नीला की डायरी
कथा साहित्य | कहानी डॉ. शैलजा सक्सेना15 Oct 2025 (अंक: 286, द्वितीय, 2025 में प्रकाशित)
(नीला मात्र एक नाम नहीं, भारत के बाहर के जीवन का रंग है। यह डायरी रुक-रुक कर, १५ सालों में लिखी गई है, इस से नीला और उसके आसपास के जीवन का पता चलता है)
मई 6, 2000
आज जीवन का एक नया अध्याय शुरू होने जा रहा है। दोनों छोटे बच्चों के साथ हम मिशीगन आ गये हैं। इनको यहाँ एक कम्पनी में काम मिल गया है और मैं अपनी नौकरी छोड़ कर, सब के उज्ज्वल भविष्य का सपना ले कर आयी हूँ। आठ साल के सुहास और चार साल के नीलेश के साथ नौकरी के कारण बिल्कुल समय नहीं मिल पाता था। नौ से पाँच की नौकरी और फिर आना-जाना, सब मिला कर ख़ूब थक जाती थी। फिर घर पर आते ही घर के काम! कुछ देर भी बच्चों के साथ बैठना नहीं हो पाता था। बुरा भी लगता था कि सारा दिन मम्मी जी बच्चों को सँभाल कर थक जाती थीं पर क्या करो। अब यहाँ मैं पूरा दिन बच्चों को दे पाऊँगी। पार्कों में घुमाऊँगी, स्विमिंग ले जाऊँगी और सुहास को तो म्यूज़िक क्लास भी शुरू करवा दूँगी। यहाँ बच्चों के लिये इतनी सुविधायें देखकर तो मन झूम उठा है। साफ़-सुथरे शहर, साफ़-सुथरे लोग! वहाँ कभी बच्चों को पार्क में ले भी जाओ तो झूले पर बिठाने के लिये ही बच्चे को दस मिनट इंतज़ार करना पड़ता था . . . अब बच्चों की ख़ूब मस्ती रहेगी . . . और हमारी भी तो! नया जीवन, नई मस्तियाँ ????
जून 15, 2000
बस, एक ही बात बहुत बुरी है यहाँ, सारे काम . . . यानी सारे काम . . . टॉयलेट सफ़ाई तक . . . ख़ुद ही करने पड़ते हैं। अपनी कामवाली बाई और प्रेस वाला भइया बहुत याद आ रहे हैं।
सितम्बर 17, 2000
आज सुहास और नीलेश पहले दिन नये स्कूल गये। ख़ूब अच्छे टीचर हैं उनके। यहाँ इतने अच्छे सरकारी स्कूल हैं कि प्राइवेट स्कूल में जाने की बात बहुत कम और बहुत ज़्यादा ही पैसे वाले लोग सोचते हैं वरना सब फ़्री के सरकारी स्कूल, हाईस्कूल हैं! भारत में लोग बेकार ही डरा रहे थे कि यहाँ ’रेसिज़्म’ है, मुझे तो ऐसा नहीं लगा! सब लोग बहुत अच्छे से, ख़ुद आगे बढ़कर ही बात करते हैं, वहाँ कौन ऐसा करता था? क्या वहाँ लोग ऊँच-नीच की बातें नहीं करते थे? अमीर–ग़रीब का अंतर कितना अधिक है वहाँ पर! कोई घायल हो जाये तो लोग उसे उठाकर अस्पताल तक न लेकर जायें वहाँ, यहाँ कम से कम मदद करने को लोग खड़े तो हो जाते हैं!
