मिंदा
कथा साहित्य | कहानी डॉ. शैलजा सक्सेना21 Feb 2019
सामने वाली घर की बाल्कनी में एक नया चेहरा देख मिंदा को अचरज भी हुआ और खुशी भी। ये नए जन कब आ गए पता ही नहीं ’चला’? इतने दिनों से खाली पड़ा था यह घर.... चलो अच्छा हुआ, बस गया, निकलते-बढ़ते किसी की शक्ल तो दिखेगी... सोचकर उसका चेहरा कुछ खिला फिर बाल्कनी वाले चेहरे की ओर नज़र उठाई, नाक के सीधी तरफ़ छोटी सी लौंग दपदपा रही थी, उत्तर भारत वाली होती तो लौंग उल्टी तरफ़ होती... उसने सोचा, नाक-नक्शा भी मद्रासियों जैसा ही कुछ लगा, बस रंग खुलता हुआ है। "नए-नए आए लगते हैं इस देश में, तभी तो लड़की उत्सुकता से नज़रें फैलाए इधर-उधर देखने में लगी है। मिंदा बाहर खड़े कूड़ेदान में कूड़ा डालने आई थी, दरवाज़ा खोलते ही उस नए चेहरे को देख क्षण भर थम गई... इस क्षण भर में उसने लड़की का जायज़ा भी ले लिया और ’मद्रासी है’ के निर्णय पर भी पहुँच गई.. अब तसल्ली से वह कूड़े का थैला उठाए कूड़ेदान की तरफ़ चली। कूड़ेदान का ढक्कन ’पट’ की आवाज़ करता हुआ बन्द हुआ तो सामने खड़े चेहरे ने उधर देखा। ’सलवार-कुर्त्ते’ में 50-55 वर्षीया भारतीय स्त्री को देख उसने हाथ हिला दिया और मुस्कान से आत्मीयता की पहचान जोड़ी।
मिंदा ने भी हाथ हिला उस अभिवादन का प्रत्युत्तर दिया फिर पहचान को शब्द देते हुए पूछा, "नए आए हो?"
"हाँ!" में उसने गर्दन हिलायी। सड़क के आर-पार से संभाषण करना संभव न देख मिंदा ने कहा, "घर आना कभी!" लड़की ने कृतज्ञता भरी मुस्कान के साथ सहमति में सिर हिला दिया। मिंदा भी मुस्कुरा कर, उस पर अंतिम नज़र डाल, घर के भीतर आ गई। काफ़ी काम पड़ा है अभी। दो घंटे में डॉली-पिंकी को लाने स्कूल जाना है। खाना-नाश्ता भी कुछ बनाना है। बेटा-बहू तो अपनी नौकरियों से शाम तक ही आएँगे, तब तक का सब काम उसी के ज़िम्मे है। देखना तो पड़ता ही है अभी भी। कभी ’होम-वर्क’ ख़त्म करने को बोलो, कभी बस्ता उठा के रखने को, कभी टी.वी. देखने पर झगड़ा, कभी खाने का मान-मनौवल, झिक-झिक से कभी थक भी जाती है। पर बच्चों का क्या- वह तो बच्चे ही रहेंगे। उनको क्या फ़िक्र, वो तो बस "बीजी यह कर दो, बीजी वह चाहिए" कहके खुद भी फिरकी से उसके आगे-पीछे घूमते हैं और उसे भी घुमाते रहते हैं। पर सच्ची! बच्चों से ही तो घर में रौनक है, नहीं तो बस वही बाहर भीतर, पराया सूनापन और ठंडा बर्फीला मौसम।
