एक था जॉन स्मिथ
कथा साहित्य | कहानी डॉ. शैलजा सक्सेना1 Jun 2025 (अंक: 278, प्रथम, 2025 में प्रकाशित)
महेश जब ‘मोर्ग’ (शव गृह) पहुँचा तब भी हतप्रभ-सा ही था। उसने कभी सोचा नहीं था कि जॉन उसे यह बड़ी ज़िम्मेदारी वाला काम सौंप जायेगा पर जॉन ने उसे अपने जीवन के अंत की सारी कार्यवाहियों का भार सौंपा है, पूरे दो पन्नों के निर्देश के साथ। यह जॉन की अंतिम इच्छा है कि महेश यह सब काम करे यानी उसका अंतिम क्रियाकर्म और फिर उसकी ज़रूरी चीज़ों का उचित निपटारा। जॉन ने महेश के लिये अंदाज़ा लगाने या किसी से पूछताछ करने को कुछ छोड़ा नहीं हैं—सब उन काग़ज़ों में लिख दिया है।
कल सुबह ऑफ़िस में जब महेश के पास किसी मि. स्मिथ का फोन आया तब तक उसे यह भी पता नहीं था कि जॉन को कोई बीमारी भी है, १६ दिन पहले, महीने की पहली तारीख़ को जॉन से उसकी बात हुई थी, तब जॉन ने उस से अपने बीमार होने की कोई चर्चा नहीं की थी। इससे पहले वाले महीनों में भी इस तरह की कोई बात नहीं हुई थी। मि. स्मिथ ने बताया कि वे जॉन के वकील हैं और फिर उन्होंने सरकारी अंदाज़ में उसकी मृत्यु की सूचना और इस स्थिति में महेश की भूमिका बता कर, दो पन्नों के निर्देश ‘फ़ैक्स’ कर दिए। जॉन ने स्पष्ट लिखा था कि उसकी मृत्यु के बाद महेश आकर मोर्ग से उसका शरीर ले ले और उसके घर के पास बने चर्च के पादरी के साथ मिल कर अंतिम क्रिया के बारे में बात कर ले, शेष बातें मि. स्मिथ उसे समझा देंगे। उसने लिखा था कि उसको जलाया जाये और फिर महेश उसकी ‘राख’ को अप्रैल या सुविधानुसार किसी भी महीने में लेक ओंटेरियो में बहा दे।
महेश जॉन की मृत्यु की बात सुन कर सकते में आ गया था, ऐसे अचानक ५७ की उम्र में, बिना किसी बीमारी के जॉन का जाना उसे समझ नहीं आया। उस पर से जॉन के निर्देश!! यानी जॉन को यह पता था कि वह जा सकता है इसीलिये तो उसने यह सब निर्देश लिख छोड़े थे पर उसने महेश को कभी कुछ भी क्यों नहीं बताया? महेश दुखी था, झुँझलाया हुआ भी, जॉन पर उसे थोड़ा ग़ुस्सा भी आ रहा था, जॉन उसे कुछ तो बता सकता था!! अचानक इतने बड़े और अनजान काम का भार डाल कर जॉन उससे कुछ भी कहे-सुने बिना चला गया!!
यह जॉन की पुरानी आदत थी, कोई स्थिति होती तो बिना बात करे निर्णय ले लेता और फिर किसी के कहने पर बदलता भी नहीं। इस मामले में पूरा अड़ियल! अब इस समय भी उसने अपने मन की ही की। कोई करता है ऐसे? पर जॉन की ज़िन्दगी जैसी ज़िन्दगी भी कितने जीते हैं? महेश बहुत उलझन में था, उसने कभी कोई दाह-कर्म नहीं किया, किसी ‘फ़्यूनरल’ में भी कभी नहीं गया। अपने पिता और चाचा की मृत्यु पर भी नहीं, क्रियाकर्म हो जाने के बाद ही वह घर पहुँच पाया था, यहाँ भी किसी मित्र के परिजन की मृत्यु के बाद ही, घर पर ही वह मातमपुर्सी करने गया था। ऐसे में ‘मोर्ग’ में अकेले खड़ा रह कर काम