दिसम्बर 20, 2000
आजकल लोग कहीं नहीं दिखाई देते। सुबह कारें चली जाती हैं, शाम को आकर खड़ी हो जाती हैं, सड़कें, पार्क सब अकेले हो गये हैं। आपसी प्रेम भी कई बार ठंड में जमा लगता है। घर की याद ख़ूब आ रही है। धूप में बैठ कर मूँगफली और तिल के लड्डू खाना! रज़ाई में घुस कर देर रात तक गपियाना। और आजकल तो शादियों का मौसम शुरू हो गया है। दो शादियाँ हैं इस साल, मैं मिस कर दूँगी। ये बहुत बिज़ी हैं सो जाना हो नहीं पायेगा। अमरीका को चिन्ता है कि सन् 2000 बदलते ही कहीं सारे सॉफ़्टवेयर क्रैश न कर जायें . . . बहुत फ़िक्र है सबको, इसी से सारे आईटी वालों की पूछ-परख चल रही है। हम भी तो इसीलिये यहाँ आये हैं।
दिसम्बर 24, 2000
कल रात पहला स्नो-स्टॉर्म (तूफान) आया। बर्फ़ से सब कुछ ढँक गया है। पर बर्फ़ होने पर आज बच्चे निकल आये हैं और ख़ूब मस्ती कर रहे हैं, ‘ह्वाइट क्रिसमस’ की ख़ुशी भी है। यहाँ के लोग सच में ख़ुश होना, मस्ती करना जानते हैं, अपने यहाँ तो ’सर्दी न लग जाये, ज़ुकाम न हो जाये’ का डर दिखा कर हमें घर में ही बिठा देते थे। यहाँ बर्फ़ के कारण न काम बंद होता है और न मस्ती करना। सुहास और नीलेश ने भी ’स्नो-मैन’ बनाया और ख़ूब ख़ुश हुए। साथ वाले घर की महिला ज़बरदस्ती बच्चों के लिए हॉट चॉकलेट और हम दोनों के लिये कॉफ़ी बना लायीं। मुझे लगता है कि हम लोग ही पता नहीं किस ’कॉम्प्लैक्स’ में जीते हैं जो इन लोगों से घुलमिल नहीं पाते।
मार्च 10, 2001
आज पहली बार यहाँ मंदिर में होली खेली। जब से यहाँ आये थे, तरस ही गये थे। अपार्टमेंट में कार्पेट होने के कारण बच्चों को बाथरूम में ले जाकर गुलाल के टीके लगा देते थे . . . ऐसे भी कोई होली होती है? कितने सारे भारतीय आये! हम सब लोग स्वतंत्रता दिवस, गणतंत्र दिवस, दीपावली सब मनाते हैं पूरे मन और लगन से! हिन्दी, तबले और नृत्य की क्लासें होती हैं मंदिर में। आजकल सुहास तबला सीख रहा है और नीलेश ने पिआनो सीखना शुरू किया है! दोनों बच्चे हिन्दी के साथ, वेदमंत्र आदि भी सीख रहे हैं। बहुत ख़ुशी होती है, चलो, अपनी भाषा और संस्कृति को भूलेंगे तो नहीं।
दिसम्बर 21, 2001
सितम्बर नौ को वह भयानक कांड हुआ और अमरीका हिल गया। एक अविश्वास, असुरक्षा, डर बैठ गयी है सबमें। नौकरियों की भी बहुत मुश्किल आ गयी है। पूरा जॉब-मार्किट ’फ़्रीज़’ हो गया है। कितनी ही कम्पनियों में से लोगों को निकाला जा रहा है। पिछले चार महीने में हमारे जान-पहचान के तीन लोग अपनी नौकरी खो चुके हैं। मिस्टर खुराना तो वापस भारत जाने का सोच रहे हैं! उनके बच्चे छठी और आठवीं में हैं, बहुत परेशान हैं कि भारत जाने पर स्कूल में एडमिशन कैसे होगा पर क्या करें लगभग तीन महीने से नौकरी ढूँढ़ रहे हैं। नौकरी के बिना यहाँ रहना बहुत मुश्किल है, पचीसों ख़र्चे और छोटी नौकरियाँ करना कि गैस स्टेशन पर खड़े हो जाओ या दुकानों में कैश रजिस्टर पर खड़े रहने की उनकी इच्छा नहीं है। पर कोई न कोई रास्ता तो निकलेगा ही . . . जिन्होंने हिम्मत कर के देश छोड़ा, हिम्मत छोड़ने का विकल्प उनके पास नहीं है! भारत में इस बात को कोई समझ सकता है क्या?
