मची रही। बड़ी बहू जो गाय जैसी-सी ही दिखाई देती थी, रस्सा तुड़ा कर आपे से बाहर हो गई और छोटी का मुँह तो पहले से ही खुला था सो और दस बातें झड़ीं उसके मुँह से। दयावती जी, यानी मिसेज़ अग्रवाल ने अपनी बहुओं का विकराल रूप देख कर अपने बेटों को समझाना शुरू किया पर बेटे भी उल्टी चाल पर थे। आप पूछेंगे कि इस में नया क्या है? यह तो हर घर की कहानी है! कितने दुख की बात है न कि अब किसी के चोट खाए मन या किसी की शाब्दिक हिंसा से हमारी संवेदना नहीं जागती। यहाँ तो शारीरिक हिंसा इतनी आम बात हो गई है कि लोगों ने उस पर चौंकना भी बंद कर दिया है, बस सब आँचल से अपने घर की आग को ढाँकने की कोशिश करते हैं जब तक कि वह आग उनका पल्ला जला कर बाहर वालों को न दिखने लगे। ख़ैर, बात यह नहीं थी कि बहुएँ आपस में लड़ रहीं थीं या बेटे आपस में लड़ रहे थे, बात यह थी कि दोनों बेटे मिलकर दोनों बहुओं से लड़ रहे थे। जी हाँ, जनाब यही चौंकाने वाली ख़बर मुझे मिली और यह भी कि मुझे तुरंत का तुरंत अग्रवाल जी के घर पहुँचना है।
मैं? मैं कौन? मैं वकील रामप्रसाद तालेवाला! तालेवाला!! इस नाम पर हँसिये मत! बहुत काम आता है यह नाम, मेरा ‘मोटो’ है कि मैं कहीं भी ताले लगवा सकता हूँ और कहीं के भी ताले खुलवा सकता हूँ। बाप-दादों के तालों का व्यवसाय मेरे काम में भी नारे की तरह काम आ रहा है। मेरी कहानी फिर कभी, अभी तो अग्रवाल साहब के घर की कहानी देखनी है। मैं उन का भी वकील हूँ, महीने में एक बार चक्कर लगा कर वो कोर्ट के मामले में फँसी अपनी दो-तीन ज़मीनों के बारे में मुझ से राय-मश्विरा कर लेते हैं बल्कि कहूँ कि पिछले चार-पाँच सालों में उनसे इतनी बार मिलना हुआ है कि दोस्ताना हो चला है।
अग्रवाल साहब की कोठी पँखा रोड पर, चन्ननदेवी अस्पताल के चौराहे से पहले, सी-1 में पड़ती है। सुबह का ट्रैफ़िक का समय और मेरा अपना पूरा व्यस्त दिन! पर अग्रवाल साहब की रुलासी प्रार्थना कि ‘आप अभी कि अभी आ जाये’, मैं मना नहीं कर पाया। वैसे भी झगड़े, झंझट की नींव पर ही तो खड़ी होती है वकीलों के व्यवसाय की इमारत! कोई लड़े, झगड़े, यह तो हमारे लिये अच्छे शकुन वाली बात ही है, पर अग्रवाल जी का मैं सम्मान करता हूँ, ईमानदार आदमी हैं, पढ़े-लिखे, खुली सोच के अमीर आदमी! नेक ऐसे कि अपनी अमीरी का रोब गाँठना उन्हें सुहाता नहीं। मैंने ऐसे आदमी गिनती के ही देखे हैं! मेरे मन में उनके लिए इज़्ज़त है सो उनकी आवाज़ के दर्द से मैं पिघल गया और अपने दिनभर के कार्यक्रम स्थगित करके उनके घर पहुँचा।
घर में सन्नाटा था। भीतर से भी कोई आवाज़ नहीं आ रही थीं। कमलाबाई ने दरवाज़ा खोला और ड्राइंगरूम में बिठा कर पानी लेने चली गई। अग्रवाल साहब का घर बहुत बढ़िया सजा है। बहुत मन से उन्होंने यह कोठी बनवाई है, तिमंज़िला कोठी। पँखा रोड का व्यस्त मुहाना, पास में अस्पताल, आगे सीधे उत्तम नगर और दायें मुड़ गए तो तिलक नगर यानी ‘लोकेशन’ बिल्कुल फ़र्स्ट क्लास और अब तो पास में मैट्रो भी आ गई है, घरों के दाम आसमान छूने लगे हैं। ‘. . . ह्म्म . . .आज के समय में यह कोठी नौ-दस करोड़ से तो कम क्या ही होगी. . .’ मेरा दिमाग़ जमा-जोड़ में लग रहा था। किसी की हैसियत नापनी हो तो उसकॆ बँगले और गाड़ियों, बीबी के शरीर पर सजे गहनों और साहब के कपड़ों से ही नापी जाती है। बाक़ी छोटे से घर में सादा रहने वाला आदमी करोड़ों जमा कर ले, उसे कौन अमीर कहेगा साहब! जो दिखता है, वही कहा भी जाता है। दुनिया कहाँ से कहाँ पहुँच गई पर हमारी सफलता मापने के आँकड़े वही हैं, बाक़ी कहने को आदर्शवादी बहुत कह गये हैं, हम भी सुन लेते हैं पर हो तो वही रहा है जो होता आया है। इस वातानुकूलित साफ़-सुथरे, सुरुचिपूर्ण ढंग से सजे ड्राइंगरूम में गद्देदार सोफ़े पर धँसे, मेरे यह सब ख़्याल, मेरे साथ ही दो मिनट को साँस लेने बैठ गये थे, वरना इन बातों पर सोचने की मुझे कहाँ फ़ुरसत! इन बातों का जमा जोड़ यह कि अग्रवाल साहब का कपड़े के शो रूम का बिज़नेस अच्छा चल रहा है और उन्हें सफल कहा जा सकता है।
अग्रवाल साहब आए तो गंभीर थे, आँखॆं लाल, चेहरे पर तनाव की स्याही! दोनों बेटे भी साथ-साथ ही आये। बड़ा ३5-३6 का है और छोटा ३२-३३ का। दोनों के जबड़े भिंचे हुए!