करना? सारी स्थिति की आकस्मकिता से वह भौंचक्का सा था। कविता ने उस से साथ चलने के बारे में पूछा था पर वह ख़ुद ही इतना हड़बड़ा गया था कि कुछ समझ नहीं पा रहा था। विक्टोरिया, ब्रिटिश कोलम्बिया से सडबरी, ओंटेरियो तक आने में समय भी ख़ासा ही लगता है, कविता की नौकरी, बच्चे!! और जाने जॉन के बाक़ी के क़ानूनी काम करने में कितने दिन लगें, पता नहीं। वह कुछ छुट्टियाँ लेकर और कुछ ‘रिमोट’ काम करके अपना काम चला सकता था पर कविता के साथ यह स्थिति नहीं थी। इस सब सोच-विचार के बाद अंत में उसने अकेले ही आने का निर्णय लिया।
काग़ज़ों पर हस्ताक्षर करने के बाद उसे बताया गया कि वह जाकर चर्च में बात कर ले ताकि शरीर को वहीं भेजा जा सके। शरीर मिलने के अधिकांश ज़रूरी काम वकील ने पहले ही कर के रखे थे। जॉन की बीमारी के बारे में पूछने पर वकील ने कहा कि जॉन जो कुछ आपको बताना चाहता होगा, वह सब पत्र में लिखा होगा। उसे इस विषय में कुछ भी कहने का अधिकार नहीं और वह अपने ‘क्लाइंट’ की ‘प्राइवेसी’ की रक्षा करना चाहेगा। ‘मोर्ग’ अधिकारी ने जॉन के शरीर की पहचान के लिये उसे भीतर बुलाया और एक लंबा बक्सा खींच कर जॉन को दिखाया। महेश, जॉन के पतले, लम्बे चेहरे को, सुन्न खड़ा देखता रहा। दस एक महीने पहले दफ़्तर के काम से जब महेश टोरोंटो आया था तो जॉन से मिलने सडबरी गया था, तब से आज के चेहरे में कोई बहुत अंतर नहीं लगा। केवल चेहरा कुछ और दुबला हो गया था। महेश को वैसे जॉन में कभी कोई अंतर नहीं दिखा, कॉलेज के समय भी वो ऐसा ही था, पतला-दुबला, लंबा चेहरा . . . बस पिछले तीस-बत्तीस सालों में उसके बाल कुछ हल्के और कुछ सफ़ेद हो गये। महेश पुरानी यादों में खो जाता उस से पहले ही ‘मोर्ग’ के अधिकारी ने उसे वहाँ से चलने के लिये कहा, वह जैसे नींद में चलता हुआ बाहर आया। बाहर आकर सरकारी कार्यवाही पूरा कर के, वह अधिकारी को फोन करने की कह कर चर्च की ओर चल पड़ा जो जॉन के घर के बहुत पास था। जॉन ने बताया था कि वह हर रविवार को चर्च जाता है और हर बृहस्पतिवार की शाम की चाय पादरी के साथ उसके घर पीता है। पादरी एक शांत व्यक्ति था। उसने महेश की बहुत-सी चिन्ताओं का समाधान कर दिया। पादरी ने बताया कि अगर महेश काग़ज़ों पर हस्ताक्षर कर देगा तो वो जॉन के शरीर को ‘मोर्ग’ से मँगा लेंगे, शाम को ‘व्यूइंग’ (दिखाने की रस्म) हो जायेगी और अगले दिन सुबह अंतिम क्रियाकर्म हो सकेगा। महेश ने जॉन के लिखे काग़ज़ पादरी की ओर बढ़ा दिये जिसमें ‘व्यूइंग’ के लिये साफ़ मना किया गया था।
जॉन ने लिखा था, “मुर्दा शरीर की प्रदर्शनी लगाने का तुक मुझे समझ नहीं आता। मैं अकेला रहा, मैं जीवित अवस्था में लोगों से मिलना नहीं चाहता था तो मेरे मरने पर आये लोगों से मिलने में भी मुझे कोई दिलचस्पी नहीं है!”
पादरी मुस्कुरा उठे, बोले, “टिपिकल जॉन स्टाइल!”
