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जनकवि नागार्जुन

नागार्जुन जी का साहित्य जनमानस का साहित्य है। उनकी कविता उस वर्ग की कविता है जो कविता को जीता है, केवल लिखता नहीं है। यह कविता कमरे के एकान्त आभिजात्य से नहीं उपजती अपितु जीवन को चलाये रखने की ठोस समस्याओं के तपते पठार पर जूझते हुए उपजती है। यह एक जागरूक , जुझारू मनुष्य की कविता है जो जीवन के सहज , प्राकृतिक आनंद से उल्लसित होता है, राजनैतिक बेईमानी देख कर क्रोधित होता है, प्रकृति के बदलते रूपों से एकात्म होता है, अपने पड़ोसी लोगों के सुख-दुख को समान भाव से भोगता है, यह उस व्यक्ति की कविता है जो भावनाओं को दर्शन के स्तर पर नहीं ठेठ जीवन के स्तर पर ही जीता है और उसी भाषा में भाव को व्यक्त करता है जो हर आम आदमी की भाषा है, कुल मिला कर कहें तो यह नागार्जुन की कविता है!!

कवि के कृतित्व का मूल स्वर उसके व्यक्तित्व का परिचायक होता है। जैसी नागार्जुन जी की कविता है वैसे ही नागार्जुन जी थे, जीवन के उल्लास से उमगी आँखें, सबको अपने से जोड़ देने वाली सरल मुस्कुराहट और बहुत सादी वेश-भूषा ! साधारण दिखने वाले व्यक्ति का असाधारण व्यक्तित्व था!

मैंने जब उन्हें पहली बार देखा तब बिल्कुल नहीं पहचानी। दिल्ली के मंडी हाउस स्थित त्रिवेणी कला संगम में श्री जयशंकर प्रसाद जी की जयंती मनाई जा रही थी। मैं उस समय एम. फिल. की विद्यार्थी थी और "कामायनी की समीक्षाओं की समीक्षा" पर लघु शोध ग्रंथ लिख रही थी। अपनी दो मित्रों के साथ मैं समय से लगभग एक घंटा पहले ही पहुँच गई थी। एक तो विषय संबद्धता होने के कारण इस कार्यक्रम का कोई भाग मैं छोड़ना नहीं चाहती थी, दूसरा घोषित विद्वान-वक्ताओं में से अमृतलाल नागर जी को देखने और कार्यक्रम से पहले उनसे बातचीत करने का भी लोभ था। जब हम लोग वहाँ पहुँचे तो सभागार का मुख्य द्वार बंद था और वहाँ संयोजकों में से भी कोई नहीं था। हाँ, दरवाज़े से कुछ हट कर एक मँझोले आकार का टीन का बक्सा रखा था और एक बड़ा झोला उस पर टिका था। हम लोगों ने कुछ हैरान होकर देखा तो पास के दरवाज़े से ही टिक कर एक ग्रामीण वृद्ध खड़े थे। उन्होंने हम लोगों को देखा तो सफेद दाढ़ी-मूछों में उजली मुस्कान भर गई। उनकी दुबली, छोटी काया में चमकती आँखों ने हमारा स्वागत किया। हमें बंद दरवाज़े से कुछ परेशान देख कर वे आप ही हम से बोले, “अभी तो कोई आया नहीं है, आते ही होंगे" ! हमें उनकी बेहद साधारण वेशभूषा और यात्रा से धूमिल हुई चप्प्लों, उनके सामान आदि ने उलझन में डाला ! वे त्रिवेणी कला के सांस्कृतिक वातावरण से मेल नहीं खा रहे थे पर यह मंडी हाउस है जहाँ कौन किस रूप में घूमता मिले, कह पाना मुश्किल है पर फिर भी ऐसा लगा कि शायद वे गलती से ही यहाँ खड़े हैं ! दिल्ली विश्वदिद्यालय की शोध-छात्रायें होने का अहंकार और अपरिचित व्यक्ति से बात करने का संकोच मन में अनायास ही आया और अधिक बात न करनी पड़े इसलिये शालीनता से कहा, "जी, अभी तो समय है, हम फिर आयेंगे" और हम लोग नज़र चुरा कर चल दिये ! चलते समय उनकी उजली आँखों में बात करने का लोभ दिखाई दे रहा था। शायद वे कुछ देर से वहाँ अकेले खड़े थे।