अग्रवाल साहब ने ही बात शुरू की, “ये दोनों अड़े हुए हैं कि अब ये अपनी पत्नियों के साथ नहीं रह सकते!”
प्रशांत, बड़े बेटे ने बात जोड़ी, “अगर कोई और रास्ता न दिख रहा हो तो हम भी क्या कर सकते हैं? कितना समझायें!”
निशांत ने उबल कर कहा, “देख लिया बहुत समझा कर, अब कुछ नहीं हो सकता! ऑफ़िस में सिर खपायें और यहाँ आकर इनके तेवर देखें, कब तक?”
अग्रवाल साहब ने बेबसी से देखा, “अब बताइये क्या करूँ मैं? मैं भी तंग आ गया हूँ! चैन से आदमी रहे तो कैसे? बाहर जाओ तो वहाँ की ख्वाँ-ख्वाँ, भीतर आओ तो यहाँ की! दोनों तरफ़ आग लगी है!”
विचित्र कहानी है! दोनों लड़के एक साथ अपनी पत्नियों से अलग होना चाहते हैं! दोनों के शायद एक-एक बच्चा भी है, बड़े के तो शायद दो! ऐसी बात पहले कभी नहीं सुनी थी। मेरी उत्सुकता बढ़ी।
“बात विस्तार से बतायें तो कुछ सोचा जाये। दोनों पक्षों से बात करनी होगी, अलग होने का क्या मतलब है, यह सब भी आप लोगों को जानना होगा। कोर्ट तक पहुँचने से पहले जो किया जा सके, वह करना ज़रूरी है।”
मेरी बात ख़त्म होने से पहले मिसेज़ अग्रवाल, चाय-नाश्ते की ट्रे और कमलाबाई समेत उपस्थित हुईं। मैंने उनकी बहुओं को भी बुलवा लिया ताकि जो भी बात हो सब के सामने हो। रात की घमासान बहसबाज़ी के निशान बहुओं की रोई, सूजी आँखों पर थे। मन के झंझावात भी चेहरे पर काँप रहे थे। लड़कों की हालत भी कुछ-कुछ वैसी ही थी। उनकी लाल आँखें रात भर के जागरण को बता रहीं थीं। मिसेज़ अग्रवाल ने कमला बाई से सब के लिए चाय परसने को कहा। कम से कम इस बहाने कुछ पेट में तो जाएगा, कल से सब निराहार ही थे। पति और लड़कों को मेरे साथ बिठा कुछ खिला लेने के आतुर आग्रह में उन्होंने बात को थामे रखा। पहले भी दो-चार बार मेरा आना हुआ है यहाँ। सुलझी हुई, सभ्राँत महिला लगीं हर बार मुझे मिसेज़ अग्रवाल। वसीयत बनाने के समय पर भी उनकी दूरदृष्टि और सोच से मैं प्रभावित हुआ था, वरना इन मामलों में औरतें कहाँ बोलती हैं वकील के सामने। पीछे से चाभी भर कर लाती हैं पतियों की और सामने एकदम चुप! गाय जैसी! या बिल्कुल ग़ायब, मानों कुछ भी पल्ले न पड़ रहा हो पर मिसेज़ अग्रवाल ने बहुत समझदारी के दो-तीन सुझाव दिये थे, ख़ैर!
मिसेज़ अग्रवाल ने तीनों को कड़ी नज़र से देखते हुए कहा, “बात का बतंगड़ बना दिया इन सब ने भाई साहब! किस घर में लड़ाई नहीं होती। अलग-अलग सोच है तो आवाज़ें तो ऊँची हो ही जाती हैं पर इसका मतलब यह तो नहीं कि बसी-बसाई गृहस्थी में कोई अपने हाथों आग लगा दे!” हाँफ गई वो इस स्पष्टीकरण को देते हुए!
अग्रवाल साहब ने कहानी को सिरे से बताना शुरू किया। बीच-बीच में दयावती जी, नीमा, रूमा और प्रशांत, निशांत भी कहानी में विस्तार जोड़ने लगे ताकि मैं बात की तह तक पहुँच कर, स्थिति की गंभीरता पर विचार कर सकूँ। सब की बातों का जो सार है, आप सब को वही बताता हूँ अब!