जॉन ने लिखा था कि उसके शरीर को देर तक न रखा जाये, ‘मोर्ग’ से मिलते ही दाह-कर्म कर दें। वह दफ़न होकर, ज़मीन के नीचे नहीं रहना चाहता अतः दाह करना ही ठीक होगा। वैसे भी कौन है जो उसकी क़ब्र पर रोने आएगा। माता-पिता के जाने के बाद, ले-देकर एक आंटी हैं। उसकी मृत्यु पर सूचना देने के नाम पर उसने उन्हीं आंटी का नाम लिखा था जो ‘ओल्ड होम’ (वृद्धाश्रम) में थीं, उनके आने का प्रश्न नहीं था अतः उसने स्पष्ट किया था कि पादरी, महेश और वकील की उपस्थिति में यह काम शीघ्र कर दिया जाये ताकि महेश भी इन कामों से निबट कर घर जा सके। पादरी ने तय किया कि फिर यह काम इसी शाम को कर दिया जायेगा। महेश अगले दिन ‘एशेस’ यानी जॉन की राख लेने आये और निर्देशानुसार काम करे। उन्होंने राख के लिए ‘वास’-बरतन देने की भी बात की। इसके बाद की घटनाएँ बहुत तेज़ी से घटीं।
महेश जैसे सारा दिन एक चलचित्र में छाया की तरह रहा, जहाँ वह कर तो बहुत कुछ रहा था, पर वह वहाँ था नहीं। सुबह जॉन के पार्थिव शरीर को ‘मोर्ग’ में पहचानने के बाद से जैसे वह वर्तमान से अतीत में चला गया था, मृत के स्थान पर जीवित जॉन की स्मृतियों के साथ घूम रहा था लेकिन बाहर के कामों को वह निर्देशानुसार यंत्रवत काम करता रहा। जॉन के शरीर आने, उसे देखने, उसे उठा कर ‘क्रिमेटोरियम’ (दाह-स्थान) तक ले जाने और फिर चुपचाप ख़ाली हाथ लौट आने तक, इस काग़ज़-उस काग़ज़ पर हस्ताक्षर करता वो जॉन की दी हुई ज़िम्मेदारी निबाहता रहा। रात वह पादरी के प्रार्थना के शब्दों की गूँज और वकील का दिया अपने नाम जॉन का एक पत्र लेकर होटल आ गया। आने के बाद बहुत देर तक वह बिस्तर के सिरे पर बैठा ख़ाली दीवार घूरता रहा। आज के सारे दिन की कार्यवाही ने उसके सोचने की ताक़त समाप्त कर दी थी। पादरी ने ‘क्रिमेशन’ के बाद चाय-खाने का कुछ इंतज़ाम न किया होता तो शायद उसे याद भी नहीं आता कि घर से निकलने के बाद से अब तक उसने कुछ नहीं खाया। पादरी ने उसे ज़बरदस्ती रोक कर खिलाया था कि यह रस्म होती है। उन के अलावा कुल जमा तीन लोग और थे जो शायद चर्च या ‘मोर्ग’ के कर्मचारी रहे होंगे। पादरी उसे जॉन के बारे में बात करने के लिए उकसाता रहा पर वह उनसे “क्लोज़ कॉलेज फ्रेंड” (कॉलेज का निकट दोस्त) के अलावा और कुछ न कह सका। पादरी फिर ख़ुद ही कहता रहा कि जॉन रविवार को और बृहस्पतिवार को इसी चर्च में आता था और उनसे बहुत से दार्शनिक और आध्यात्मिक विषयों पर बात करता था। महेश को हैरानी नहीं हुई, जॉन कॉलेज के समय से दर्शन तथा आध्यात्मिक विषयों में रुचि रखता था। वैसे जॉन की किसी भी बात पर हैरान होना बेकार था। वह बहुत से विषयों का विद्वान था और व्यक्ति को देख कर उस के अनुसार बात करता था . . . देखा जाए तो वो मिलता भी इतने कम लोगों से था . . . ले-देकर उसका एक दोस्त—महेश, एक चर्च का पादरी और शायद कोई एकाध और हो, पर इस से ज़्यादा तो बिल्कुल नहीं। शादी उसने की नहीं, कोई प्रेम-प्रसंग भी नहीं था, सारे जीवन वो माता-पिता के साथ रहता आया और आठ वर्ष पहले पिता और पाँच साल पहले माँ की मृत्यु के बाद से अकेला ही रहता था।