मिंदा हाथों से घर का काम निबटा रही थी और दिमाग उसका इधर उधर घूम रहा था। मिंदा का मन फिर उस पड़ौसन के चेहरे पर अटक गया। कैसा ताज़ा, खिले फूल सा चेहरा है, भारत से नए आए चेहरे की यही तो पहचान है.. भरा-भरा, खिला-खिला सा रूप वरना कनाडा की तेज़ हवा और तेज़ भागती ज़िन्दगी में कहाँ रह जाती है वो ताज़गी, फिर डाइटिंग करने के जनून में भी मुँह बस पिचका सा हो जाता है। उसकी ही बहू को देख लो, भारत से आई थी तो कैसी सच्चे मोती की सी आब थी चेहरे पे.. खाये-पीये घर की कुड़ी! लगता तो था कि जाट के घर की लड़की है - और अब देख लो, कमर का नाप घटाने के चक्कर में सूख के आँवला हुई जा रही है। जब वो टोकती है तो उसका अपना बेटा, जगपाल ही भाषण देने लग जाता है।
"बीजी! खा-पी के भैंस जैसे मोटे होने से बीमारियाँ लगती हैं और पतले रहने से बदन में फुर्ती रहती है।" वो बहस करती,
"अरे रहने दे, फ़ुर्तीले तो हम भी थे और दूध, घी खा के मोटे होने से कोई बीमारी लगती है? उससे तो ताकत आती है।"
यह भी बस दिमाग का झक्की होता जा रहा है, वो सोचती पर उसका बेटा उसकी सोच को काट कर, अपनी विजय सिद्ध करता सा बोलता-
"पर आप खुद को भी तो देखो, कितने दुबले-पतले हो, खुद तो मोटे होते नहीं, चाहते हो बहू हो जाए खा-पीकर मोटी भैंस।
मिंदा खीज जाती है, "चल पागल कहीं का, मैंने अब क्या मोटे होना है। तेरे बाऊजी के बाद यह देह चल रही है, वो ही बहुत है। मैं कहती हूँ, अब तू बाल-बच्चे वाला हो गया, रब्ब सुन ले अब मेरी।"
"बस बीजी। फिर शुरू हो गए आप, हो क्या गया है आपको, जब देखो घूम फिर कर फालतू की बात पर आ जाते हो।"-लड़का झुँझलाता, फिर बातचीत और माँ के इस रूप, दोनों से कतराता इधर-उधर हो जाता।
बहू सम्वेदना भरे हाथों से सास के कन्धों को छूती हुई कहती, "बीजी। प्लीज़ ऐसे न बोला करो हमारी भी तो सोचो।" बहू-बेटा दोनों को इस तरह उखड़ते देख, वह ग्लानि से भर जाती.. "अरे मैंने तो बस .." हर बार अपनी सफाई में बोले जा रहे वाक्य को अधूरा छोड़ देती।क्या बोले? क्या समझाए? उसका बेटा समझता है माँ अकेले रह जाने के दु:ख से दु:खी है पर साथ ही कितना बड़ा ग्लानि का बोझ उसके सीने पर रखा है, कितना बड़ा अपराध इस विदेश ने उससे करवाया है- जगपाल के बाऊजी के प्रति!!
अगर वो जगपाल और उसके बाऊजी के पहले यहाँ न आई होती!! अगर जगपाल के पिता को यहाँ आने का इतना शौक न होता -- तो शायद!!