बात दो महीने पहले से शुरू हुई थी। प्रशांत अपनी शादी की दसवीं वर्षगाँठ पर पत्नी रूमा के लिए हीरों के हार का एक सैट ले आया। रूमा ने ख़ुशी-ख़ुशी देवरानी नीमा को दिखाया, नीमा को भी बहुत अच्छा लगा वो हार! किसको आभूषणों से लकदक होना अच्छा नहीं लगेगा सो उसने निशांत से अपने लिये भी ऐसे ही सैट की माँग की। निशांत ने उसे अपनी दसवीं वर्षगाँठ पर देने की बात कही पर तब तक कौन इंतज़ार करे! बात बढ़ते हुए पैसों पर आयी और दोनों भाई जो एक साथ चार्टड एकाऊंटेंसी की फ़र्म खोले बैठे हैं, उसमें बराबरी से पैसा लेने की बात शुरू हो गई। निशांत का कहना था कि भाई पाँच साल पहले से यह फ़र्म चला रहे हैं, बहुत मेहनत की है उन्होंने इसे जमाने में तो उनका हक़ कहीं अधिक है, वह तो जमे जमाये काम में आया। नीमा का कहना था कि निशांत के आने से जो आय दुगुनी हुई, उसमें से कुछ भाग अगर वह ले लेगा तो कौन सी आफ़त! पति-पत्नी में कुछ दिनों तक तो दबी-छिपी कहा सुनी हुई पर जब बात नहीं सँभली तो बाहर आ ही गई। लेकिन बात जहाँ से शुरू होती है, वहाँ कहाँ ठहरती है जी, जाने कहाँ-कहाँ की कुंठाओं और शिकायतों के पाटों से बहती, दिशायें मोड़ती, बाढ़ का रूप ले लेती है और बाद में तटस्थ रूप से देखा जाता है तो लगता है . . . कि इतनी बड़ी बात तो नहीं थी! बात बड़ी हो न हो पर ख़ून में बसे सिद्धान्त तो जड़ जमाये बैठे रहते हैं दोनों तरफ़ . . . कि मैं औरत हूँ, मुझ से ऐसा क्यों कहा . . . या मैं आदमी हूँ तो मुझ से ऐसा कहने की हिम्मत कैसे हुई! वही सब जो रोज़ देखता हूँ मैं . . . देखिए मैं तो यह जानता हूँ कि ये ज़िद का संस्कार और अहंकार जब दोनों मिल जाते हैं तो कनपटी पर वो मार लगाते हैं जनाब कि अच्छॆ-अच्छे समझदारों के सिर भन्ना जाये!
तो जनाब, आप पूछेंगे कि अग्रवाल साहब के घर में दोनों बहुएँ एक कैसे हो गयीं? क़िस्सा तो यही है! मैं भी हैरान कि ज़माने से एक-दूसरे के विरोध में खड़ी दिखाई देने वाली देवरानी और जिठानी ने एकता संघ कैसे बना लिया? आप ने भी सुना होगा, ‘औरत ही औरत की सबसे बड़ी दुश्मन होती है’, मैं यह बात आपसे दावे के साथ कह सकता हूँ कि यह सिद्धान्त किसी औरत का बनाया तो हो ही नहीं सकता! हाँ, औरतों को भिड़ाने वाले, उसके अहं को हवा देकर उसको चंडी बनने को उकसाने वालों का ही यह सिद्धान्त होगा। ये आदमी घर के बाहर भी हर तरह की फूट डालते हैं और . . . घर में सास और बहू, देवरानी और जिठानी पदों के बीच फूट डालते हैं . . . और औरतों में पैदा करते हैं असुरक्षा की भावना! बस! फिर देखो! आग लगाने की देर है, फैलने में क्या समय लगता है? तब उस आग पर अपने स्वामित्व को पकाओ! औरतें एक हो जाएँ तो आदमी की सुनेगा कौन सो बस, फूट डालो . . . कंधा किसी और का, बंदूक अपनी! यही तो खेल है! ख़ुद अच्छे बने रहो और . . . पर यहाँ तो आग कुछ अलग ही चल रही थी।