महेश को जॉन हमेशा एक रहस्य सा लगा। अपनी निश्चित योजनाओं में व्यवस्थित और कम बातचीत के कारण लगभग अकेला पर सुखी दिखाई देने वाला जॉन! वे दोनों एक साथ कॉलेज में थे। महेश भारत से एम. एससी. करके पीएच. डी. करने कैनेडा की ‘मैक्गिल यूनिवर्सिटी’ आया था। उसे एक वर्ष का मास्टर्स का ‘ब्रिज कोर्स’ करना था जिसके बाद वह अपनी पीएच. डी. कर सकता था। नया-नया महेश भाषा, संस्कृति, पढ़ाई आदि सभी को लेकर उत्साहित भी था और घबराया हुआ भी। नयापन जितनी उमंग ले कर आता है उतनी ही आशंकायें भी। उसके साथ के विद्यार्थी ठीक-ठाक थे पर वे उसके दोस्त नहीं थे। शुरू के उन दिनों में ही जॉन से उसकी मुलाक़ात हुई थी। वह भी महेश की क्लास में था। एक दिन लायब्रेरी में एक ही किताब के बारे में पूछने के लिये दोनों एक साथ ही लायब्रेरियन के पास पहुँचे थे। वहीं दोनों को पता चला कि दोनों एक से लेखकों को पढ़ना पसंद करते हैं और दोनों ही मित्रहीन हैं। इसके बाद कभी-कभार कुछ बात होने लगी। अधिक बात हुई क्रिसमस की छुट्टियों में जब हॉस्टल लगभग ख़ाली था। क्रिसमस के दिन महेश अकेलापन दूर करने और नये देश के क्रिसमस को देखने निकला। ऐसे ही निरुद्देश्य चलता वह कॉलेज के पास बने चर्च तक चला आया। बहुत से लोग सजे-धजे भीतर जा रहे थे। महेश पहले कभी इस चर्च के भीतर नहीं गया था सो कुछ कौतूहलवश और कुछ अकेलापन और वक़्त काटने को वह भी भीतर चला गया। वहीं उसने अंतिम पंक्ति में जॉन को बैठे देखा था। वह चुपचाप उसके पास जा कर बैठ गया। जॉन उसे देख कर कुछ हैरान हुआ। पादरी की सर्विस के दौरान वे दोनों आपस में कुछ नहीं बोले पर जब सर्विस के अंतिम चरण में पादरी ने उन्हें साथ बैठे लोगों से हाथ मिला कर शुभकामनायें देने को कहा तो वो दोनों ही ख़ुशी से मुस्कुरा दिये थे। सर्विस समाप्त हो जाने के बाद दोनों ने साथ खाना खा कर त्योहार मनाने का तय किया। यही पहली बार थी कि महेश जॉन के कमरे पर आया था। जॉन की माँ ने उसके लिये क्रिसमस पर खाने का विशेष सामान भिजवाया था। जॉन ने मौक़े के लिये रखी ख़ास शराब की बोतल निकाली, मेज़ पर खाना सजाया और दोनों ने ‘चियर्स’ करके मित्रता के जिस संधि-पत्र पर हस्ताक्षर किये थे, वे कुछ देर पहले तक जीवित थे। महेश ने उस संधि-पत्र के शरीर को आज जलाया है, कुछ दिन में बहा देगा, पर सचमुच क्या कभी कुछ जलता है? क्या कभी कुछ बह के दूर जा सका है? बल्कि मृत्यु स्मृतियों की धारा को भीतर की तरफ़ ही अधिक मोड़ती है और मन की तहों में से क़िस्से पर क़िस्से निकलते चले आते हैं।
महेश बहुत देर तक दीवार को घूरता रहा। कॉरीडॉर में कुछ हलचल और कुछ आवाज़ें सुनाई दीं। शायद सामने वाले कमरे में ठहरने के लिये कोई आया होगा। वह कुछ चैतन्य हुआ। उठा और पानी पीते-पीते उसे याद आया जॉन का वो पत्र जो वकील ने उसे दिया था। लिफ़ाफ़े से पत्र निकाल वह बिस्तर पर अधलेटा हो आया। एक गहरी साँस बीच राह में जैसे अटक गई। जॉन की लिखावट . . .! शब्दों को बिना पढ़े वह घूर रहा था। हर वर्ष जॉन उन्हें चार कार्ड भेजता, क्रिसमस-नये साल का कार्ड, उसके बेटे के जन्मदिन का कार्ड, कविता और महेश की शादी की वर्षगाँठ का कार्ड और एक दीपावली का कार्ड! हाथ से चंद पंक्तियाँ लिखता और शुभकामनायें! आज जॉन की लिखाई का अंतिम पत्र उसके हाथ में था। महेश किसी तरह मन को बाँध पत्र पढ़ने लगा!
प्रिय महेश,
तुम से अंतिम बार बहुत सारी बातें करने बैठा हूँ, शायद तुम्हें विचित्र लगे पर आज तक सारे काम ही विचित्र किये तो यह अंतिम और सही!