समय आने पर जब हम वापस आये तो सभागार में कुछ लोग जमा हो चुके थे, वे ग्रामीण वृद्ध हमें दिखाई नहीं दिये। हमें लगा कि जब लोग आये होंगे तो उन्हें गलत पते पर पहुँच जाने का आभास हुआ होगा और वे वहाँ से चले गये होंगे। मंच पर सभी विद्वान आने लगे थे और हम लोग किसी से भी पहले न मिल पाने के अफसोस के साथ सीटों पर बैठ गये। अमृतलाल नागर जी भी मंच पर विराज चुके थे, उद्घोषक ने स्वागत नमस्कार किया कि नागर जी ने उन्हें बुला कर कुछ कहा। उद्घोषक ने माइक पर आ कर कहा कि यह हमारा सौभाग्य है कि नागार्जुन जी भी आज यहाँ उपस्थित हैं और हम उन्हें सादर मंच पर आमंत्रित करते हैं। एक-दो स्वयंसेवक आगे बढ़कर उन्हें मंच पर लाने गये। जब नागार्जुन जी मंच की सीढ़ी चढ़ रहे थे तो नागर जी ने अपने स्थान पर खड़े होकर तालियों से उनका स्वागत करना प्रारंभ किया जिसे देख कर शेष हम सब भी खड़े हो गये। यह हमारे लिये रोमांचकारी क्षण थे जब हम उन प्रसिद्ध लेखकों को अपने सामने देख रहे थे जिन्हें हम पढ़ते आ रहे थे, और ऐसा तो हम विद्यार्थियों के जीवन मे बहुत कम होता है कि इतने विद्वान लोग एक जगह एकत्रित हुए हों ! मंच पर पहुँच कर जब नागार्जुन जी ने सभा की ओर मुँहकर के हाथ जोड़े तो हम लोग यह देख कर हैरान हो गये कि वे ग्रामीण वृद्ध जो टीन के बक्से और झोले के साथ हमें दरवाज़े पर मिले थे, वे नागार्जुन जी थे! वे वर्धा से आ रहे थे और सीधे स्टेशन से ही इस सम्मेलन में भाग लेने चले आये थे। उनकी बात करने की इच्छा करती आँखें और स्वागत करती मुस्कान को याद कर हम लोग एक अफसोस भरी चुप्पी में डूब गये कि नागार्जुन जी से बात करने का अच्छा अवसर खो दिया। पर उस समय हमें क्या पता था कि वे जितने बड़े लेखक थे, उस से भी बड़े मनुष्य थे!