छोटी बहू ने पति का प्रतिवाद किया कि क्या उन्हें दस-पंद्रह लाख भी उस व्यवसाय से निकालने का हक़ नहीं? अगर नहीं, तो जेठ जी ने क्यों निकाले? पूछो! निशांत यह सवाल भाई से क्योंकर पूछता! उसका भाई है, व्यवसाय उसने खड़ा किया तो क्या वह अपनी शादी की वर्षगाँठ पर इतना भी नहीं ले सकता! लिया तो लिया . . . इसमें सिर खपाने की क्या बात? नीमा को लगा कि बात भाइयों के बीच धन की नहीं, निशांत के हठ की ज़्यादा है, क्यों कि प्रशांत को जैसे ही पता चला कि नीमा-निशांत के बीच इस बात की तकरार है कि उसे वह हार क्यों नहीं मिला तो उसने तुरंत निशांत को बताया कि कैसे उसने आधे दाम जमा कर के और आधे के लिये किश्तें देने का तरीक़ा निकाला, निशांत भी ऐसा ही करके नीमा की माँग पूरी कर दे और सुखी रहे, और यह नहीं करना तो फ़र्म से पैसा निकाल ले और बाद में धीरे-धीरे दे दे पर निशांत को यह बात नागवार गुज़री।
“यह तो तुष्टिकरण की नीति है, आज यह माँगा तो दे दो, कल को घर में आधा हिस्सा माँगेगी तो वो दे दो, न भैया, यह आदत ही ग़लत है। कुछ समय इंतज़ार कर लेगी तो कौन सा पहाड़ गिर पड़ेगा। मैंने कितनी बातें मानी हैं इसकी पर, यह बात! कोई ‘लॉजिक’ हो तो माना भी जाये! वो ज़िद्दी तो मैं भी इस बार ज़िद्दी ही बनूँगा” नीमा के लिये भी यह बात अब गले में पहनने के हार की कहाँ रह गयी थी, बल्कि जीत-हार की बन गई थी।” मेरी बातें मानी हैं निशांत ने तो कौन सा अहसान कर दिया, मैं भी तो न जाने कितनी बातें मानती हूँ इनकी। और कौन सा अलग घर माँगने को कहती हूँ, एक चीज़, जिसे आप ख़रीद सकते हो, सिर्फ़ इसलिए नहीं ख़रीदना चाहते क्योंकि बीबी ने कहा है . . . यह” इल-लॉजिकल’ बात नहीं है क्या? मैं क्या कोई लालची लड़की हूँ जो हार के लिये मरी जाती हूँ?” वह स्कूल में पढ़ाती है, अपनी तन्ख्वाह लेती है, घर पर ख़र्चे का कोई दबाव न होने से उसकी महीने की आय बैंक एकाउंट में अनछुई ही रहती है, उसके ख़ुद के पास ही बहुत पैसे जमा हो गये हैं पर बात पैसे की कहाँ हैं? निशांत का उससे पहले चिल्ला कर झगड़ा करना, फिर उसे ‘स्वार्थी’ और ‘लालची’ कहना उसे गहरे तक बींध गया था और फिर पश्चाताप करने की बजाय उसका चुप होकर अलग-थलग रहना! यह भी किसी भले इंसान का व्यवहार होता है? ऐसे में आहत तो होती ही वो! उसने भी ग़ुस्से में ख़ूब बक-झक करी! . . . क्या-क्या कहा? वो तो अब उसे याद भी नहीं! ग़ुस्से में इंसान क्या अनाप-शनाप बोलता है, यह उसे तो याद नहीं रहता पर सुनने वाले को याद रहता है। निशांत को याद होगा वह सब! पर इन सब के बीच नीमा को लगा कि अपने जीवन के जो अनमोल छह साल उसने इस सम्बन्ध को दिये वो व्यर्थ गये! एक बच्चा दिया, कितनी ही बार अपनी इच्छाओं के साथ समझौता कर के निशांत की बात मानी, सास-ससुर सब की बात मानीं . . .। . . . एक नहीं, दो . . . नहीं, दर्जनों बातें उसे याद आयीं। बातें निशांत को भी याद आईं लेकिन नीमा की यादों से बिल्कुल विपरीत कि किस तरह वो और पूरा घर नीमा की इच्छाओं को पूरा करने के लिये तत्पर रहते हैं, उस पर अधिक ज़िम्मेदारी न रहे, उसका स्वास्थ्य और स्कूल के अनेक कामों का समय ठीक रहे, इसका ध्यान रखते हैं आदि! आदि! इस से ज़्यादा वो और क्या करें? किसी के सामने झुका तो जा सकता है, बिछा तो नहीं जा सकता? नीमा चाहती है कि वो बिछ जाये उसके सामने, जैसे ही उसके मुँह से कोई बात निकले तो तुरंत पूरी हो जाये, ऐसे कैसे? निशांत की अपनी सोच, ज़िम्मेदारी क्या कुछ नहीं? वो कोई पुरातनपंथी पति नहीं जो नीमा से हमेशा अपनी बात मनवाये पर नीमा को भी उसे बराबरी का स्तर तो देना चाहिये! कुछ तो इज़्ज़त देनी चाहिए पर नीमा ने तो उसे इतना बुरा-भला कहा है कि!!