आज तुम को मैंने बहुत परेशान किया। तुमने कभी सोचा नहीं होगा कि मैं तुम्हें अपने जीवन के निपटारे के काम सौंप जाऊँगा पर अपने कुछ गिने-चुने जान-पहचान के लोगों की सूची बना कर देखा तो तुम्हीं को सब कामों को मेरे मन-मुताबिक करने के लिये उपयुक्त पाया। तुम मेरे स्वभाव को जानते हो और मुझ पर प्रश्नों की बौछार नहीं करते, उपदेश नहीं देते, मैं जैसा हूँ वैसा ही स्वीकारते हो। बाक़ी लोग मुझे स्वीकार नहीं कर पाते। इसलिये उन पर पूरा भरोसा नहीं कर सकता था कि वे मेरी इच्छा में अपनी इच्छा मिलायेंगे या नहीं। मैं जब सारी ज़िन्दगी अपनी इच्छा से जीता आया तो अंत तक वही करना चाहता हूँ।
आज अंतिम समय में अपने मन की वे बातें भी कहना चाहता हूँ जो तुम समय-समय पर मुझ से पूछते रहे। कोशिश तो रही मेरी कि किसी को नुक़्सान न पहुँचाऊँ पर फिर भी अपने इकलौते बेटे को दुनिया के तरीक़े पर न चलता देख कर मेरे माता-पिता को चोट पहुँची। मेरी माँ मेरे स्वभाव को कभी स्वीकार नहीं कर पाई और मेरे पिता ने हार कर प्रश्न करना छोड़ दिया। अस्वीकार-स्वीकार के बीच की स्थिति को अपना कर, कहूँ कि उन दोनों ने मुझे झेला, तो ग़लत नहीं होगा। मुझे उन लोगों से कोई शिकायत नहीं रही बल्कि अहसानमंद हूँ उनका कि उन्होंने मुझे जीवन भर खिलाया-पिलाया, पढ़ाया-लिखाया और रहने के लिये अपने घर में जगह दी। हाँ, मेरा साल भर में पाँच विद्यार्थी पढ़ाना मुझे इतना पैसा देता रहा कि मेरे निजी ख़र्चों का भार, माता-पिता पर कभी नहीं रहा पर ‘मेरे’ माता-पिता होने का दुख उन्होंने जीवन भर सहा।
दुनिया के सम्बन्ध! कौन किसी को कितना समझ पाता है? वैसे यह मज़े की बात है कि हम अपने को तो समझ नहीं पाते पर दूसरों को या तो समझने का दम भरते हैं या कोशिश करते रहते हैं। पानी के बुदबुदे जैसी ज़िन्दगी और हम ज़रा से पैसे कमा कर, चार किताबें पढ़ कर अपने को न जाने क्या समझने लगते हैं, मिलना सब को वहीं है, मिट्टी में! मेरी तरह!! पर तुम महेश, मेरे स्वभाव को थोड़ा तो समझ पाये होगे? जानते हो तुमने जिस कम्पनी में पहली नौकरी शुरू की थी, वहीं मुझे भी नौकरी दी गई थी। यूनिवर्सिटी से ही रिज़ल्ट ले कर उस कम्पनी ने मुझे नौकरी लेने का निमंत्रण भेजा था। क्लास में हमेशा फ़र्स्ट आने का यह लाभ तो मिलना ही था पर मुलाक़ात होने पर मैंने उन्हें अपने नौकरी ना करने का इरादा बता दिया और! (महेश भी आधे वाक्य में अटक गया, ओह तो यह जॉन था जिसने उसकी सिफ़ारिश की थी। उसे यह तो बताया गया था कि उसके नाम को बहुत सशक्त अनुमोदन मिला है पर महेश को नहीं पता था कि अनुमोदन करने वाला जॉन था . . . क्षण भर को उसाँस लेकर वह मन साध कर फिर पढ़ने लगा) तुम बहुत समझदार और योग्य इंसान हो महेश, मैंने तुम पर एक भी नहीं बल्कि तुमने मुझ पर बहुत से उपकार किये है। पिछले ३२ वर्षों से हर माह बात करने वाला एक विश्वसनीय दोस्त, अपने बेटे से ‘जॉन अंकल’ कहलवाने वाले, तुमने मेरे तटस्थ मन को एक नया आयाम दिया। मुझे कभी परिवार, नौकरी, इन सब की चाह नहीं थी पर तुम्हारा, कविता और तुम्हारे बेटे का भी कभी-कभार बात करना सुखद लगता था। मैंने यह बात कभी तुम पर प्रकट नहीं की। आज तुम्हें मेरे मन की बात जान कर हैरानी हो रही होगी! अपने बारे में बात करना मुझे पसंद नहीं था इसी से लोगों द्वारा बार-बार मेरे जीवन के बारे में पूछे जाने पर मुझे असुविधा होती थी। वैसे देखा जाये तो बाक़ी लोगों का अचरज या माँ का