सब्जी काटते उसके हाथ पल को ठहर गए, मुँह से ठंडी साँस निकल गई। एक दिन को भी तो भूल नहीं पाई है मिंदा। पिछले बारह साल में उसने अपने अतीत को हर रोज जिया है और उस दु:ख में हर रात आँखें भिगोई हैं। पिंडवालों ने, घरवालों ने मिंदा के बारे में चाहे कुछ कहा हो या न कहा हो, मिंदा ने हर रोज़ खुद को गालियाँ दीं हैं, न उसका बेटा जानता है न बेटी, बस वो जानती है या उसका रब्ब या जगपाल के बाऊजी...जो उसको ऐसे अकेली छोड़कर चले गए...!! इतनी तैयारियाँ करके, बक्से बाँध कर उसे बेटी के साथ पहले कनाडा भेज दिया। इतना कहा था उसने... "साथ ही चलेंगे जी, नई जगह, नया देश, फिर हवाई जहाज का सफ़र - मुझे अकेले जाना बिल्कुल नहीं अच्छा लगेगा।" उसके समझाने का उन पर न कभी असर हुआ था, न होना था। उनकी बात यानि पत्थर पर लकीर। कितना मज़ाक उड़ाया था उन्होंने जगपाल और जगज्योत के साथ मिलकर, "सुना बच्चो, तेरी माँ नूँ डर है कि वो कहीं गल्त स्टेशन पर न उतर जाए, हवाई जहाज में कहीं खो न जाए।" उनकी इस बात पर पन्द्रह साल की जगज्योत और अठारह का जगपाल कितना हँसे थे। उसने डाँट लगाई थी।
"चुप करो दोनों, माँ पे हँसते शरम नहीं आती?"
फिर रुआँसी होकर जगप्रीत से कहा था,
"मान जाओ जी, दो महीने की तो बात है। दो महीने बाद सारे इकट्ठे चलेंगे..।"
जगप्रीत को तब गुस्सा आ गया था-
"मैं भी तो यही कह रहा हूँ कि दो महीने की तो बात है। तू अपने भाइयों के पास ही तो जाकर रहने वाली है न कि जंगल में। तू चल के जगह देखियो-समझियो, बेटी का दाखिला कराइयो स्कूल में। मैं और जगपाल यहाँ मकान का, खेत का का काम सम्भलव के आते ैं, फिर दो महीने में मेरी नौकरी छोड़ने का नोटिस पीरियड भी ख़त्म हो जाएगा। तेरे साथ चलूँ तो नौकरी के नोटिस की गड़बड़ और खेतों का काम भी मुश्किल, और जो तू मेरे साथ गई तो वहाँ स्कूल खुल जायेंगे, ज्योत के दाखिले की मुश्किल - तेरे भाइयों ने लिखा था कि नहीं।"
उन्होंने हामी भरवाई थी और मिंदा ने सहमति में गर्दन झुका ली थी।
"तो फिर तू समझती क्यों नहीं है?" जगप्रीत झुँझला गया था।
"मैं कहती हूँ" सिसकते हुए उसने कहा था और इसके पहले भी न जाने कितनी बार वह यह सवाल दोहरा चुकी है और डाँट खा, चुप भी रह गई है, पर चंद दिनों में यह सवाल फिर फन उठा कर फिर खड़ा हो जाता -- आज फिर इस शंका ने सिर उठाया..
"क्या कहती है तू?" जगप्रीत ने पूछा।
"नहीं, ख़ास कुछ नहीं, पर मुझे लगता है कि हमें खूब सोच लेना चाहिए, हम वाकई में पिंड, घर - सबको छोड़कर कनाडा जाना चाहते हैं?"
