इसी बहाने से - 03 साहित्य का उद्देश्य - 2
आलेख | साहित्यिक आलेख डॉ. शैलजा सक्सेना27 Mar 2012
प्रश्न चल रहा है साहित्य का उद्देश्य वर्तमान समाज में क्या है? आज साहित्य प्रेमचंद युग के साहित्य की तरह "सादर्श" की अभिव्यक्ति नहीं करता, कारण कि "आदर्श ही बहुत समय समय से लापता हो गए हैं। ना "आदर्श" जीवन बचा न आदर्श समाज, न आदर्श मनुष्य और न ही आदर्श स्थिती, क्योंकि "आदर्श" कि परिभाषा और परिभाषा को चरितार्थ करने कि प्रक्रिया, जीवन के संश्लिष्ट यथार्थ में गड़बड़ हो गई है। चाह कर भी कवि कहानीकार, उपन्यासकार, संवेदनशील लेखक इस भुलभुलैया से जीवन का उत्तर नहीं खोज पा रहा है। ऐसे में साहित्य और साहित्यकार बहुत ईमानदारी से, संजीदगी के साथ (अपनी समझ से) इन अनुत्तरित प्रश्नों को पाठकों के सामने रख कर अपने कर्त्तव्य का पालन कर रहा है।
तो इसका अर्थ यह लिया जाए कि साहित्य का उद्देश्य आधुनिक समाज में, समाज और व्यक्ति के संबन्ध और जीवन से संबंधित प्रश्न को प्रस्तुत करता है? आज से बीस-तीस वर्ष पूर्व के साहित्यकारों ने कुछ ऐसा ही सोचा और माना था पर प्रश्न उठा कर छोड़ देने से भी बात कुछ बनी नहीं तब लेखक ने प्रश्न पर निजी उत्तर देते हुए अनेक अन्य उत्तरों अर्थात् चिंतन दिशाओं के द्वार भी संभावना के तौर पर पाठकों के सामने खुले छोड़ने प्रारंभ कर दिए। आज साहित्यकारों के इन्हीं निजी उत्तरों में राजनैतिक मतों और विशेष सामाजिक संदभ… की छायाएँ उतरती दिखाई देती हैं, जिनकी कुछ चर्चा मैंने पिछले लेख में की थी।
द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद से विश्व में मनुष्यता के प्रति अविश्वास और जीवन की अनिश्चितता के अहसास ने अनेक नए दर्शनों और चिंतन दृष्टियों को जन्म दिया था। हिन्दी साहित्य में भी इन चिंतन दृष्टियों को अनेक कृतियों जैसे "अंधायुग"(धर्मवीर भारती), शेखर: एक जीवनी (अज्ञेय) और जैनेन्द्र कुमार आदि अनेक साहित्यकारों की रचनाओं में देखा जा सकता है। सन सैंतालीस के बंटवारे ने मनुष्य के भीतर की पशुता का जो नग्न रूप दिखाया, उसने साहित्य और साहित्यकारों को "आदर्शवाद" के "युटोपिया" से पुरी तरह बाहर लाकर पटक दिया। यशपाल के "झूठा-सच" उपन्यास ने साहित्य के उद्देश्य को एक नया आयाम दिया - वह था सच का बिना डरे, ज्यों का त्यों उद्घाटन करना और जीवनी शक्ति, संघर्षों और पीड़ा के थपेड़े खा कर भी बची हुई जीवनी शक्ति की स्थापना करना। सच ही तो है, जब साहित्य समाज का दर्पण माना जाता है, समाज का हित करनेवाला कहा जाता है, तब समाज में राजनेताओं के स्वार्थ पूर्ण निर्णयों और समाज में उन निर्णयों के प्रतिफल द्वारा उत्पन्न विषैली स्थितियों को पाठकों के सामने लाना भी साहित्यकार का ही काम है।
