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स्त्री कविता क्या है

एक स्त्री पूछती है..
एक स्त्री हँस पड़ती है खुली सी हँसी!
आँसुओं से गीली कविता पढ़ने का समय नहीं है
इस स्त्री के पास!
अपनी दादी-नानियों से लेकर अपने
सारे आँसू दे चुकी है वो समुद्र को..
साफ़ नीले आसमान सी हो गई हैं
उसकी आँखें..!
बादलों को बंद कर के रख दिया है
अपनी अलमारी के आखिरी दराज में
उसने बहुत पहले!
अपने जूतों की खट-खट से
गुँजाती चलती है ऑफ़िस के कॉरीडोर
मीटिंग पर मीटिंग..
नयी योजनायें उसके दिमाग़ से निकल कर
फैल गई हैं काग़ज़ों पर।
आदमियों के सर सहमति में हिलते हैं
स्टेशन पर बिकती
मिट्टी की गुड़िया से।
आदेश में गूँजती है उसकी आवाज़
और बंद होने से पहले
पूरे हो जाते हैं काम।
मेहनत और पसीने के बीच बनाती है अपने इंद्रधनुष
और ख़ूब हँसती है!
वह मस्ती की स्त्री-कविता लिखती है..
वह लिखती है:
मस्ती भी छूत सी होती है
जिसे होती है
उसे बाक़ी कुछ छूता ही नहीं।

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