खाली आँखें
कथा साहित्य | लघुकथा डॉ. शैलजा सक्सेना4 Feb 2019
पड़ोस का कल्लू पुलिस वाले के साथ लगभग भागता हुआ सा आ रहा था जब रामरती ने उसे देखा।
“ये ही है जी किसना मजूर की बीबी”।
पुलिस वाले ने अजीब निगाहों से उसके लाल मुँह को देखा..आँख के नीचे सुबह की मार का कालापन मौजूद था, गाल पर किसना के हाथ की अँगुलियों की छाप जैसे अभी भी मौजूद थी। उसके हाथ बर्तन माँजते-माँजते रुक गये...मन का कसैलापन होंठों तक उमड़ने को था, “अब क्या कर दिया मुए ने।”
सिपाही ने रामरती की प्रश्नवाचक निगाहों के उत्तर में केवल इतना कहा.. “थाने चलना होगा, अभी साथ में।"
हाथ धोकर जब तक वह झुग्गी से बाहर आई, औरतों, बच्चों और काम पर जाने से पीछे छूट जाने वाले ६-७ मर्दों का एक छोटा सा हुजूम वहाँ जमा हो गया था। कल्लू किसी के कान में फुसफुसा कर कुछ कह रहा था। रामरती जब चली तो तरस खाने वाली निगाहों से देखते हुए उसके साथ कई लोग चल पड़े। वह कुछ घबरा तो गई थी, पर उसे यही लगा कि पैसों के लिये उसकी कुटाई कर के जब किसना निकला होगा तो भिड़ गया होगा किसी से, अब बंद पड़ा होगा हवालात में, उसका बस चले तो कभी न छुड़ा कर लाये...“साला, हरामी”..सुबह की बकी गालियाँ उसकी ज़ुबान पर लौटने लगीं..चार साल हो गये उसकी शादी को और चार साल हो गये उसे लात, घूँसे खाते हुए, आज तो बाहर निकलने से पहले ही पीटना शुरू कर दिया था, और जब किसना ने नाभि के नीचे उसे लात मारी थी, तो वह चंडी बन गई थी, गालियाँ देती जब वह उसकी तरफ झपटी तो किसना झुग्गी से तीर की तरह निकल गया था..लगभग भागते हुए। पर रामरती की ऊँची आवाज़ ने उसका पीछा किया था.. "तू मर क्यों नहीं जाता..साला..हरामी...” और नाभि के नीचे अपने बढ़े हुए हर्निया को पकड़ कर वह १० मिनट तक कराहती रही थी....
और जब थाने में आकर थानेदार ने यांत्रिक ढँग से उठकर बेंच पर पडे किसी सामान के ऊपर से कपड़ा हटा गया था..तो उसे झुरझुरी आ गई थी। सामने ट्रेन से कटी, खून में लिथड़ी किसना की लाश पड़ी थी।...दो मिनट तक वह सुध भूल कर भौंचक्की सी उसे ताकती रही....फिर उसका मन करने लगा कि वह हँसे और तब तक हँसती चली जाये जब तक कि उसकी आँखों से आँसू न बहने लग जाए और नाक से पानी...पर सारे थाने की और साथ आऐ लोगों की आँखॆं उस पर गड़ी थीं।
एकाएक होश आने पर वह नाक से अचानक बह आये पानी को पोंछने लगी और पल्लू से खाली आँखें मसलने लगी।
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