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इसी बहाने से - 07 कविता, तुम क्या कहती हो!! - 1

इसी बहाने से

मित्रों, एक लम्बे अरसे से किसी बहाने से साहित्य चर्चा नहीं कर पाई। इस बीच कुछ लिखा, कुछ पढ़ा और बहुत सा सोचा। आप के साथ फिर एक बार जुड़ने की चेष्टा कर रही हूँ, आशा है कि आप भी इस चर्चा में भाग लेंगे और हम एक साथ मिल कर साहित्य के विविध आयाम, जीवन, समाज और इतिहास की भूमिकाओं पर बातचीत करेंगे।

प्रस्तुत है, बातचीत की शृंखला की पहली कड़ी..

अतृप्ति, अधूरापन, विसंगति, महत्त्वाकांक्षा, मृगतृष्णा, आपाधापी, स्वार्थ-संबंध आदि अनेक शब्दों ने आधुनिक समाज और आधुनिक व्यक्ति की स्थिति की व्याख्या की है। कितनी हैरानी की बात है कि कवि/ लेखक अधिक सुख सुविधाओं और आधुनिक उपकरणों का प्रयोग करते हुये भी जीवन में सकारात्मक ऊर्जा का अनुभव नहीं कर पा रहा है। जीवन में इस सकारात्मक ऊर्जा का अभाव अनुभव करना और उन्हें अतीत के पन्नों में तलाश करना ही मानों आधुनिक जीवन की विडंबना बन गई है। अनेक समकालीन कवितायें इन विसंगतियों, विडंबना को लेकर पिछले ५० सालों से लिखी गईं और लिखी जा रही हैं। कवि-आलोचक विनय विश्वास जी ने बहुत अच्छी बात अपनी पुस्तक "आज की कविता" में लिखी है कि "आज का कवि चाहें प्रतिस्पर्धा के कारण बँटा हुआ हो पर आज की कवितायें सहेलियों की भाँति एक दूसरे की बाँहों में बाँहें डाल एकसाथ चल रही हैं"। कविताओं का एकसाथ चलने का अर्थ है कि कवियों का अनुभव लगभग एक है। इस अनुभव के एक होने का क्या कारण है? कारण है समाज और व्यक्ति!! लेकिन विचारणीय है कि कवि किस प्रकार के समाज और व्यक्ति का चित्र प्रस्तुत कर रहा है?

कई बार सोचती हूँ कि क्या कवि के सोचने और आज के व्यक्ति के अनुभव करने के बीच एक फाँक तो नहीं है? क्या कवि समाज में हो रहे सकारात्मक बदलाव को देख/बता रहा है? क्या कविता आम मनुष्य के कष्ट आँकने के साथ उसे मिली सुविधाओं के बारे में भी बात कर रही है? दुनिया कहाँ से कहाँ पहुँच गई पर कवि उस सब को जैसे देख नहीं पा रहा, यानी प्रश्न यह है कि कहीं कविता स्यापा पीटने वाली रुदाली भर ही तो नहीं रह गई है? यानी लगभग पूरा परिदृश्य बदल गया और हम अब भी आँखॆं बंद करे, "यह नहीं है, यह नहीं मिला" का रोना रोते रह गये हों और समय के साथ चल न पा रहे हों? क्या कारण है कि कविता के पाठक घट रहे हैं? क्या कारण हैं कि नई पीढ़ी हिन्दी कविता से जुड़ने में असमर्थ है?

इन मुद्दों पर बाद में हम क्रम से विस्तार से विचार करेंगे पर अभी आज के समाज पर कुछ चर्चा पहले करना चाहती हूँ क्यों कि कविता समाज से उत्पन्न होती है। अगर कविता उपरोक्त अनुभवों को लिख रही है तो ये अनुभव समाज की ज़मीन से ही निकल रहे होंगे! एक सजग दृष्टि समाज पर ड़ालना आवश्यक हो जाता है और यह देखना भी ज़रूरी हो जाता है कि क्या कवि समाज की प्रगति और स्थिति को वाकई में ज्यों का त्यों देख पा रहा है? साहित्य में उसी रूप में प्रस्तुत कर पा रहा है?