परेशान होना जायज़ था, जीवन की यही तो रीत थी, मैंने तोड़ी तो उन्हें तो हैरान होकर पूछना ही था कि जब लड़का इतना पढ़ा-लिखा है तो घर में बैठा क्या कर रहा है? नौकरी क्यों नहीं करता? शादी क्यों नहीं करता? लोगों से मिलता-जुलता क्यों नहीं? बेचारे मेरे माता-पिता इन प्रश्नों से परेशान हो जाते और फिर मुझ पर झुँझालाते कि मैं बाक़ियों जैसा क्यों नहीं हूँ? पर तुम तो जानते हो कि पैसा कमाना मेरा उद्देश्य कभी नहीं रहा और पढ़ने-लिखने से मुझे कभी फ़ुर्सत नहीं मिली कि कुछ और सोच पाता। फिर मुझे लगता कि मैं अपने जीवन-शैली की सफ़ाई क्यों दूँ? क्यों मेरा कुछ भी कहना ज़रूरी है? क्या ज़रूरी है कि सारी दुनिया एक ही खाँचे की ज़िन्दगी जीती रहे? वही चक्र—नौकरी, शादी, बच्चे, नाम, पद, पैसा, प्रतिष्ठा!! बाक़ी सब उस चक्र को चला तो रहे हैं, एक व्यक्ति के अलग हो जाने से कहीं कुछ रुक तो नहीं रहा था! पर सारे जीवन लोग प्रश्न पूछते रहे और मुझ पर तरस खाते रहे और मेरे माँ-पिता से सहानुभूति जता-जता कर उन्हें परेशान करते रहे।
अच्छा बताओ, पढ़ाई-लिखाई का एक ही मतलब—यानी नौकरी करना ही क्यों रहना चाहिये? आत्मखोज क्यों नहींं होना चाहिये? पहले के समय में भी तो लोग ऐसे रहते थे? आख़िर किसी को जीने के लिये कितना पैसा चाहिये होता है लेकिन लोग यह सब नहींं सोचते और यह भी नहींं सोचते थे कि मेरे माता-पिता को मुझ पर यह तरस खाया जाना कैसा लगता होगा! ख़ैर, ना मुझे उन सब से यह कहना था और ना कहा। सच तो यह है कि मैं अपने भीतर की विस्तृत दुनिया में व्यस्त रहा, किताबें और उनमें भरे एक से बढ़कर एक ज्ञानकुंड, उन में डूब कर, उन्हें जान लेने की छटपटाहट इतनी अधिक थी और उनसे उपजते चिंतन के नये आयाम इतने अधिक थे कि मैं हमेशा बेहद व्यस्त रहा और एक विचित्र आनंद में जीता रहा, वहाँ किसी और चीज़ की चाह उपज ही नहींं पाई। मुझे बहुत ही ख़ुशी है कि मैंने जीवन के प्रकाश अणुओं के बीच अपनी उम्र बिताई। हर नया सवेरा, हर नयी रात, हर मौसम पूरा-पूरा जिया।
महेश, मैंने संतुष्ट जीवन जिया और संतुष्ट जा रहा हूँ। दुनिया बेकार ही मुझ पर उम्र भर तरस खाती रही, पर सच तुम जानते हो। सबकी अपनी-अपनी जीवन शैली है, शायद मेरी माँ अपने अन्त में यह बात समझीं हों, स्वीकार तो नहीं ही कर पाईं। उनके साथ रह कर, मुझ से जो बन पड़ा, उनके बुढ़ापे में उनकी मदद करता रहा पर उनके आत्मीय-स्नेह ने मेरी ही मदद अधिक की। मेरे बिल्कुल अपने वो दो लोग!! जब कल तुम यहाँ से जाओगे तो उन दोनों की क़ब्र पर जाकर मेरी तरफ़ से फूल रख देना—अंतिम गुडबाय के साथ। देखूँ, ऊपर वे मुझे मिलते हैं कि नहींं; तुम्हारी-हमारी किताबें तो यही कहती हैं पर जो भी हो, इस जाँच के परिणाम तुम्हारे साथ बाँट नहींं पाऊँगा! (हा-हा)
पिछले कुछ वर्षों में मैंने अपने विषय फिज़िक्स और मैटाफिज़िक्स पर बहुत अध्ययन किया है और बहुत कुछ लिखा। समझ लो मेरी सोच और खोज का निचोड़ है वह लेखन। चार किताबें तैयार रखी हैं। कुछ पब्लिशर्स बहुत धन देकर उन्हें बहुत समय से छापने को तैयार हैं, उन के नाम और संपर्क इन ‘मैनूस्क्रिप्ट्स’ के साथ नत्थी हैं। मैं ही देर कर रहा था। मैं चाहता हूँ और यह वचन लेना चाहता हूँ (वचन, क्योंकि मैं तुम्हें जानता हूँ) कि तुम ये किताबें अपने नाम से छपवाओ और इनसे हुई आय को कुछ तो अपने पास रख लो और कुछ चाहो तो यूनिवर्सिटी में रिसर्च के विद्यार्थियों के लिये एक स्कॉलरशिप