बच्चे उसकी बात पर झुँझलाए से उसे देखने लगे, माथे पर हाथ मार कर जगप्रीत ज़ोर से बोला-
"फिर रामायण शुरू कर दी न? हाँ, ज़रूरी है जाना। तीन साल पहले जब तेरे भाइयों ने हमें स्पांसर किया था तब सोचनी थी यह बात...। अब मिल गयी हमको वहाँ की ’इमिग्रेशन’, तो तू जाने क्या अनाप शनाप सोच रही है। मैंने जो अपने ’जग्गी परिवार’ को सारा जग दिखाने का फैसला किया है, उसकी भी तो कुछ सोच।
जगप्रीत की बात पर जगमिंदर बरबस मुस्कुरा पड़ी। जब दोनों की शादी हुई तो सब हँसते-- जगप्रीत और जगमिंदर! दोस्त लोग चिढ़ाते, "ओ जगि्गयो।" फिर बच्चे हुए तो जगप्रीत ने नाम रखे जगपाल और जगज्योत - सबकी हँसी को सच बनाकर उसने घर के बाहर पत्थर पे खुदवाया, "जग सदन।" सबसे कहता, " सारा जग घुमाना है मुझे अपने जगि्गयों को।"
"पर मैं वहाँ करूँगी क्या, न अंग्रेज़ी बोलनी आती है, न कोई काम करना आता है बाहर का".. मिंदा पति के गुस्से से बेपरवाह बोली थी।
"बस, इतनी सी बात है काम की।" जगप्रीत ने मुस्कुरा कर कहा, "मैं बताता हूँ तू क्या करियो।" जगप्रीत ने नाटकीय अंदाज़ में कहा था और मिंदा उत्सुक हो आई थी।
"सजधज के बैठियो, ए.सी. की ठण्ड और हीटर की गर्मी का मज़ा लेना और टी.वी. देखना, काम करने को मैं और मेरा बेटा बहुत हैं.. क्यों पाल पुत्तर, ठीक कहा मैंने?" सगर्व अपने जवान बेटे को भरोसे की निगाहों से देखा था जगप्रीत ने।
"और क्या बीजी। हरदम काम की ही बात क्यों सोचते हो आप। बहुत कर लिया काम, बस अब तो ऐश करना।" माँ को कुछ कर दिखाने का उत्साह जगपाल की आवाज़ में झलक रहा था। ज्योत भी चमकती आँखों से माँ को लाड़ से देखती, कंधों पर झुक गई और उसकी मोटी-मोटी दोनों चोटियाँ मिंदा के दोनों गालों के आस-पास झूल गईं थीं। पाल ने देखा तो उसकी चोटियों को हिलाते हुए बोला।
"ये करेगी पढ़ाई, नहीं तो खायेगी पिटाई।"
"वीरजी!!" लाड़ से ज्योत ठुनकी।
मिंदा ने पास आए बच्चों को लगभग कौली में भर लिया और अघाए स्वर में बोली-
"मेरे पुत्तर, मेरे बच्चे।"
"ओ जी! मैं क्या.. ऐ मेरे भी बच्चे ने, मैंनूँ भी.. जफ्फियाँ पान दो।" जगप्रीत हँसता हुआ आगे बढ़ा उन तीनों की ओर।
"धत्" मिंदा लजाती सी, झट खड़ी हो गई, "इस उमर में भी।" कहते-कहते, बिना आगे की बात सुने वो रसोई में चली गई थी। जहाँ से वह उन तीनों की खुली-खनकती हँसी सुनकर आनन्द से भर गई थी। सारी तस्वीर जैसे खिंच गई हो आँखों के सामने।
ठंडी साँस ने मिंदा को यथार्थ का भान कराया। जगप्रीत कब का जा चुका, यादें रह गईं हैं, तस्वीरों सी उभरती और रह गई मिंदा के मन में उलटती पुलटती तीख़ी चुभती टीस! उस दिन के बाद मिंदा ने कनाडा न आने की कोई बात न छेड़ी। निश्चित दिन आँसू भरी आँखों से सास, जेठानी-जेठ, देवर-देवरानी और अपने ’प्रीत और पुत्तर’ और मिलनेवाले आये लोगों को छोड़ वो नई दुनिया की ओर बढ़ आई थी।