आज का समाज एक "वर्ल्पूल", एक भँवर के जैसा या एक तेज़ दौड़ जैसा दिखाई देता है। ऐसी दौड़ जिसका लक्ष्य दिखाई नहीं देता। व्यक्ति की इच्छायें बढ़ रही हैं लेकिन उन्हें पूरा करने की जितनी क्षमता आज के मनुष्य में है उतनी क्षमता आज से ५० वर्ष पहले नहीं थी, अत: क्षमता बढ़ने से उन इच्छाओं को पूरा करने के लिये वह उतनी ही प्रचंडता से आगे बढ़ रहा है। यह एक दौड़, नये उपकरणों से सज्जित दौड़ है जिसमें जो जितना समय, मेहनत, लगन, ऊर्जा देगा उतना आगे बढ़ेगा। अब पुराने समय की तरह यह अधिकार केवल राजाओं या केवल कुछ थोड़े से लोगों के हाथ में नहीं है कि केवल वे ही आगे बढ़ सकते हैं। अब प्रयत्नों के द्वार सबके लिये खुले हैं, जितनी क्षमता है उतना आगे बढ़ो। यहाँ स्त्री और पुरुष का भेद भी मिटना प्रारंभ हुआ है। स्त्री ऑफ़िसों के ऊँचे पदों से लेकर घर, खेतों, खलिहानों में काम कर रही है। आर्थिक स्वतंत्रता ने उसे परतंत्र रखे जाने वाले नियमों को तोड़ना प्रारंभ कर दिया है। नियम-कानून उसकी मदद को पहली बार आगे बढ़े हैं। इस तरह निम्न मध्यवर्ग, दलित वर्ग, आदिवासी वर्ग और स्त्री ने अपने प्रयत्नों से जीवन को ऊँचा उठाना प्रारंभ किया। साधनों के बँटवारे में अवश्य अभी भी समानता नहीं है परन्तु प्रयत्न और इच्छाशक्ति का महत्त्व साधनों से अधिक बढ़ गया है। इच्छाशक्ति है, घनघोर प्रयत्न है तो साधन जुट जायेंगे- सही या ग़लत तरीक़ों से। अपनी क्षमता पर ऐसा विश्वास, अपनी क्षमता का ऐसा सुख किसी समय में पहले नहीं मिला जितना अब मिला है। अब प्रश्न यह है कि ऐसे क्षमतावान समय में क्या कविता इस नई क्षमता का प्रशस्ति गान गाती है? क्या कविता निम्न वर्ग के मध्यवर्ग बन जाने और बनते जाने पर प्रसन्नता जताती है? क्या कुर्मी और जमादार का बेटा जब कुर्सी पर बैठ कर काम करता है, घर पैसे भेजता है तो क्या कविता बिना किसी दलित विमर्श में पड़े, उसकी ख़ुशहाली में स्वर मिलाती है? इन प्रश्नों के उत्तर हमें आज की कविता की मुख्य स्वर धारा में खोजने होंगे?

अब प्रश्न यह है कि ये क्षमतायें किस काम में लग रही हैं? जो जिसके पास नहीं होता है, वह उन्हें ही पाने के लिये अपनी क्षमतायें लगाता है! जो पैसा, विलास, सुख पहले बहुत कम लोगों के पास था, वही अब सब को चाहिये अत: सारी मेहनत अधिक से अधिक पैसा कमा कर अपने लिये सुख-विलास के साधन जुटाने के लिये है। क्षमता की सफलता का मानदंड है- अधिक से अधिक पैसा। जो अर्थतंत्र को समझते हैं वे जानते हैं कि धन की गति रुकती नहीं है। आज जितना पर्याप्त जान पड़ रहा है, कल वह कम मालूम होगा ही क्योंकि हर चीज़ के दाम बढ़ते चलते हैं, महँगाई बढ़ती चलती है। पर इस सब के चलते भी जीवन शैली ऊँची उठी है, जीवन पहले से अधिक सुविधासंपन्न हुआ है पर अब उन सब को बनाये रखने के लिये और अधिक मेहनत, और अधिक लगन, और अधिक ऊर्जा देनी पड़ रही है। कल आज से अधिक मेहनत और ऊर्जा देनी होगी। जीवन मानों एक पहाड़ी की चढ़ाई पर है जहाँ चलने की रफ़्तार बढ़ानी ही होगी, हाथों में ताक़त बढ़ानी ही होगी अन्यथा तंत्र का भारी पहिया ऊपर न चल कर उसे धकियाने वाले लोगों पर ही गिर कर उन्हें चूर कर सकता है अत: विकल्पहीनता की स्थिति पैदा होती है, कोल्हू के बैल जैसे प्रतीक इन्हीं स्थितियों से पैदा होते हैं। कविता के संदर्भ में बात करें तो पूछना होगा कि क्या इस अर्थतंत्र को आधुनिक कविता ने गहराई तक विश्लेषित किया है? क्या इस तंत्र की अनिवार्य वैश्विक स्थितियों को कविता ने उधेड़ कर जाँचने की चेष्टा की है? क्या कविता तंत्र के ऊपरी प्रभावों के अतिरिक्त इस की दिशा के बारे में कुछ कहती है?