शुरू कर देना। मैंने रजिस्ट्रार से बात की थी, प्रक्रिया में कोई विशेष बाधा नहींं है। उस सब से संबंधित सारे ज़रूरी दस्तावेज़ मेरे वकील के पास हैं जिनमें तुम्हें पुस्तकों के सारे अधिकार दिये जाने की बात है। तुम शायद हैरान होगे और फिर कुछ नाराज़ होगे कि मैंने यह बात तुम्हें क्यों नहींं बताई। तुम से अपने पढ़े और सोचे पर थोड़ी-थोड़ी बात तो मैं करता था हर महीने पर अगर तुम्हें भनक भी लग जाती मेरे लिखने की तो तुम उसे छपवाने के लिये मेरे पीछे लग जाते और छपवा कर ही मानते। मैं फिर उसी नाम, पैसे, यश के चक्कर में पड़ जाता जिससे मैं भाग रहा था। मेरे इस काम को ग़लत या सही कह कर, इसके बारे में सोचना बेकार है इसलिये सोचना भी मत। यह भी कि मैं यह तुम पर कोई अहसान नहींं कर रहा अतः मन में कोई और भाव मत रखना, मुझे नाम नहींं चाहिये था इसी से जीवित अवस्था में नहींं छपवाईं, अब मर कर नाम करने और लोगों द्वारा अपने जीवन का विश्लेषण करवाने की इच्छा नहींं है।
बाक़ी घर और अपने माता-पिता की शेष बची सम्पत्ति मैं चर्च द्वारा चलाये जाने वाले स्कूल, वृद्धों और ‘होमलैस’ लोगों के कार्यक्रमों को दे कर जा रहा हूँ। यह सब मेरा वकील देख लेगा, तुम्हें इसके लिये बार-बार विक्टोरिया से यहाँ नहीं आना पड़ेगा। जाने से पहले मेरे वकील से मिल लेना, वह पुस्तकों के साथ शेष सब काग़ज़ तुम्हें दे देगा।
अब रही ‘ऐशेज़’ की बात, उसे लेक ओंटेरियो में मेरी ‘ऐशेज़’ बहाने में कोई परेशानी तो नहीं होगी न? पिछले कुछ समय से गीता और रामायण उलट-पलट रहा हूँ। तुम से मिलने और दीवाली आदि मनाने के बाद से मैं तुम्हारी संस्कृति और धर्म के विषय में थोड़ा-बहुत पढ़ता रहा हूँ। कहूँ कि जल में तिरोहित होने के लिये मन में चाह जगी तो ग़लत न होगा। सो तुम्हारा एक काम और बढ़ा दिया। मुझे तुम लोगों की पुनर्जन्म की थ्योरी अच्छी लगती है। उस हिसाब से मुझॆ शायद दोबारा आने का मौक़ा मिले, शायद जीवन के अंतहीन प्रकाश में फिर प्रकाशित होने का मौक़ा मिले। अगर आया और मुझे यह जन्म याद रहा तो तुम्हें धन्यवाद कहने ज़रूर आउँगा☺!
पत्र समाप्त करने से पहले तुम्हारी जिज्ञासा समाप्त करना मेरा कर्त्तव्य है; जानता हूँ कि कौन सा प्रश्न तुम्हारे मन में घुमड़ रहा होगा। चार वर्ष पहले डॉक्टर्स ने पेट में अल्सर बताया था। वही बाद में ‘मैलिंग्नेंट’ निकला और कैंसर बन गया। तुम्हारी तसल्ली के लिये बता दूँ कि मैंने डॉक्टरों के कहे अनुसार अपना पूरा इलाज कराया पर वह ठीक हो नहीं पाया। तुम से आख़िरी बार बात करने के चार दिन बाद ही अस्पताल में भर्ती होना पड़ा पर तुम से इसलिये कुछ नहीं कहा कि तुम आते, परेशान होते और मुझे भी परेशान करते। मेरा शरीर बीमार था पर मन नहीं और मैं तुम्हारे मन को भावनाओं के बहाव में घायल नहीं करना चाहता था। अगर कुछ ना कह कर यूँ अचानक चल देने के लिये नाराज़ हो तो माफ़ कर देना पर उम्मीद है कि तुम्हें मेरा तर्क समझ आयेगा।
अब बस, चलता हूँ, कहीं कोई क़ानूनी परेशानी हो तो मेरे वकील से बात करना, वह समाधान निकाल देगा। कविता और अनुभव को मेरा स्नेह और शुभकामनायें देना। तुम्हें अनंत शुभकामनायें, हमारी मित्रता के लिये एक बार फिर ‘चीयर्स’!
तुम्हारा मित्र
जॉन स्मिथ
पत्र समाप्त कर के महेश बहुत देर तक कमरे की छत को ताकता लेटा रहा। जॉन के निर्देशों के बारे में, उस की मनचाही ज़िन्दगी के बारे में, मनमानी के बारे में सोचता हुआ . . .!