कनाडा आकर कुछ दिन तो भाई भाभी, उनके बच्चों के साथ बातों में, उपहारों के लेन-देन में ही निकल गए, फिर ज्योत की पढ़ाई का, घर-बार की व्यवस्था का सोचने देखने में कुछ समय निकला। तय तो सब कुछ जगप्रीत के आने पर ही होना था सो मिंदा उसके आने के दिन गिन रही थी पर वो बस दिन गिनती रह गई। प्रीत की जगह उसके न रहने का फ़ोन आया था। पाल की भर्राई आवाज़ तीर की तरह, पसलियों के बीच धड़कते सीने में फंस गई थी। कैसा अकल्पनीय, भंयकर घट गया था उसकी हँसती-मुस्कुराती ज़िन्दगी में।उसे हज़ारों मील दूर, नई ज़मीन पर इंतज़ार करने को भेज, प्रीत अकेला किसी और ही जगह चला गया था। मिंदा फूट-फूट कर रोई और तत्काल वापिस जाने को तैयार हो गई। भाई परेशान कि जाने देंगे तो फिर टिकट का खर्चा है ही, ऊपर से छह महीने भी न रुकने से कोई नई परेशानी न हो जाए। पर मिंदा कुछ सुनने को तैयार न थी।
"आखिरी बार तो देख लूँ।" कहते कहते वह बिलख उठी थी। भाइयों ने हार-थक कर पाल को फ़ोन किया, उसे समझाया और माँ को समझाने को कहा। पाल ने कहा था कि गर्मियों में शरीर को दो दिन नहीं रखा जा सकता और फिर बाऊजी की इच्छा बाहर रहने की थी, उसका न आना ही ठीक रहेगा और वो कुछ ही दिनों में आ जाएगा। यहाँ का सब कुछ ताऊ-चाचा संभाले हैं सो वो चिंता न करे।बेटे की कितनी बात उसके पल्ले पड़ी थी उसे याद नहीं, बस याद रहा, "बाऊजी की इच्छा बाहर रहने की थी.." उनकी किस इच्छा का विरोध उसने कब किया था।.. अब उनकी आखिरी, इच्छा मिंदा के पाँव बाँध गई।
कमरा बंद किए इस पहाड़ जैसे दुख को, आँसुओं की गंगा में बहाने का प्रयास करती रही थी वो। कुछ दिनों में जगपाल आ गया था। दूसरे घर में जाकर रहने की बात टल गई। मामा ने ’ढंग’ की नौकरी पाने के लिए कोर्स करने की ज़रूरत समझा, उसका दाखिला भी कहीं करा दिया था। बच्चे अपनी पढ़ाई में लगे और मिंदा-- उसे होश ही कहाँ था अपना। वो जैसे किसी बुरे सपने में जी रही थी। पर सपना तो था नहीं वह, धीरे धीरे बढ़ते खर्च और उसकी रोनी सूरत का असर भाई-भाभी, भतीजे-भतीजियों के व्यवहार में दिखने लगा। फिर एक दिन किसी की चुभती बात सुन उसकी आँखें खुलीं। बेटी कैसे रह रही है और बेटा कैसे चुपचाप सब झेल रहा है..., उसे होश आया। वो अपने दुख में ऐसे डूबी थी कि बच्चों का कोई ध्यान उसे था ही कहाँ और बच्चे पिता के जाने का दुख और मामा मामी की बातें सुन भी, उसको दुखी देख चुप रहे!!! मिंदा शर्म और ग्लानि से गड़ गई, कैसी माँ है वो? बच्चों को पितृहीन के साथ-साथ मातृहीन भी बना दिया था उसने...। कुछ देर की सोच के बाद मिंदा ने फैसला लिया.. पहली बार... उसका अपना फैसला पर वो जानती थी कि जगप्रीत को भी इस फैसले से सुख मिलेगा।