इन बातों को लेकर क्या तो बातें हुईं रूमा और नीमा में कि रूमा ने भी देवर निशांत को समझाना शुरू किया कि उसे नीमा को स्वार्थी और लालची जैसे शब्दों के लिये माफ़ी माँगनी चाहिये! निशांत ने अपनी कड़वाहट की पोटली में से शब्द निकाले कि उसे भी ‘मेल शॉवनिस्टिक’ और ‘ईगोस्टिक’ और जाने क्या-क्या कहा गया है, उसके लिए नीमा भी माफ़ी माँगे। प्रशांत ने रूमा को समझाया था कि तुम बीच में मत पड़ो, तो रूमा बिफर पड़ी, “यह तो हद है, आपके अपने घर में दो लोग एक दूसरे से तने बैठे हों और आप तटस्थ हो कर बैठ जायें! ऐसी ही तटस्थता ने आज समाज को अजनबीपन के कुँए में धकेल दिया है, सड़क पर कोई घायल हो जाता है, लोग ‘बीच में पड़े बिना’ किनारा कर के निकल जाते हैं, किसी बूढ़े के साथ कोई जवान बद्तमीज़ी करता है, तो आप बीच में नहीं पड़ते, किसी लड़की को गुंडा छेड़ता है, बलात्कार करता है तो भी आप बीच में नहीं पड़ते, और यह सब सीख आती कहाँ से है? घर से! तटस्थता नपुंसकता बन गई है, प्रशांत!”
प्रशांत हैरान भी हुआ और ग़ुस्सा भी। रूमा को जल्दी ग़ुस्सा नहीं आता, पिछले दस साल में वह शायद ही झगड़े हों पर आज वह ग़ुस्सा हो रही है और वह भी अनुपात के बाहर! ”कहाँ सड़कों के क़िस्से और कहाँ घर के पति-पत्नी की बात! मतलब कोई तुलना तो हो इन दोनों के बीच की! कल को निशांत और नीमा तो लड़-लड़ा कर एक हो जायेंगे और हम लोग बन जायेंगे बैरी . . .! समझती ही नहीं तुम!” और बस यही बात रूमा को तीर की तरह लग गई।
“समझती ही नहीं रूमा!!!” पिछले दस सालों की सारी नज़र अंदाज़ की हुई बातें एक-एक कर आ चुभीं फिर . . . समझती ही नहीं न वो! . . . वो चुप रह कर, अनेक बातों को अनदेखा कर जाती है तो क्या समझा जाता है कि वह बेवुक़ूफ़ है? वह भी पढ़ी-लिखी है, नौकरी करती ही आई थी इस घर में, दूसरे बच्चे के बाद उसने नौकरी छोड़ दी, बच्चों को पालने-बड़ा करने के लिये, तो इसका मतलब यह तो नहीं कि उसका आई-क्यू लेवल ही गिर गया? वो चुप रही, घर की शान्ति के लिये और अपनी ऊर्जा बचाये रखने के लिए! घर सँभालना, दो छोटे बच्चों को सँभालना कोई आसान काम नहीं और छोटा तो अभी चार का ही है . . . कितना समय जाता है बच्चों के साथ! क्या प्रशांत यह बात समझता है? नीमा सही ही अपने स्वाभिमान के लिए लड़ रही है। जाने क्या तो हुआ उन पलों में कि रूमा को लगने लगा कि वह ठगी गयी! यह सीधा-सीधा अपमान था उसका! प्रशांत ने उसकी मुद्रा देख कर शायद धीरे से अपनी ग़लती को स्वीकार भी किया पर बहुत चलते-फिरते शब्दों में कि उसका वह मतलब नहीं था, . . . पर बिना मतलब तो शब्द निकलते नहीं न! रूमा को लगा कि कौन से बँधे-जुड़े संस्कार हैं आदमी के भीतर जो औरत को जाने-अनजाने ही छोटा कर देते हैं। शांत रहने वाली रूमा खौल उठी, वो अनदिखे जुमले, वो अनकहे तेवर अब आँखों के आगे आ-आ कर चिढ़ाने लगे। बहुत हुआ! ये आदमी, होते ही सब ऐसे हैं। अपनी उदारवादी खोल में वही के वही! ये तब तक ही उदार रहते हैं जब तक इनकी सोच पर बड़ी चोट नहीं पड़ती, चोट पड़ने पर ये बराबरी के प्रतिद्वंद्वी नहीं रहते, पुरुष हो जाते हैं, पति का हक़ दिखाने लगते हैं। पढे-लिखे हैं तो उस तरीक़े के पुरुष तो नहीं हैं जो चोटी पकड़ कर घसीटता रसोई में ले जाता पर किसी न किसी बात का बहाना कर, औरत की बात और विचार को नीचा दिखाते हैं, बौना कर देते हैं या सिरे से ही ख़ारिज कर देते हैं।
पिछले दो महीने से या तो अबोला रहता है पति-पत्नियों के बीच या फिर ज़ोर-ज़ोर से बहस होने लगती है। दयावती औरत होने के नाते बहुओं का मन समझ कर मुझे यह बताने लगीं, साथ ही सफ़ाई भी दे रही थीं कि उनकी बहुएँ दिल की बहुत अच्छी हैं पर न जाने कौन सी गाँठ इनके मन में पड़ गई है कि इन्हें अपने पति ज़ालिम जैसे लगने लगे हैं। नीमा और रूमा ने स्पष्ट, अडिग स्वर में कहा कि ‘औरतें ही सदियों से सताई गईं हैं, इस बार पतियों को अंट-संट बोलने के लिए माफ़ी माँगनी पड़ेगी’। उन्होंने दयावती से भी कहा कि औरत होने के नाते वे उनका दर्द समझें और उन पर झुकने के लिए दबाव न डालें।