फरवरी 9, 2002
हर जगह शक और डर का वातावरण है। सुना किसी शहर में किसी सरदार जी की लंबी दाढ़ी देख कर उन पर शक किया गया और पीट-पीट कर अधमरा कर दिया गया। पहले अफ़्रीकी लोगों के साथ का दुर्व्यवहार सुनते थे . . . अब तो वह बहुत कम हो गया है . . . पर इस घटना ने अब एक नये क़िस्म का डर पैदा कर दिया है। आगे बढ़ती सभ्यता और संस्कृति एक झटके से रुक गयी है . . . कितने ही साल जैसे पीछे को लौट गये हम। इस दुनिया में शक़, अविश्वास और अनिश्चितता का एक फ़ैलाव अब बहुत दिनों तक चलेगा। एक घबराहट पूरे अमरीका में है। नौकरी और जीवन पर एक तलवार लटक गई है। हम सब गहरी दुविधा से एक-दूसरे को देखते हैं, मानों अभी तक हम बचे हुए हैं, कल क्या होगा, उसका पता नहीं। अनेक कम्पनियाँ बंद होने की कगार पर हैं . . .। ग्राउंड ज़ीरों की धूल हम सब के मुँह पर उड़ रही है। इस दुनिया को कभी कोई हिटलर, कभी कोई स्टालिन तो कभी कोई ओसामा पीछे के तरफ़ ही धकियाते रहते हैं, पर ज़िन्दगी फिर चल पड़ती है . . . चाहे कुछ समय के लिये गिरते-पड़ते ही।
जून 7, 2002
आज एक बहुत बुरी ख़बर पता लगी, मन दुखी हो गया। वैडिंग एनीवर्सिरी है आज हमारी, पर ये ख़बर सुन कर बहुत बुरा लगा। नीता की शादी टूट गयी। आठ साल में मेहनत से बनाया गया एक घर और परिवार बिखर गया। दो बच्चे हैं उनके . . . पर समीर को यहाँ की ही कोई लड़की भा गयी है, नीता से कहा कि “हमारे बीच ’कम्पैटिबिलिटी’ नहीं है, सो अलग होना ही अच्छा! तुम चाहो तो यहाँ रहो या इंडिया चली जाओ, मैं महीने का ख़र्च दे दिया करूँगा।” इतने साल से ’कम्पैटिबिलिटी’ थी? नीता शॉक में है . . . क्या कहे और क्या करे? अपनी अच्छी-ख़ासी जॉब छोड़ कर समीर के साथ यहाँ आयी थी, अभी तो उसका ग्रीन कार्ड भी नहीं हुआ तो नौकरी भी कैसे करे! देखो, क्या होता है! मेरे साथ यह हुआ तो मैं क्या करूँगी? काम के सिलसिले में इतनी-इतनी देर जब घर से बाहर रहना पड़ता है तो पति-पत्नी, दोनों में ही दूरी आ जाती है। ऐसे में सम्बन्ध कितनी देर टिकेंगे, कौन जानता है?
