शोक गीत
काव्य साहित्य | कविता डॉ. शैलजा सक्सेना23 May 2017
सभी कुछ तो है यहाँ
बस... तुम नहीं हो।
है वही तट, जिस रेत तुमने कल यहाँ पदचिन्ह छोड़े,
छटपटायी ढूँढती हूँ, कहाँ, क्या-क्या चिन्ह छोड़े,
निर्दयी लहर लेकिन, सब एक सा क्यों कर गई,
पैर रखने से दबी बालू को ऊपर कर गई है।
ज्यों पथिक कोई न आया, यूँ अछूता सा बनाया,
काल के क्रम में विरह का पीर-स्वर क्यों मिलाया,
कौन से स्वर में पुकारूँ, यह पीर-स्वर जो सुनों तुम
हो कहाँ, कैसी हो बोलो, संकेत, भ्रम, कुछ तो कहो तुम?
सभी कुछ तो है यहाँ, बस... तुम नहीं हो।
है नहीं विश्वास आता, यूँ अचानक कोई जाता!
उम्र की परवाह के बिन, काल क्या ऐसे उठाता?
क्या यम की नीतियाँ टूटती, इस युग में आकर?
क्या पता खो दी हो दृष्टि, अंधा क्या कुछ देख पाता?
क्यों हुआ, ऐसा भी क्या..., शब्द टूटते हैं अधर छूकर,
नयन रह रह दृष्टि खोते, आँसुओं के जाल फंस कर।
सभी कुछ तो है यहाँ, बस... तुम नहीं हो।
अब नहीं स्वर, मुझको तुम्हारा प्यार से छू पाएगा,
अब नहीं आश्वासन, सीख, झिड़कियाँ दे पाएगा,
अब नहीं मन बाँटने को, फोन मैं कर पाऊँगी,
अब नहीं तार के उस पार, कोई जग पाएगा।
संबन्धों से मुक्ति पाकर, जा बसी हो तुम कहाँ पर?
साथ में ले सकीं क्या स्मृतियों का संसार-सागर?
एक जन से इतनी जनता साथ अपना जोड़ती है
एक ही व्यक्ति के अलग रूप दिखते हर जगह पर
अंत में किन्तु अकेला जन चला सब छोड़ क्यूँ कर?
संबन्ध लिपटा दिल तड़पता देख कर वह खाली गागर।
सभी कुछ तो है यहाँ, बस... तुम नहीं हो।
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