अंत में भी तुम अपनी मनमानी कर ही गये जॉन? महेश को जॉन के निर्लिप्त जीवन से कुछ ईर्ष्या हुई। जॉन मुक्त था, वह इतनी गहरी मुक्ति के साथ जिया और मरा था कि उसे मुक्ति के लिये किसी गंगा या झील की ज़रूरत नहीं थी। महेश उसे फक्कड़ कहता और उसे ‘नॉन टैक्सपेयर’ (टैक्स न देने वाला), ‘नॉन कंट्रीब्यूटर’ (योगदान न देने वाला) कह कर खिजाता भी था कि वह समाज को क्या दे रहा है? समाज को उसके पैदा होने का क्या लाभ मिला? शुरू में अक्सर वह यह सब जॉन की माँ के कहने पर और बाद में यूँ ही उसे चिढ़ाने को कहता कि जॉन भड़क कर नौकरी करने लग जाये, जीवन की सामान्य कही जाने वाली शैली अपना ले पर जॉन केवल हँस देता, भड़कता नहीं। कभी-कभी कहता, “टाइम विल टैल” (समय बतायेगा)!
आज समय बता रहा था कि जॉन जैसा जीवन बिताने पर ही नई खोज और नए विचार सामने आते हैं, कुछ असामान्य घटता है। मनुष्य नष्ट हो जाता है पर उसका अर्जित ज्ञान समाज के अथाह सागर में मोती की तरह शेष रह जाता है। पानी के बुलबुले भले ही नष्ट हो जाते हैं पर उनके सिरों पर चमकती आभा कहीं, किसी आकाश, किसी ‘स्पेस’ में, किसी के मन के ‘स्पेस’ में देर तक रह जाती है, ठहर जाती है।
दो सालों में एक के बाद एक चार किताबें बहुत सी नयी खोजे समेटे हुए लोगों के सामने आईं और ‘फ़िजिक्स’ (भौतिकी) और ‘मेटाफ़िज़िक्स’ (परा-भौतिकी) के क्षेत्र में नए अनुसंधान के कई आयाम खुल गए। उन दोनों विषयों के बीच के सम्बन्ध को लेकर चर्चाएँ हुईं, सेमिनार किए गए, स्थापित विद्वानों ने उसका स्वागत किया और उन्हें ‘अद्भुत’ माना गया। सामान्य पाठक से लेकर विद्वानों तक सबके द्वारा उन्हें बेहद पसंद किया गया।
उन किताबों का लेखक था: जॉन ‘महेश’ स्मिथ!!
अंत में महेश ने जॉन की मनमानी से निकलने का रास्ता ढूँढ़ लिया था।
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- ख़ुशफहमियाँ
- ग़लती (डॉ. शैलजा सक्सेना)
लघुकथा
साहित्यिक आलेख
- अंतिम अरण्य के बहाने निर्मल वर्मा के साहित्य पर एक दृष्टि
- अमृता प्रीतम: एक श्रद्धांजलि
- इसी बहाने से - 01 साहित्य की परिभाषा
- इसी बहाने से - 02 साहित्य का उद्देश्य - 1
- इसी बहाने से - 03 साहित्य का उद्देश्य - 2
- इसी बहाने से - 04 साहित्य का उद्देश्य - 3
- इसी बहाने से - 05 लिखने की सार्थकता और सार्थक लेखन
- इसी बहाने से - 06 भक्ति: उद्भव और विकास
- इसी बहाने से - 07 कविता, तुम क्या कहती हो!! - 1
- इसी बहाने से - 08 कविता, तू कहाँ-कहाँ रहती है? - 2
- इसी बहाने से - 09 भारतेतर देशों में हिन्दी - 3 (कनाडा में हिन्दी-1)
- इसी बहाने से - 10 हिन्दी साहित्य सृजन (कनाडा में हिन्दी-2)
- इसी बहाने से - 11 मेपल तले, कविता पले-1 (कनाडा में हिन्दी-3)
- इसी बहाने से - 12 मेपल तले, कविता पले-2 (कनाडा में हिन्दी-4)
- इसी बहाने से - 13 मेपल तले, कविता पले-4 समीक्षा (कनाडा में हिन्दी-5)
- कहत कबीर सुनो भई साधो
- जैनेन्द्र कुमार और हिन्दी साहित्य
- महादेवी की सूक्तियाँ
- साहित्य के अमर दीपस्तम्भ: श्री जयशंकर प्रसाद
हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी
पुस्तक समीक्षा
पुस्तक चर्चा
नज़्म
कविता - हाइकु
कविता-मुक्तक
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हेमन्त 2025/06/01 06:57 PM
बेहतर कहानी।