सितम्बर 10, 2003
वहाँ नौकरी के छूटने का ऐसा हर समय का डर नहीं होता, यहाँ तो हर समय सिर पर तलवार लटकी रहती है . . . पर इस सच को कोई कैसे बता?। हमारा पिछला समय भी कितना मुश्किल निकला . . .। इनकी भी नौकरी छूट गई थी। दो महीने घर पर रहे . . . नौकरी ढूँढ़ते बेहाल हो गये तब जाकर मिली, पर कम वेतन पर . . . घर ख़र्च भी इतने हैं . . . भारत में भी किसी को क्या बताते! सच न बताने की भी कितनी पीड़ा होती है। और उधर वो उड़ीसा से आई हुई चेतना के माता-पिता हैं कि उसकी नौकरी चली गई है, जानकर भी उस से हर महीने पैसे मँगाते रहते हैं। पता नहीं भारत में लोगों को क्यों लगता है कि यहाँ पर लोग कल्पवृक्ष के नीचे बैठे हैं, पेड़ हिलाओ और रुपये बरसने लगेंगे। वो बहुत परेशान रहती है . . . जिस घर को सुखी करने के लिये वह यहाँ दुख झेल रही है, वे उसके अपने भी उसे दुखी बनाने में कसर नहीं छोड़ रहे।
अप्रैल 25, 2004
चार साल बाद भारत होकर आये। कितनी तैयारी की थी, सब के लिये ढेरों सामान लिया . . . टिकट और सब ख़र्चा करते-करते बचत भी आधी ही रह गई और उस पर भी ऐसा नहीं लगा कि सब बहुत ख़ुश थे हमारी गिफ़्ट से। एक और मज़े की बात, ये दोनों बच्चे तो हिन्दी में बोल रहे थे पर रिश्तेदारों और पास-पड़ौस के बच्चे ज़्यादातर अंग्रेज़ी ही बोलते सुनाई दिये। नीलेश और मैं 4-5 दिन को बीमार भी पड़ गये। बीमार होने पर भी यही सुनाया गया, “भई फॉरेन-रिटर्न हैं, अब यहाँ का हवा-पानी क्यों सही लगेगा।” बहुत बुरा लगा!
मई 17, 2006
आज मैंने यहाँ ह्यूमन रिसोर्सेज़ मैनेजमेंट का डिप्लोमा ले लिया। दो साल लग गये पर अब यहाँ कुछ काम तो कर सकूँगी। दो साल बहुत मेहनत की। पढ़ाई, घर और बच्चे, सब एक साथ, बिना किसी मदद के सँभालना कहाँ आसान है? बच्चे भी बड़े हो ही गये हैं, दुनिया को देखते हुए ये दोनों बच्चे सरल हैं, भारत के बच्चे तो इन्हें बेच खायें। मैं ख़ुश हूँ कि आजकल दोनों कार्यक्रमों में स्टेज पर पियानो और तबला बजाने लगे हैं।
जुलाई 21, 2006
नौकरी मिल गई है। बहुत अच्छा लग रहा है, कोर्स करने की मेहनत सफल हुई। बहुत से लोग यहाँ नौकरी के साथ-साथ ऐसे कोर्स करके या तो अपने को अपडेट करते हैं या कैरियर बदल लेते हैं। बहुत मेहनत करते हैं यहाँ के लोग . . .! पता नहीं अपने देश में अमरीका को भोग-विलास की छवि बनाकर ही क्यों पेश करते हैं? यही मेहनत करने का रवैया भारतीयों का हो जाता तो हमारा देश बहुत सुखी हो जाता। ये लोग जी-तोड़ मेहनत करना जानते हैं तो मस्ती भी बुढ़ापे तक करते हैं! यह नहीं कि पचास के ऊपर हुए नहीं कि अब क्या करना हमको—का भाव लेकर बैठ गये! मुझे अच्छा लगता है इनका खुलकर यूँ जीना! काश! हम अपने अच्छे मूल्यों के साथ इनके अच्छे मूल्यों को अपना सकते!
दिसम्बर 5, 2006
हम लोग एक चैरिटी संस्था से जुड़ गये हैं जो भारत में बच्चों को पढ़ाने के लिये गाँवों और देहातों में अध्यापक भेजती है—’एकल’! यहाँ हर बच्चे को हाईस्कूल के पास करने का सर्टिफ़िकेट ही तब मिलता है जब वह कम से कम चालीस घंटे का “वालिंटियर” काम कर लेता है। शुरू से ही इस तरह के काम करने की आदत डाल दी जाती है और बच्चे पढ़ाई के साथ नौकरी भी सोलह साल की उम्र से करने लगते हैं। ज़िम्मेदारी सिखाने की प्रक्रिया बहुत पहले से शुरू कर दी जाती है। जो ज़िम्मेदारी सीखता है, वह निर्णय भी ख़ुद लेना चाहता है, बस वहीं हम भारतीय डर जाते हैं कि बच्चे हाथ से बाहर जा रहे हैं . . . मैं भी तो कभी-कभी डर ही जाती हूँ!
