सात फेरे
काव्य साहित्य | कविता डॉ. शैलजा सक्सेना23 May 2017
सात फेरे लिए तुमने
सात फेरे लिए मैंने
मन की सेज पर
हर रात, सुहाग रात।
तुम्हारे पुरुषार्थ ने
मेरी कल्पना की कोख में
सपनों का बीज बोया
और हम विश्वास का फल लिए
चढ़ते चले आए जीवन की कठिन सीढ़ियाँ
कुछ फूलों से लदी
कुछ रपटन से भरी
फिसलने को हुए तुम तो
हाथ थामा मैंने
गिरने को हुई मैं तो
हाथ पकड़ा तुमने।
सात फेरे लिए तुमने.......
सुहाग का सोना
तन से ज़्यादा रचा मन पर
और तन सज गया स्वयं ही।
समय झरता रहा
हरसिंगार सा हमारी देहों पर
सोख ली हमने उस गंध स्वयं में
उम्र की राह पर
गंध बढ़ रही है तुम्हारी
गंध बढ़ रही है मेरी
सात फेरे लिए तुमने......
झील की लहरों सी
मुस्कान उठती है तुम्हारे होंठों से
और मेरी आँखों का सूरज छूने की होड़ करती है
साँसों में हवन-धूम भरती है
उस दिन जो लिए थे सप्तपदी-वचन
भूलने को हुए तुम तो
याद दिलाए मैंने
भूलने को हुई मैं
तो याद दिलाए तुमने।
सात फेरे लिए तुमने
सात फेरे लिए मैंने
मन की सेज पर
हर रात, सुहाग रात।।
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