प्रशांत के शांत मन में भी पत्थर पड़ गये थे। समझदार लड़का है पर वो भी रूमा का यह रूप देख कर आहत है। बोला, ”कितना भी निबाह ले आदमी पर ये काले सिरवालियाँ आकर घर अलग कर देती हैं।” किसी समय में दादी ने यह कहा था जब चाचा-चाची अलग हुए थे। उस ज़माने में अपने आदमी को अपने कहे में लेकर अलग हो जाने का रिवाज़ था, और अब? वो बैखलाया हुआ है। बौखलाये हुए सब हैं। दोनों बहुएँ अपने-अपने आहतपन में बहनापा खोज कर एक हो गयी हैं और पतियों से माफ़ी की अपेक्षा रखती हैं। दोनों लड़के अड़े हैं कि वे माफ़ी क्यों माँगें जब उन्होंने कुछ ऐसा किया नहीं! उनके दादा-पड़दादा और उनके भी पड़दादा की सामंती सोच की सज़ा ये औरतें हमें क्यों देना चाहती हैं? हमें उनके नाम पर क्यों चिढ़ाया जाता है? हम तो बराबर का बर्ताव करते हैं, हमने कब इन्हें सताया? अब काम के बँटवारे से घर चलाने की ज़िम्मेदारी रूमा और माँ पर है तो ऑफ़िस चलाने और धन कमाने की प्रशांत और निशांत पर . . .! इसमें ग़लत क्या है? और भी दसियों बातें बोलते गए दोनों भाई! सुना है न आपने, “बात निकलेगी तो दूर तलक जाएगी . . .” बस! वही सब हो रहा था यहाँ!
अग्रवाल जी और मिसेज़ अग्रवाल बेहद असमंजस में हैं। उन्होंने इस झगड़े को निपटाने की बहुत कोशिश की पर सब व्यर्थ! वे दोनों लड़कों से भी नाराज़ है और बहुओं से भी। लड़के अब उनके कहे में नहीं वरना माफ़ी मँगवा कर क़िस्सा ख़त्म करवाते। ‘लड़के हैं’, कह कर उन्होंने कभी लड़कों को सिर पर नहीं बिठाया पर बहुएँ सास-ससुर को लड़कों की तरफ़ ही समझे बैठीं है और लड़के उन्हें बहुओं की तरफ़, सो कोई कुछ सुनने को तैयार नहीं . . . वे इन चारों बेवुक़ूफ़ों के लिए दुखी हैं। तीनों छोटे बच्चे तक सहमे से हुए हैं, वे भाँप रहे हैं कि घर में कोई बड़ी समस्या चल रही है। अग्रवाल दंपती का मन इन बच्चों के लिए फट रहा था। छोटे-छोटे हैं पर पिछले दो महीने से बचपन जैसे ठिठक गया हो। मिसेज़ अग्रवाल ने तीनों के पैदा होने से लेकर अब तक बच्चों के साथ ही समय गुज़ारा, उन्हें सँभाला, अब इन मासूमों के उतरे चेहरे देख कर उनका कलेजा मुँह को आ रहा था।
मैं बहुत चक्कर में पड़ गया। जनाब! ऐसा केस मैंने अपने जीवन में कभी नहीं देखा था। सामूहिक शादियाँ तो देखी थीं पर सामूहिक तलाक़ कभी सुना तक न था। अग्रवाल जी ने इस समय मुझे वकील के साथ-साथ एक दोस्त के रूप में भी बुलाया था। वे चाहते थे कि मैं बच्चों को आगा-पीछा बता कर कुछ रास्ते पर लाऊँ।
सारा क़िस्सा अहं का है पर यह चीज़ ऐसी है कि कहने, समझाने से ख़त्म नहीं होती। मैंने ऐसे इतने केस देखे हैं जहाँ तिल का ताड़ बनी बातों के पीछे घर टूट जाते हैं, ज़िंदगियाँ बिगड़ जाती हैं और बैंक के खाते ख़ाली हो जाते हैं।
यहाँ भी यही क़िस्सा था। मेरा दिल सचमुच अग्रवाल साहब और उनकी पत्नी के लिए तकलीफ़ से भर गया। वकील हूँ तो क्या, इंसान भी तो हूँ। मेरी उम्र के आसपास के हैं अग्रवाल साहब . . . मेरे बच्चे ऐसा करें, मेरे नाती-पोते सहम जाएँ तो क्या मैं परेशान न होऊँगा? कहने को तो सीधा इलाज है कि भई जब साथ नहीं रह सकते तो हो जाओ अलग पर मिस्टर और मिसेज़ अग्रवाल का क्या? इतनी मेहनत से पाले हुए लड़के, इतनी लाडों से भर कर दुलारी गईं बहुएँ और आँखों के तारे जैसे पोते-पोतियाँ! इन सब को जीवन भर दुखी देखना . . . यह सज़ा इन प्रौढ़ होते माँ-बाप को क्यों मिले? एक निरी ज़िद और अहंकार! माने कोई बात में बात तो हो, तब तो कुछ सोचा जाए, व्यर्थ ही यह सब . . . क्यों? वे क्यों झेलें इसे?