सितम्बर 12, 2007
भारत से बहुत बुरी ख़बर मिली। मेरी सहेली के परिवार में एक लड़की को दिन दहाड़े सड़क से उठाने की कोशिश की गई, उसका भाई उसके साथ था, उसने जब गुंडों को रोकने की कोशिश की तो उन्होंने उसे चाकू मारा, लड़की ने भी बहुत संघर्ष किया और किसी तरह से अपने को उठवाये जाने से बचा लिया। दोनों भाई-बहन बहुत घायल हो गये। पुलिस में रिपोर्ट लिखाई है पर कार्यवाही की उम्मीद कम है क्योंकि पता चला है कि किसी एम.एल.ए. का हाथ है अपराधियों के सिर पर! सुनकर मन दहल गया, विद्रोह करता है! मुसीबत की जड़ हमारी यही क़ानून व्यवस्था है। आम आदमी को न्याय नहीं! इस देश में भी भ्रष्टाचार है पर ऐसे निचले स्तर पर नहीं . . . बड़े-बड़े आदमी, अपने धन को लेकर घोटाले करते हैं पर आम आदमी के रोज़मर्रा के जीवन पर उसका असर नहीं पड़ता, पुलिस घूस नहीं खाती, तू-तड़ाक नहीं करती और इस तरह की लड़की उठाने जैसी घटनायें एक तो होती नहीं और अगर होती हैं तो पुलिस पूरी कोशिश करती है अपराधी को ढूँढ़ने की। इंसान को सबसे पहले क्या चाहिये . . . खाना, छत और सुरक्षा! पर सच में सोचो तो सुरक्षा कहाँ है? यहाँ भी ऐसे क़िस्से होते ही होंगे, जहाँ लोग सुरक्षित अनुभव नहीं करते होंगे जैसे अफ़्रीकी लोग। वे प्रायः पुलिस व्यवस्था से असंतुष्ट हो जाते हैं पर उनके अनेक गिरोह आपस में मार-काट भी करते हैं, रात-बिरात, क्लबों या सड़क पर भी ऐसे ख़ून कर दिए जाने की ख़बरें छपती हैं। पर ये वारदातें अभी तक तो मुख्यतः विभिन्न गिरोहों तक ही सीमित हैं।
मन आज बहुत बेचैन है। ये दोनों बच्चे बड़े हो रहे हैं पर ’संगत का डर’ तो लगा ही रहता है कि कहीं ग़लत संगत में न पड़ जाएँ। ऐसे डर शायद माँओं के मन से कभी जाते नहीं।
जुलाई 15, 2008
आज मिसेज़ खन्ना के बेटे की शादी थी। लड़की अमेरिकन ही है। लहँगे में ख़ूब प्यारी लग रही थी और शादी के बाद जब आकर उसने पंडित जी और बड़ों के पाँव छुये तो मन निहाल ही हो गया। मिसेज़ खन्ना बहुत ख़ुश हैं . . . पिछले चार साल से नैंसी को देख-जान रही हैं। कह रही थीं कि उनकी बड़ी बहन तो भारत में अपनी बहू के ग़ुरूर सँभालते-सँभालते ही परेशान हो गई हैं पर नैंसी बहुत सरल और सीधी है। भगवान करे, यह शादी चले . . . आजकल यहाँ-वहाँ सब जगह तलाक़ की सुन-सुन कर जी परेशान होता है। वैसे सच में, इंसान का अच्छा-बुरा होना उसकी नागरिकता नहीं, उसका व्यवहार तय करता है।
अक्टूबर 8, 2009
इतना बुलाने के बाद पहली बार इनके माता-पिता यहाँ आये हैं। बहुत अच्छा लग रहा है। तीन महीने को ही आये हैं पर चलो, आये तो सही! मेरे साथ काम करने वाली डॉना पूछ रही थी एक-दो हफ़्ते तो ठीक पर तीन महीने? मैं उन्हें कहाँ, कौन से होटल में रखूँगी? नहीं तो इतने दिन हमारी प्राइवेसी कैसे रहेगी? ख़ूब हँसी आई! हम लोग तो ऐसा सोच भी नहीं सकते . . . हमारे यहाँ ऐसी प्राइवेसी की ज़रूरत ही नहीं होती! हमें तो उनका साथ चाहिये! बच्चे दादा-दादी के साथ मगन हैं और हम लोग दीवाली के लिये घर सजाने और पकवान बनाने में!