आज के मनुष्य की मुख्य समस्या समय और शारीरिक-मानसिक क्षमता की सीमा है, प्रगति की नहीं!! प्रगति की इच्छा और शरीर की क्षमता और घड़ी की सुइयाँ दो अलग दिशाओं में भाग रही हैं। आज के जीवन-तंत्र में काम की अधिकता इतनी है कि वे २४ घंटे के समय में अट नहीं पा रहे हैं। शरीर की ताक़त कामों को पाट नहीं पा रही है, तो इस कम समय में आदमी न अपने को समय दे पा रहा है और न अपने संबंधों को।यहाँ से आदमी में पैदा होती है प्रतिस्पर्धा और अकेलापन। कौन कितना और कैसे आगे बढ़ जाये! प्रतिस्पर्धा इतनी बढ़ी कि कब ग़लत-सही की सीमा लाँघ गये, पता नहीं। अकेलापन इतना बढ़ा कि सामाजिक ज़िम्मेदारियों की परिभाषा और रूप ही भूल बैठे।

अब इस तरह के समाज में जब अपने लिये समय नहीं है तब कविता या कला के लिए समय निकालना कैसे संभव है? पर आनंद के लिए कुछ तो चाहिये। पर सब कुछ कम समय में अधिक चाहिये जो दिमाग़, दिल और शरीर को कुछ क्षणों के लिए इस "रुटीनी जीवन" से बाहर ले जाये! तब आते हैं "थ्रिल्स", अब वे चाहें "ड्र्ग्स" से पैदा हों, चाहें "फ़िल्मों" से, अपराधों से, सैक्स से या किसी और से...सब घड़ी से बँधा है, कम समय में जो हो जाये, अधिक से अधिक हो जाये वह चाहिये! कम से कम पैसे देकर जो मिल जाये वह चाहिये! एक उपयोगिता और उपभोक्ता का संबंध और समीकरण ही मुख्य रह गया है। जो इस सब को नकार कर आज की लीक से हट कर चलना चाहता है उसे सामाजिक मानदंडों के विरोध में जाने के लिये और अधिक ऊर्जा चाहिए। धार के विपरीत चलना किसी समय में भी आसान नहीं हुआ, आज और भी कठिन है क्यों कि अधिक लोग सक्षम हैं और उनका अपनी क्षमताओं पर दंभ बहुत बढ़ गया है। इसके चलते पहले वाले मानवीय मूल्य, परस्पर आदर भाव और सहिष्णुता के स्तर में भारी गिरावट आई है। जीवन से अधिक से अधिक ले लेने के लिये जितनी तड़प आज के आदमी को है, उतनी पहले कहाँ थी? अब प्रकृति का सौन्दर्य देखने के लिये नहीं, दुह लेने के लिये है। दोस्त हँसने और मिलने-जुलने के लिए नहीं, काम निकालने के लिए है। प्राय: यही बात अधिक दिखाई देती है। जहाँ जनसंख्या अधिक है वहाँ होड़ या प्रतिस्पर्धा उतनी ही अधिक! जहाँ युद्ध की स्थितियाँ चल रही हैं, वहाँ "जीवन" की लड़ाई उतनी ही प्रचंड! उस पर से एक तबक़ा ऐसा पैदा हुआ है जो दुनिया को अपने आतंक में रखना चाहता है, कारण चाहें वह अपने हथियारों की खपत बढ़ाने के लिये, चाहें अपना धर्म फैलाने के लिये, चाहें दुनिया को अपने कब्ज़े में करने के लिये हो पर उसके चलते जीवन की अनिश्चतता का डर बढ़ गया है, मृत्यु से ज़्यादा बर्बर मृत्यु और सामूहिक मृत्यु का डर बढ़ गया है। कब, कौन किस जगह बम लगा कर कितने लोगों को मौत दे सकता है, कुछ पता नहीं! इस डर को रोकने की कोशिश में सुरक्षा के उपाय बढ़े हैं पर फिर भी इस सुरक्षा की दीवार में सेंध लग ही जाती है। तकनीकी की प्रगति के कारण विश्व के एक कोने की घटना सारे विश्व को हर स्तर (आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक, भावनात्मक) पर प्रभावित करती है। तब समस्या और घनीभूत...!!! लोगों के बीच की खाई बढ़ रही है। डर संकुचित करता है, डर अवांछित प्रतिक्रियायें पैदा करता है, डर मानसिक ही नहीं, सामाजिक विकार पैदा करता है।

इस भागदौड़ में बहुत से हैं जो भाग नहीं लेना चाहते या शारीरिक रूप से भाग लेने में असमर्थ हैं, वे इस दौड़ से बाहर हैं और सफलता के मानदंडों के आधार पर पिछड़े हुये भी।

पुराने मूल्य टूट रहे हैं और नये सच को अपनाने के लिए हम में से अनेकों तैयार नहीं हैं।

आज की कविता में इन सब बातों की चर्चा कितनी हुई है, किस स्वर में हुई है, यह विचारणीय है। हिन्दी कविता में आधुनिक स्वरों का विश्लेषण करते हुये इन सब स्थितियों पर विचार करना बहुत आवश्यक है। यह कई लेखों की शृंखला की पहली कड़ी है, आशा है विचार-विमर्श की इस यात्रा में हम सब साथ-साथ चलेंगे।

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