मैं यह भी सोच रहा था कि क्या नीमा और रूमा सचमुच इस एक बात से अपने पतियों से अलग होने को तैयार हैं? या यह केवल एक उबाल है? और बच्चों का क्या होगा? क़ानूनी भाषा में मैं विस्तार से उन्हें प्रक्रिया समझाने लगा। मैंने चारों से फिर एक बार गंभीरता से हफ़्ता भर सोचने के लिए कहा और उन सब से विदा ली।
इस बीच मैं भी सोचता रहा कि इस समस्या का क्या तोड़ हो सकता है? अग्रवाल जी इस उमर में बच्चों की बेवुक़ूफ़ी से कितने परेशान हैं, यह बच्चे क्यों नहीं देख पा रहे? ध्यान से देखो तो यह न बेवफ़ाई का केस है और न घरेलू हिंसा का, न दहेज़ का और न पति-पत्नी के बीच किसी अन्याय का! यह सब हो तो चलो भई रहो अलग, जियो अपनी ज़िन्दगी पर यहाँ तो यह सब समस्या है ही नहीं। बस, अहंकार है, ग़लतफ़हमी है और एक बिना सिर-पैर की ज़िद है। क्या हम बच्चों को इस दिन के लिए पालते हैं कि वे ग़लतफ़हमियों को लेकर झक्की बन जाएँ और घर को तबाह कर दें? यह केस कुछ अलग है पर होता तो यही सब है ऐसे केसों में! और बच्चे, उनकी ज़िन्दगी बिन पैंदे के लोटे जैसी हो जाती है। वे जॉइंट कस्टडी में कभी माँ के पास जाएँगे तो कभी बाप के पास। यहाँ तो बच्चे छोटे हैं यानी सालों चलेगा ऐसे। माँ-बाप को जॉइंट कस्टडी मिलेगी पर उन बाबा-दादी का क्या, जिनके पास ये बच्चे अभी तक दिन-रात रहे हैं? अग्रवाल जी बता रहे थे कि प्रशांत का बड़ा वाला बेटा रात को बाबा से चिपट कर तो निशांत का इकलौता बेटा दादी से चिपट कर सोता है। जिन बाबा-दादी के दिन का एक-एक मिनट इन बच्चों के साथ, उनके आगे-पीछे ही बीतता हो वो इन बच्चों के बिना कैसे रहेंगे, यह न बेटों ने सोचा, न बहुओं ने। घर काटने को दौड़ेगा। अग्रवाल साहब तो ख़ैर अपने शो रूम पर चले जाते हैं, बिज़नेस में रात तक लगे रहते हैं पर दयावती तो बच्चों के सोने पर सोतीं और उठने पर दिन भर बच्चों के आगे-पीछे घूमतीं। उनकी पढ़ाई, खान-पान, बाज़ार सब में बाबा-दादी उनके दोस्त बने रहते। कैसे भरी आँखों से मुझे दयावती जी बता रहीं थीं।
प्रशांत-निशांत, रूमा-नीमा यह बात जानते हैं कि अगर वे लोग अलग हो जाएँगे तो ये बच्चे भी अपने बाबा-दादी से अलग हो जाएँगे। इस से बच्चों पर और मिस्टर और मिसेज़ अग्रवाल के जीवन और उनकी सेहत पर कितना बुरा असर पड़ेगा, ये भी वे चारों जानते हैं पर इस समय तो उन चारों को अपनी ज़िद के अलावा किसी की परवाह नहीं। इतना बड़ा दुख ये छोटे बच्चे और प्रौढ़ माता-पिता क्यों झेलें? ये लोग ऐसे स्वार्थी कैसे हो सकते हैं, दुखी होकर अग्रवाल जी ने मुझ से कहा था। सच तो यह है कि यह ऐसी आग है जिसमें आये दिन अनेक घर होम हो रहे हैं।
वैसे मैं किसी केस को अपने ऊपर हावी नहीं होने देता पर इस साधारण और आए दिन होने वाले जैसे केस ने मुझे बेचैन कर दिया। जब माँ-बाप बच्चों की शादी करते हैं तो सारी तैयारियों में दिन-रात एक कर देते हैं, फिर आते हैं बच्चे और बाबा-दादी की ज़िन्दगी की धुरी बन जाते हैं . . . लेकिन जब अलग होने की बात आए तो यह कह देना कि ‘यह हमारी ज़िन्दगी है, जैसा चाहें करेंगे’ कितना ग़लत है पर होता ऐसा ही है, मैं ऐसे में माँ-बाप की लाचारी को देखता ही आया हूँ। मेरे ख़्याल में या तो इतनी भाग-दौड़, पैसा ख़र्च आदि मत करवाओ, अपने बच्चे मत पलवाओ माँ-बाप से और अपनी मर्ज़ी से फ़ैसले लो वरना उस सब में साथ माँगा तो अलग होने की प्रक्रिया में भी बात सुनो। सीधी सी बात है जनाब! मैं तो दो टूक सोचने वाला इंसान हूँ।