यही "सच" बहुत ही धारदार, विश्लेषणात्मक दृष्टि के साथ बोला है। तसलीमा नसरीन (बंगलादेश की लेखिका) के उपन्यास "लज्जा" ने, जिसे वहाँ की सरकार ने इस्लामविरोधी या कहें शासक विरोधी भी बता कर ज़ब्त कर लिया था। "लज्जा" उपन्यास में बंगलादेशी हिन्दुओं पर वहाँ के कट्टरपंथी मुसलमानों द्वारा ढाये गए अत्याचारों का तथ्यात्मक वर्णन है। यहाँ उपन्यास की विधा रिपोर्टिंग का भी काम करती है और संविधान के नियम-अधिनियम बताने वाली राजनैतिक शास्त्र की पुस्तक का काम भी करती है। "लज्जा" उपन्यास की शक्ति, उसके द्वारा कहे सत्य की मार्मिकता में है, कठोर तथ्यों को बेधड़क हो प्रस्तुत करने में है। यशपाल और तसलीमा नसरीन, और उनके ही जैसे सत्य को धारदार रूप में निर्भीकता से प्रस्तुत करने वाले साहित्यकारों ने साहित्य के उद्देश्य को एक नया ठोस आयाम दिया है, जिसके चलते यह लगने लगा है कि अपने देश और संसार में जो उथल-पुथल मची है, मनुष्यता और जीवन दोनों को ही दांव पर लगा कर आँतकवादी शक्तियाँ जो कुछ कर रही हैं, उसको बिना किसी चिंतन और दर्शन का मुलम्मा (कोटिंग) चढ़ाए हुए ही प्रस्तुत करना चाहिए ताकि जो कुछ सामने और राजनेताओं के मन और दफ़़्तरों में चल रहा है उसे सामने लाकर, जनता को भ्रमित होने से बचाया जाए।
ग्याहर सिंतबर, 2001 के आतंकवादी हादसे और तदुपरान्त अफ़गानिस्तान और ईराक़ में अमरीकी सैनिकों द्वारा आतंकवादियों की खोज और धर-पकड़ की लड़ाई ने, इक्कीसवीं सदी को ऐसे अनेक पैने चुभनेवाले प्रश्नों के सामने ला खड़ा किया है। प्रश्न यह है कि साम्प्रदायिक दंगों और आतंकवादी हमलों में किसी भी धर्म और उस धर्म से जुड़े समाज की क्या भूमिका होती है? प्रश्न यह है कि विभिन्न धर्मों के जागरूक प्रतिनिधि एक व्यापक सामाजिक समझ का वातावरण कैसे पैदा करें? क्या ऐसा करने से पहले उन्हें तालिबान और उनके कर्मानुलम्बियों, उनके कार्यों को समर्थन और सहानुभुति देनेवाले समाज को भी कुछ समझाने का काम करना होगा या नहीं।
सन् 2001 और अब युद्ध और आंतक की घटनाओं के बीच साहित्य और साहित्यकार को पुन: एक नयी करवट लेनी होगी, जाग कर वास्तविकता की चौंध को, आँखों पर सुरक्षा का कोई हाथ लगाए बिना ही देखना होगा। यह सच है कि मनुष्य जीवन इन घटनाओं के बाद, पहले जैसा नहीं रह गया है। हादसों की आशंकाओं से काँपते हृदयों में भविष्य की कोई तस्वीर साफ नहीं है। आम आदमी विभिन्न सरकारों द्वारा किए जाने वाले कड़े सुरक्षा प्रबन्धों से उत्पन्न झंझटों की चिड़चिड़ाहट और आतंकवादियों द्वारा इन सुरक्षा प्रबन्धों के बीच से, बचकर निकल आने और असुरक्षा फैलाए जाने के डर के बीच झूल रहा है। यह जीवन की त्रासदी ही तो है। प्रश्न यह है कि साहित्य जो समाज का ’दपर्ण’ और समाज को दिशा देने वाला कहा जाता है, वह इस त्रासदीपूर्ण समय में, इस त्रासदी को विश्लेषणात्मक स्तर पर प्रस्तुत करते हुए, भविष्य की दिशा कैसे बताए?