उस रात जगपाल जब ’क्लास’ से लौटा तो उसे मिंदा को अपना इंतज़ार करते देख बहुत हैरानी हुई। माँ की आँखों में उसने, लम्बे समय के बाद उदासी और आँसू की जगह निश्चय देखा। उसने बेटे से, छोटा सा ही सही, अलग घर ढूँढने को कहा। पाल के चेहरे पर अनायास राहत उभर आई। अगली सुबह उसने भाई से बात की और अलग घर लेने का निर्णय भी सुनाया। भाई अपने कर्त्तव्य और शेष रह गये स्नेह में बँधे उसे रोकते रहे पर वह तय कर चुकी थी। हाँ, उसने अपने लिए काम ढूँढने में भाई की मदद माँगी। कुछ दिनों बाद भाई उसे ड्राईक्लीनर की दुकान पर ले गए। प्रीत के ’ऐश’ करवाने का स्वप्न कब से धूमिल पड़ चुका था। नए हालातों की अब नई मिंदा सब काम करने को तैयार थी। घबरायी सी, मन में बेचैनी दबाए, नम हो आती आँखों को चुनरी से सहेजने की कोशिश करती, ’बड़ी बहनजी’ के दफ़़्तर में मिंदा भाई के साथ गई थी। ’कुछ गलत न हो जाए’ इस डर से विमूढ़ सी खड़ी वो भाई को अंग्रेज़ी में बात करते हुए सुन रही थी। जब स्नेह भरे, अजनबी हाथ ने उसका कंधा छुआ तो वह चौंकी, ’बड़ी बहनजी’ ने सच ही, बड़ी बहन की तरह उसे सहेज कर काम समझाया तब कहीं उसकी आँखों के चौंकते-भागते हिरण कुछ थमे थे। चलते समय उसकी आँखों में कृतज्ञता, नमी के रूप में चमक रही थी और उसका पहला दिन हिन्दी, अंग्रेज़ी, पंजाबी के बिना, बस आँखों की भाषा के सहारे चल गया था, पर हर रोज़ तो यह हो नहीं सकता था। उसने अंग्रेज़ी सीखने के लिए रात की क्लास ली। जीवन नए सिरे से अजनबी पगडंडियों पर चल निकला। माँ की हिम्मत और मेहनत, दोनों बच्चों की मार्गदर्शक बन गई थी। स्कूल के बाद दुकान पर ज्योत आकर माँ का हिसाब-किताब देख देती। पाल ने पहले ’पार्ट-टाईम’ नौकरी की, फिर धीरे-धीरे कोर्स समाप्त कर पूरे समय की नौकरी कर ली। ज्योत माँ-भाई का बढ़ावा पा, स्कूल पूरा कर नर्सिंग कोर्स में चली गई। बच्चे धीरे-धीरे बड़े हो गए और वो कुछ बुढ़ा गई।
पाल पक्की नौकरी के बाद से उसके पीछे पड़ गया था, "बस बीजी! बहुत हो गया काम, अब आराम करो।"
उसकी बहू भी पाल की हाँ में ही हाँ मिलाती। बहुत लाड़ से वह इस बहू को अपने पिंड से ब्याहकर लाई थी और बहू भी उसे वही लाड़, आदर देकर ’भर’ देती।
साल-दो साल वह टालती रही। चाहती थी पाल अपना मकान खड़ा कर ले। जिस दिन पाल ने ’बाऊजी’ का वास्ता दिया उस दिन से मिंदा ने हफ़़्ते में तीन दिन काम पर जाना शुरू किया। जो वह पाल के पहले बच्चे के होने तक करती रही। उसके बाद बच्चे के मोह और काम, दोनों ने ही मिंदा को बाँध लिया। ज्योत की तरफ़ से भी उसके दिल में ठंडक थी। नर्सिंग पूरी कर वह बड़े हस्पताल में नौकरी कर रही थी और तीन साल हुए उसकी शादी भी हो गई थी।
रब्ब ने उसकी और प्रीत की लाज रख ली। बस जिसने यह सपना देखा और दिखाया था, वही सपने का सुख नहीं ले सका और इस दुख से मिंदा के मन के खाली कोने बजने लगते। मिंदा लम्बी साँस भर कटी सब्जियों का बर्तन लेकर उठ गई। धीरे से बुदबुदायी- "सुख चाहे सपने का हो, दुख तो मेरा सारी ज़िंदगी का ही है।"
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