दिसम्बर 30, 2011
पिछले साल हर दूसरे महीने कभी मेरा तो कभी इनका चक्कर भारत लगा। इनकी मम्मी जी जनवरी में बेहद बीमार हो गईं थीं . . . हम दोनों ही कई बार गये पर वो जनवरी में चली गईं। हम सब गये, पापाजी को अपने साथ लाने की कोशिश की पर वो तैयार नहीं हुए . . . मन बहुत परेशान रहता है, ऐसे समय पर ही दूर रहना बहुत खलता है। क्या करूँ, यहाँ बच्चे, नौकरी, फिर ये भी वहाँ बहुत दिनों तक रह नहीं सकते सो नम्बर लगा कर अब हम दोनों जा रहे हैं बारी, बारी से और वहाँ लोग पूछ रहे हैं कि हम सब छोड़ कर क्यों नहीं आ जाते? अकेले हो तो ऐसा कर भी लो पर बच्चों की पढ़ाई, बीच मँझधार में है, कैसे करें? मैं अपनी स्थिति किसी को नहीं समझा सकती!
नवंबर 28, 2012
नवम्बर दो को मेरे पापा को हार्ट अटैक हुआ। मम्मी-पापा अकेले ही थे तब! मम्मी ही उन्हें हॉस्पिटल लेकर गयीं। मैं यहाँ से पहुँच गई दो दिन बाद पर पापा 12 तारीख़ को चले गये। भैया अपने कामों में चेन्नई ही में फँसे रहे, बाद में आये। तसल्ली थी कि पापा ने मुझे पहचान लिया था। बच्चे बहुत दुखी हैं अपनी दादी और नाना जी के जाने से।
जनवरी 6, 2013
दिमाग़ बहुत परेशान है। अभी पता लगा कि सुहास डिप्रैशन में चला गया है। कैसे हो गया यह! दिमाग़ सोच-सोच कर फटा जा रहा है। वो घर की घटनाओं और पढ़ाई के बोझ से परेशान तो था, पर इतना, यह नहीं सोचा था। हम लोग एमर्जेंसी ले गये उसको तीन दिन पहले, क्राइसिस नर्स से मिले . . . अब इलाज चलेगा। सुना है बच्चे परेशानी में नासमझी कर जाते हैं और ड्रग्स लेने लगते हैं, भगवान का शुक्र है कि इसने ऐसा नहीं किया।
डेढ़ साल बचा है यूनिवर्सिटी का . . . कैसे होगा? ये समझा रहे हैं कि पढ़ाई की चिन्ता मत करो। एकाध सेमिस्टर छूट भी गया तो क्या? बात तो सही है। इतने लंबे जीवन में दो-एक साल किसी डिग्री को लेने के लिए अधिक लग गए तो भी क्या? हम लोग शायद ’अच्छा करना’ का दबाव बच्चों पर बनाए रखना चाहते हैं, यह सोचते हुए कि अगर दबाव नहीं डाला तो बच्चे मनमानी करते हुए, कहीं बिगड़ न जाएँ।
हमने भी तो यही सोचा और कहा। एक तो पहले ही यहाँ के बच्चे छह साल से पहली में जाते हैं फिर चार साल बी.ए. में लगाते हैं। भारत में तब तक बच्चे एम.ए. भी कर लेते हैं। हर समय वहाँ से यही सुनती रहती हूँ कि मेरे बेटे ने यह पास कर लिया, इसके एक्ज़ाम दे रहा है। इतने का पैकेज मिला है . . . और फिर घूम फिर कर यह कि तुम्हारे बेटे का तो बी.ए. हो गया होगा!