साहित्यकार यह विश्लेषण अपनी रचनाओं में तो प्रस्तुत करते ही हैं जैसे डा. अंजना संधीर की यह कविता "वर्ल्ड ट्रेड सेन्टर" को याद करती है--
"सब ने मिलकर
ग्राऊँड जीरो पर
लगाया है क्रिसमस ट्री
- - - - -
21 हज़ार खिड़कियों वाले इस वर्ल्ड ट्रेड सेंटर की जगह
आज लगाया ये यादों से लिपटा पेड़
- - - - -
तुम ढह गए हो आज पर मर नहीं सकते
हमारी यादों में वैसे ही ज़िंदा हो तुम
ओ वर्ल्ड ट्रेड सेंटर
(वैसे ही ज़िन्दा हो तुम)
राजेन्द्र तिवारी अपने शेर में लिखते हैं--
"ये अभी बच्चे हैं अपनी काट लेंगे उँगलियाँ
इनके हाथों में खिलौने दो इन्हें खंजर न दो"
समय चाहे सैंतलीस का हो, सन् 71 के हमले का, इंदिरा गांधी द्वारा लगाई गयी आपात्तकालीन स्थिति का, पंजाब, कश्मीर में हुए नरसंहार का, बाबरी मस्जिद ढहाने पर उत्पन्न संकट का या रेल के डिब्बे को सील कर लोगों को जलाने से उत्पन्न साम्प्रदायिक दंगों का या ईराक में युद्ध करते सिपाहियों का या साऊदी अरब में अकेले रिपोर्टर पॉल जॉनसन की निर्मम हत्या का--- हर बार, हर घटना, हर समय में मुष्य और मनुष्यता मरी है, मारी गई है और शेष रह गई है ज़िंदा रहने की तीखी चिंताएँ और धुंधला या लुप्तप्राय होता भविष्य!
यह दुख और चिंता से भरा सच है। विज्ञान और तकनीक की प्रगति, चिंतन और दर्शन के गहन मंथन और संवेदनशीलता के अतल में उतरने के बाद क्या हमें अपने बर्बर आदिम रूप में फिर आना होगा? क्या धर्म और सम्प्रदाय की रूढ़ियों से जिज्ञासु की स्वतंत्र सोच फिर बाधित होगी? ऐसे में साहित्यकार और बुद्धिजीवी क्या हाथ पर हाथ धरे ऐसे ही बैठे रहेंगे? क्या उनका स्थिति दर्शन कराना और सुरक्षित विश्व की शुभकामना करने से कुछ हो पाएगा? या फिर निराशा में डूबा मन यह गुनगुनाता प्रतिक्रियावाद की ओर मुड़ जाएगा
"जूझे, लड़े, थके और टूटे, अब वे जान गए होंगे।
उनका अमृत नहीं मिलेगा, चले हलाहल ढूँढे हम।।
(डा. गोविंद व्यास- "दो पल")
मुझे ’कामायनी’ का मनु और श्री जयशंकर प्रसाद की अपनी पंक्तियाँ ध्यान आ रही हैं जहाँ ज्ञान और दर्शन-चिंतन को कर्म से जोड़ने की बात कही गई है या कहें कि उनके पृथक रहने पर पूर्णता न पहुँच पाने का दुख है-
"ज्ञान दूर कुछ किया भिन्न है इच्छा क्यों पूरी हो मन की
एक दूसरे से न मिल सके यहा विडंबना है जीवन की।"
प्राय: कहा जाता रहा है कि कलम, तलवार से अधिक शक्तिशाली होती है। इस कलम की शक्ति को जाँचने की परीक्षा पुन: आज के साहित्यकारों के सामने आ खड़ी हुई है।
जब रूस और फ्रांस की क्रान्ति में यह कलम बड़ी भूमिका निबाह सकती है, जब भारत-चीन युद्ध में ’दिनकर’ की कलम, रेडियो से गूँजती उनकी वाणी सिपाहियों के हाथ और मन में ऊर्जा भर सकती है तब आज के कठिन, दुरुह समय में भी यह कलम अपने स्वर की ऊर्जा से कुछ सकारात्मक काम कर सकती है, अभी यह मेरा विश्वास बाकी है। हाँ, यह सत्य है कि दिशाएँ आतंक के सघन अंधेरे में लुप्त हैं, हाँ यह सत्य है कि निराशा से अवसन्न पैर उठना नहीं चाहते पर यह भी सत्य है कि जीवन की दैनंदिन समस्याओं से जूझता आदमी अखबारों की खबरें पढ़ कर बहस करना नहीं भूलता। "क्या होगा", "कैसे होगा" की दीवारों में, उसकी सोच सूराखें करके अवरुद्ध भविष्य को खोजने में लगी हैं। जब मनुष्य नहीं हारा, जब समाज बहस के गर्म माहौल में दिशाएँ खोज रहा है तो साहित्यकार कैसे हार सकता है, थक कर बैठ सकता है?