मैं बहुत कुछ सोच-विचार कर एक निष्कर्ष पर पहुँचा। मैंने दो दिन और अपने प्रस्ताव पर विचार किया, अपने सहयोगी वकीलों से भी इस बारे में सलाह की। इसके बाद मैं अकेले अग्रवाल दंपती से घर के बाहर मिला। एक 100 रुपये के एफ़िडेविट पर लिखी इबारत देख कर अग्रवाल दंपती ने प्रश्नवाचक निगाहों से मुझे देखा, सारी बात समझ आने पर उनकी आँखों में राहत के आँसू मुस्कुरा उठे। उन्होंने उस समय कुछ कहा नहीं पर सोचने का समय और काग़ज़ लेकर चले गए। मैंने तो भई यही कहा कि अगर वे मेरे बताए रास्ते पर चलना चाहें तो परिवार को बता दें वरना जैसा दुनिया में होता आया है, वह आँसू भरा रास्ता तो है ही।
आप उत्सुक होंगे कि काग़ज़ में मैंने क्या लिख कर दिया था? देखिए वैसे तो यह ‘क्लाइंट-लॉयर प्राइवेसी’ का मामला है पर अब कहानी इतनी साझी कर ली तो चलिए यह भी बता ही देता हूँ और वह भी इसलिए कि मैंने जो उपाय बताया था शायद आपके या आपके किसी परिचित के काम आ जाए। मेरे साथ अगर ऐसा हुआ तो मैं तो बेहिचक यह उपाय ही अपनाऊँगा।
मैंने अग्रवाल दंपती की ओर से कोर्ट में एक अपील लिखवाई कि “मैं दिनेश कुमार अग्रवाल, उम्र 61 और दयावती अग्रवाल, उम्र 58 यह घोषित करते हैं कि हम शारीरिक, मानसिक और आर्थिक रूप से समर्थ हैं और अपने तीनों पोते-पोतियों—जिया (उम्र 6), मयूर (उम्र 8), स्वप्न (उम्र 4) की ‘सोल कस्टडी’ या ‘एडाप्शन’ चाहते हैं। हम सब सोच-समझ कर, पूरे होशो-हवास में यह घोषित करते हैं कि यदि हमारे बेटे और बहुएँ अलग होते हैं तो हम अपने बेटों प्रशांत और निशांत, बहुओं रूमा और नीमा से हर प्रकार के सम्बन्ध तोड़ना चाहते हैं जो इन बच्चों के माता-पिता भी हैं। ये चारों अपनी निजी ज़िद और असंतुलित विचारों के चलते अपने बच्चों को ऐसा परिवेश देने में असमर्थ हैं जो बच्चों के लिए आवश्यक है। ये बच्चे जन्म से ही हमारे साथ संयुक्त रूप से रहते आए हैं अतः हम बच्चों की ज़रूरतों को अच्छी तरह समझते हैं। बच्चों को एक अच्छा इंसान बनाने के लिए हमें, यानी उनके बाबा-दादी को उन्हें पालने-पोसने और बड़ा करने के अधिकार दिये जाएँ।”
मैं जानता हूँ कि आप सोच सकते हैं कि इस अपील को देखने के बाद अगर नीमा-निशांत और रूमा-प्रशांत साथ रहेंगे तो वे केवल बच्चों के लिए, समझौते के कारण रहेंगे, आपस में प्रेम और समझ तो है नहीं उनमें तो ऐसे में यह क्या समाधान हुआ। हुआ समाधान भाई साहब, हुआ! उन दोनों जोड़ों में प्रेम था, यह ज़िद और नासमझी न होती तो प्रेम रहता ही। मैं कौन सा मार-पीट वाले केस में सुलह की सलाह दे रहा हूँ पर नासमझियों से टूटने वाले घर में समझ पैदा करने, आपस में साथ मिल कर रहने के लिए फ़िलहाल मुझे तो यही समझ आया। जब यह अपील उन्हें माँ-बाप की तरफ़ से सोचने के लिए ठोस तरीक़े से विवश करेगी, तब वे अपनी नासमझी भी समझेंगे। प्यार तो पहले से था तो उसके न होने की चिंता मुझे नहीं और अगर एक प्रतिशत को मान लो कि वे अड़े ही रहते हैं तो कम से कम अग्रवाल दंपती और छोटे बच्चों को उनकी नासमझी की सजा नहीं झेलनी पड़ेगी।
लगभग 10 दिन बीत गए हैं, मैं अग्रवाल जी के फोन के इंतज़ार में हूँ। पता नहीं कि उनकी समस्या का ताला खुला या नहीं! क्या कहा? आप जानना चाहते हैं कि क्या होगा? आपकी उत्सुकता सही है . . हम्म . . ठीक है, जैसे ही उनका फोन आएगा, मैं आप को ज़रूर बताऊँगा।
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मधु शर्मा 2025/05/22 07:00 PM
उलझी हुई आम घरेलू परिस्थिति को समझदारी द्वारा सुलझाती उत्तम कहानी। साधुवाद।