उसके बाद नागार्जुन जी से मेरा मिलना हुआ उनके घर, जब जानकी देवी महाविद्यालय में आयोजित कवि गोष्ठी में भाग लेने के लिये मैं उन्हें बुलाने गई। उन्होंने हमारा काव्य पाठ का निमंत्रण तो स्वीकार कर लिया था पर अपनी अस्वस्थता के कारण यायावर नागार्जुन जी ने यह आग्रह किया था कि कोई उन्हें लेने आ जाये। मैं हिन्दी विभाग की सबसे छोटी और नई प्राध्यापिका थी अत: यह काम मुझे सौंपा गया और मैं अपनी दो साहित्य प्रेमी विद्यार्थियों के साथ कॉलेज की वैन से उनके घर पर पहुँची, वे जमुना पार के एक शहर में गलियों के बीच बने घर में रहते थे। उनका एकमंज़िला घर अधूरा बना दीखता था। घर के भीतर जा कर देखा तो वाकई ईंटों के बीच सीमेंट लगा कर जैसे स्वयं दीवार खड़ी कर ली हो, ऐसा आभास हुआ। दीवारों पर सीमेंट नहीं था, घर के बीचों-बीच कच्ची मिट्टी का बड़ा दालान था जिसमें पौधे उगे हुए थे और उस के आमने सामने दो कमरे बने हुये थे।, जिनमें आगे छज्जा था। जिन महिला ने हमारे लिये दरवाज़ा खोला, उन्होंने उस धूप भरे दालान के सामने छज्जे के नीचे रखे तीन-चार मूढ़ों पर हमें बैठने का संकेत किया। पास ही में चारपाई पर नागार्जुन जी लेटे थे, उन्हें जा कर हमारी उपस्थिति की सूचना दी। मैंने इस बार नागार्जुन जी को पहचानने में गल्ती नहीं की पर मन में चिंता हुई कि अगर वे लेटे हैं तो जाने स्वास्थ्य कैसा होगा और वे हमारे साथ चलेंगे भी कि नहीं, ऐसे में इतना खोज-खोज कर घर ढूँढने और मुख्य सड़क पर गाड़ी छोड़, भीतर गली में बचते-बचाते आने का सारा श्रम व्यर्थ जायेगा, उधर सबकी उत्सुक इच्छा पर पानी फिर जायेगा सो अलग! पर नागार्जुन जी, उत्फुल्लता से "अच्छा, आ गये वे लोग" कहते हुये बान की खरहरी चारपाई से मुस्कुराते हुये स्वागत को उठ गये। जिन महिला ने हमारे लिये दरवाज़ा खोला था, वे संभवत: उनकी पुत्रवधू थीं, उनसे उन्होंने चाय लाने के लिये कहा। अब हम लोग संकोच में पड़े पर उन्होंने हमारा संकोच देख हँसते हुये कहा कि भई मैं भी तो पियूँगा ! अब तो कोई और उपाय नहीं था। फिर उन्होंने पूछा कि हमें घर ढूँढने में कोई परेशानी तो नहीं हुई। मैं तो संकोचवश नहीं कह कर चुप हो गई पर मेरी बी. ए. की छात्रायें उन्हें विस्तार से बताने लगीं कि कैसी मुश्किलों से वे हमें मिले ! इस पर हँसते हुये उन्होंने कहा, “अच्छा, अब ऐसी ही दुर्लभ चीज़ मैं तुम्हें दिखाता हूँ" कहते हुये उन्होंने दालान में घास जैसे लंबे पौधों को दिखाते हुये कहा, "तुमने दाल के पौधे कभी देखें हैं?” शहर में रहने वाले हम लोग, दाल के पौधे भला क्या देखते, सो सबने नहीं में ही गर्दन हिलाई ! उन्होंने वे पौधे दिखाते हुये कहा कि देखो,यह चीज़ तुम्हें दिल्ली में किसी के घर नहीं मिलेगी। और फिर कई सब्जियों के पौधे दिखाये, यह दिल्ली शहर के, व्यस्त जीवन और तंग गली में बने मकान के बीच उनके हाथों से उगाया उनका गाँव था और वे उसी मुस्कान और चमकती आँखों के साथ उसे दिखा रहे थे जैसे कि वे साहित्य चर्चा कर रहे हों। चाय पीकर वे उठे कि अभी आ रहा हूँ, मेरा मन समय का हिसाब -किताब कर रहा था कि अगर वे अब तैयार होने गये हैं तो हम और कितनी देर में निकल पायेंगे, उधर ड्राइवर सड़क पर खड़ा झींक रहा होगा पर मुश्किल से एक मिनट भी नहीं लगा था कि अपनी उसी उँची धोती और कुर्ते के ऊपर खादी की बंडी पहन वे बाहर आ गये कि चलो ! उनका तैयार होना केवल बंडी पहनना था ताकि सितंबर की उतरती शाम में कहीं अस्वस्थता और न बढ़ जाये। रास्ते भर वे कविताओं की जगह पेड़ -पौधों और आस-पास के लोगों, गाँव और हमारे महाविद्यालय की, छात्राओं की पढ़ाई की चर्चा करते आये। उन्हें यह अफसोस था कि शिक्षा जीवन या ज्ञानार्जन से जुड़ी नहीं है अपितु जीवन से बाहर मात्र नौकरी के लिये है।

यह स्पष्ट था कि उनके जीने, उनकी सोच और उनके लिखने के बीच कहीं कोई भेद नहीं, कोई फाँक नहीं है। जैसी चमकती आँखॆं, वैसी ही उत्फुल्ल भावाभिव्यक्ति, जैसी सरल सबको अपने जोड़ने वाली मुस्कुराहट , वैसा ही हर दुख, हर स्थिति के भीतर पैठ जाने वाला साहित्य, जैसी सादा वेश-भूषा,वैसी ही सादी आम बोलचाल की भाषा!

कितने कवि हैं किसी भी भाषा के साहित्य में, जिनके बारे में हम कह सकें कि वे अपना साहित्य जीते हैं?? बहुत कम!! पर हमें गर्व है कि हिन्दी साहित्य में एक ऐसा रत्न था जो अपना लिखा जीता था, जो जिये हुये को लिखता था, जिसका साहित्य और वह एक थे ! नागार्जुन जी ने अपने साहित्य की परिभाषा को खुद जी कर गढ़ा था, ऐसे साहित्य से ऐकात्म हुये साहित्यकार को हमारा सादर नमन!

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