आप सोच सकते हैं कि मैं भी आपकी तरह आशा और निराशा के मध्य झूल रही हूँ। सच ही है, युगचेता लेखकों और रचनात्मक प्रतिभाओं की हमारे समाज और भाषा में कमी नहीं- पर स्थितियों की विभीषिका में बिना "कम्युनल" हुए या प्रतिक्रियावादी बने, अपनी अस्मिता, अपने आत्मगर्व और सकारात्मकता को "सक्रिय" ढँग से साहित्यकर कैसे स्थापित करे - यह एक बड़ा प्रश्न है। बिना "सक्रिय" यानि व्यापकरूप से अपने होने और अपनी सोच को जताए बिना काम नहीं चलेगा। किसी एक देश के एक कोने, एक प्रांत में, एक बेहद सार्थक पुस्तक प्रकाशित होकर यदि लाख, हद से हद दो-तीन लाख लोगों द्वारा पढ़ भी ली जाती है तो उससे उसके बाद क्या होगा? यानि कि बात वही है लेखक को, आज के समय में, इससे अधिक सक्रिय होने की आवश्यकता है, व्यापक स्तर पर अपने फैलाने की आवश्यकता है और इसलिए "मिडिया" एक सशक्त माध्यम बनता जा रहा है।
एक असंभव संभावना, एक पागल इच्छा मेरे मन में सिर उठा रही है। "क्या ऐसा नहीं हो सकता कि विश्व के लेखक - साहित्यकार एक जुट होकर आज के आतंकवाद से भरे माहौल पर विचार करते हुए कुछ, दिशाएँ खोजें और इन दिशाओं का संधान करें अपने लेखन से? दुनिया के मजदूर और किसान एक जुट होकर क्रांति कर सकते हैं तो विश्व के चिन्तक, लेखक एक जुट होकर, नयी वैचारिक क्रांति और नयी स्वस्थ दिशा का संधान क्यों नहीं कर सकते? जब मुट्ठी भर आतंकवादी, बढ़ते-बढ़ते अपने आतंकवादी गिरोहों को चोरी छुपे सारी दुनिया में फैला सकते हैं तो हम अनेकानेक लेखक और विचारक, खुलेरूप से, मीडिया, विज्ञान और तकनीक का उपयोग कर, जन सामान्य की बुझती आशाओं में जीवन-शक्ति का तल डाल कर उसे उद्दीप्त नहीं कर सकते?
आज जब समय कठिन है तो साहित्य का उद्देश्य भी महत् और संश्लिष्ट है और इस महत्-संश्लिष्ट उद्देश्य की पूर्ति कैसे की जाए - इस पर विचार बहस होना बहुत ज़रूरी है।
इतना तो निश्चित है कि साहित्य को ’यादों’, ’निराशाओं ’और ’दार्शनिक लहज़ों’ से निकल कर सीधी चोट करनी होगी बुराई, आतंक, भ्रष्ट व्यवस्था और रूप बदल कर बैठी साम्प्रदायिकता पर और सकारात्मकता और जीवन की स्थापना, उसका जयघोष फिर करना होगा।
--- क्रमश:
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