पर इसको डिप्रैशन हुआ क्यों? अभी भी पूरी तरह से कुछ समझ नहीं आया। हम माता-पिता के दायित्व में कहीं चूक गए क्या? पिछले कुछ समय से सब की बीमारी का सुन कर इसका मन परेशान था . . . ऊपर से हमारी भाग-दौड़ भी हमें समय नहीं दे रही थी कि हम बात कर सकें ज़्यादा। इसके ख़ुद के कोर्स और परीक्षाएँ भी इतनी चलती हैं कि बात होना मुश्किल हो जाता है। डॉक्टर कह रही है कि अभी कुछ समय न कुछ कहें और न पूछें। रात-रात भर नींद नहीं आती चिन्ता में। सुबह से फिर नॉर्मल होने की एक्टिंग करनी पड़ती है।
दिसम्बर 12, 2015
सुहास बहुत ठीक है अब! बहुत काउंसलिंग की और डॉक्टरों ने हमें भी सिखाया कि कैसे इस स्थिति का सामना करें। उसकी बी.ए. समाप्त हो गई! इस बार क्रिसमस की छुट्टी में हम चारों यहीं कुछ समय साथ बितायेंगे। अब तक सब छुट्टियाँ भारत जाने के लिये ही बचाते थे, इनके पापा जी ठीक हैं, बहनें बीच-बीच में आती हैं और एक पूरे दिन की नर्स भी है। मेरी मम्मी, भैया के साथ चेन्नई चली गईं हैं। सब अपनी-अपनी जगह ज़िन्दगी के चक्र में भाग रहे हैं, कभी अकेले तो कभी साथ में। पैसे की, नौकरी की भागदौड़, तनाव सब जगह है पर यही समझ में आता है कि घर में जो वातावरण बनाया जाता है, उससे ही बच्चे बनते हैं। यही बच्चे हमारे भविष्य की दुनिया बनायेंगे। अच्छे और बुरे, अपने और पराये लोग हर जगह हैं। बहुत से लोग वहाँ संयुक्त परिवार में होकर भी एक साथ नहीं हैं और यहाँ अमरीकी लोग अलग-अलग रहते हुए भी त्योहारों में या ज़रूरत पर अपने माँ-बाप के लिये भाग-भाग कर जाते हैं। बाक़ी तो जो दुनिया है और हर देश की स्थिति है वो तो है ही। कहीं भी रहो, बदलाव सब जगह होता ही है . . . समय के इन भागते पलों में से कुछ पल साथ मिल कर हँस-बोल लें, वही अपने हैं, बस।
इससे पहले कि हमारे बच्चे भी बहुत अधिक व्यस्त हो जायें, हमें एक-दूसरे को समझने और साथ होने के एहसास को हर मौक़े पर और अधिक गहरा करना है।
नोट: अब यह कॉपी भरने लगी है, जैसे मेरा जीवन सुख-दुख से भरा हुआ है, ठीक वैसे ही। अगली कॉपी ख़रीदने जाने की जब फ़ुरसत मिलेगी, तब अगला लिखा जाएगा। पिछले १५ साल की मेरी ज़िन्दगी के कुछ पलों को जैसे इस डायरी ने सँभाला, अगले वाले पल नई डायरी सँभालेगी। क्या नई डायरी में कुछ नया लिखने को होगा? क्या मैं कुछ नया, कुछ अलग जी पाऊँगी?
. . . नीला
अन्य संबंधित लेख/रचनाएं
टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
कहानी
चिन्तन
सांस्कृतिक आलेख
कविता
- अतीत क्या हुआ व्यतीत?
- अनचाहे खेल
- अभी मत बोलो
- अहसास
- आसान नहीं होता पढ़ना भी
- इंतज़ार अच्छे पाठक का
- एक औसत रात : एक औसत दिन
- कठिन है माँ बनना
- कविता पाठ के बाद
- कोई बात
- कोरोना का पहरा हुआ है
- क्या भूली??
- गणतंत्र/ बसन्त कविता
- गाँठ में बाँध लाई थोड़ी सी कविता
- घड़ी और मैं
- जीवन
- जेठ की दोपहर
- तुम (डॉ. शैलजा सक्सेना)
- तुम्हारा दुख मेरा दुख
- तुम्हारे देश का मातम
- पेड़ (डॉ. शैलजा सक्सेना)
- प्रतीक्षा
- प्रश्न
- प्रेम गीत रचना
- बच्चा
- बच्चा पिटता है
- बच्चे की हँसी
- बोर हो रहे हो तुम!
- भरपूर
- भाषा की खोज
- भाषा मेरी माँ
- माँ
- मिलन
- मुक्तिबोध के नाम
- युद्ध
- युद्ध : दो विचार
- ये और वो
- लिखने तो दे....
- लौट कहाँ पाये हैं राम!
- वो झरना बनने की तैयारी में है
- वो तरक्क़ी पसंद है
- वो रोती नहीं अब
- शोक गीत
- सपनों की फसल
- समय की पोटली से
- साँस भर जी लो
- सात फेरे
- सूर्योदय
- स्त्री कविता क्या है
- हँसी! . . . सावधान!
- हाँ, मैं स्त्री हूँ!!
- हिमपात
- ख़ुशफहमियाँ
- ग़लती (डॉ. शैलजा सक्सेना)
लघुकथा
साहित्यिक आलेख
- अंतिम अरण्य के बहाने निर्मल वर्मा के साहित्य पर एक दृष्टि
- अमृता प्रीतम: एक श्रद्धांजलि
- इसी बहाने से - 01 साहित्य की परिभाषा
- इसी बहाने से - 02 साहित्य का उद्देश्य - 1
- इसी बहाने से - 03 साहित्य का उद्देश्य - 2
- इसी बहाने से - 04 साहित्य का उद्देश्य - 3
- इसी बहाने से - 05 लिखने की सार्थकता और सार्थक लेखन
- इसी बहाने से - 06 भक्ति: उद्भव और विकास
- इसी बहाने से - 07 कविता, तुम क्या कहती हो!! - 1
- इसी बहाने से - 08 कविता, तू कहाँ-कहाँ रहती है? - 2
- इसी बहाने से - 09 भारतेतर देशों में हिन्दी - 3 (कनाडा में हिन्दी-1)
- इसी बहाने से - 10 हिन्दी साहित्य सृजन (कनाडा में हिन्दी-2)
- इसी बहाने से - 11 मेपल तले, कविता पले-1 (कनाडा में हिन्दी-3)
- इसी बहाने से - 12 मेपल तले, कविता पले-2 (कनाडा में हिन्दी-4)
- इसी बहाने से - 13 मेपल तले, कविता पले-4 समीक्षा (कनाडा में हिन्दी-5)
- कहत कबीर सुनो भई साधो
- जैनेन्द्र कुमार और हिन्दी साहित्य
- महादेवी की सूक्तियाँ
- साहित्य के अमर दीपस्तम्भ: श्री जयशंकर प्रसाद
हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी
पुस्तक समीक्षा
पुस्तक चर्चा
नज़्म
कविता - हाइकु
कविता-मुक्तक
स्मृति लेख
विडियो
ऑडियो
उपलब्ध नहीं
रमा पूर्णिमा शर्मा 2025/10/15 07:50 PM
आँखों के मानो चलचित्र हो, प्रवास के हर उतार चढ़ाव को सच्चाई से दर्शाया है आपने शैलजा जी, संघर्ष, मनोस्थिति, भविष्य की चिंता, माता पिता से हमारा संबंध और विदेशी सोच , बच्चों के लिए चिंता, हर बात का बहुत गहराई से विश्लेषण किया है, हृदय स्पर्शी !