अंतिम अरण्य के बहाने निर्मल वर्मा के साहित्य पर एक दृष्टि
आलेख | साहित्यिक आलेख डॉ. शैलजा सक्सेना23 Feb 2019
निर्मल वर्मा नहीं रहे, यह समाचार निर्मल जी तथा हिन्दी साहित्य से जुड़े सभी लोगों को हिला देने वाला है। यूँ आयु का अपना गणित होता है और विधाता का अपना एक संविधान पर निर्मल जी जैसे महान साहित्यकार चाहे किसी भी नियम-विधान के आधीन हो कर इस दुनिया से नाता तोड़ें, उनके जाने से साहित्य की, साहित्य प्रेमियों की जो शाश्वत हानि हुई है उसकी पूर्ति होना असंभव है। जैसे दूसरे प्रेमचंद नहीं हु़ए, दूसरे ’अज्ञेय’ नहीं हुए, दूसरे जैनेन्द्र नहीं हुए वैसे ही अब दूसरे निर्मल वर्मा नहीं होंगे। अब हमें उनकी आँखों से दुनिया को देखने का मौका नहीं मिलेगा, उनके शब्दों का जादुई कुहासा हमें अपने में ढँक नही लेगा, उनके शब्दों के सहारे शराब और बुखार का बदलता तापमान हमारे शरीर में खुलेगा नहीं, वह गहरा आत्मविवेचन हमें पढ़ने को नहीं मिलेगा जो आज के शोर भरे जीवन में दुर्लभ है। निर्मल वर्मा के जाने से हिन्दी गद्य-साहित्य का एक युग समाप्त हो गया, इसमें कोई संदेह नहीं।।"
निर्मल वर्मा ने अनेक कहानियाँ, उपन्यास, यात्रा वृतांत, संस्मरण आदि लिखे हैं। उनकी प्रकाशित पुस्तकें हैं:
उपन्यास : वे दिन (1964),लाल टीन की छत (1974),एक चिथड़ा सुख (1979) रात का रिपोर्टर(1989), अंतिम अरण्य (2000)
कहानी संग्रह : परिंदे (1959),जलती झाड़ी (1965) पिछली गर्मियों में (1968), बीच बहस में(1973, मेरी प्रिय कहानियाँ (1973), प्रतिनिधि कहानियाँ (1988), कव्वे और काला पानी (1983), सूखा तथा अन्य कहानियाँ (1995) संपूर्ण कहानियाँ (2005)
यात्रा-संस्मरण व डायरी : चीड़ों पर चाँदनी (1963), हर बारिश में (1970) धुँध से उठती धुन (1977)
निबंध : शब्द और स्मृति (1976) कला का जोखिम (1981) ढलान से उतरते हुए (1985) भारत और यूरोप : प्रतिश्रुति के क्षेत्र (1991) इतिहास स्मृति आकांक्षा (1991) शताब्दी के ढलते वर्षों में (1995) आदि, अन्त और आरम्भ (2001)
नाटक : तीन एकान्त (1976)
संचयन : दूसरी दुनिया (1978)-परिवर्द्धित नया संस्करण (2005)
अनुवाद : कुप्रिन की कहानियाँ (1955) रोमियो जूलियट और अँधेरा ( 1962) झोंपड़ीवाले (1966) बाहर और परे (1967) बचपन (1970) आर यू आर
(1972) प्राग-वर्ष, टिकट-संग्रह( 2002)
"अंतिम अरण्य" सन` 2000 में प्रकाशित निर्मल वर्मा का अंतिम उपन्यास है। यह उपन्यास उन के अन्य उपन्यासों के समान होते हुए भी कहीं उनसे भिन्न है। निर्मल वर्मा के सभी उपन्यास मानव संवेदना के उस अतल को छूते हैं जहाँ अनेक ज्वालामुखी सोते हैं। एक हल्का धुआँ कुहासे की तरह उठता रहता है जो संवेदना से भरे मन के होने का पता देता है पर ये ज्वालामुखी फूटते नहीं हैं और बाहर की बजाय भीतर की तरफ खुलते हैं, अपने ही मन की पर्तें खोलते हुए पाठक को "विचार" के अनजाने तल पर ले जाकर छोड़ देते हैं अपनी-अपनी विचार- यात्रा करने के लिये।
"अंतिम अरण्य" भी पाठक को सोच की ऐसी यात्रा पर ले जाता है जो मेहरा साहब की जीवन की अंतिम यात्रा के रूप में है। निर्मल वर्मा ने यह उपन्यास प्रथम पुरुष में लिखा है। लेखक कहानी के पात्रों के बीच रहता है "मैं" बन कर, कहानी वही सुना रहा है, स्थितियों और चरित्रों पर टिप्पणी दे रहा है । निर्मल वर्मा अपने उपन्यास अधिकतर इस "मैं" के माध्यम से ही जीते हैं। "अंतिम अरण्य"में लेखक उपन्यास के पात्र के माध्यम से ही कहानी में आया है। उसे मेहरा साहब की पत्नी ने विज्ञापन दे कर बुलाया है ताकि वह मेहरा साहब के जीवन के बारे में, उनकी यादों को ब्यौराबद्ध कर सके। लेखक उस छोटे से शहर में अपने जीवन से बच कर दूसरों के जीवन में शामिल हो जाता है, मेहरा साहब, उनकी पत्नी, उनकी बेटी, अन्नाजी, डा सिंह, निरंजन बाबू, मुरलीधर ..सबके जीवन के अतीत और वर्तमान में गुँथ जाता है। यहाँ पहाड़ की निस्तब्धता में प्रत्येक का जीवन मानो संसार के शोर से बच कर आत्मविलोचन में लीन है। सब पात्र अपने भीतरी और बाहरी संसार के बीच में कहीं टँगे दिखते हैं। निर्मल वर्मा के उपन्यासों में यह बाहरी संसार उतना सक्षम और विराट रूप में नहीं दिखाई देता जैसा कि अन्य लेखकों की रचनाओं में दिखाई देता है। कई समाजवादी-मार्क्सवादी आलोचक इस बात से नाराज़ रहे होंगे। निर्मल वर्मा के उपन्यासों में यह संसार अपनी सच्चाई के साथ केवल उपस्थित रहता है, यानि उसका होना केवल संदर्भवश है, पात्र समाज में ही रहते हैं, समाज के दिये सुख-दुख, अभाव-भाव को अन्य प्राणियों के समान सहते हैं पर यह समाज इतना ताकतवर नहीं हो पाता कि वह पात्रों को तोड़े या बनाए या बदले। इन उपन्यासों में आपसी रिश्ते, संबंध अधिक ताकतवर होते हैं और वही पात्र को संजोते और बिखराते हैं।
निर्मल वर्मा की लेखन शैली की यह विशेषता है कि वह कहानी नही बल्कि दृश्य और वातावरण प्रस्तुत करते हैं। इन दृश्यों में भी, वह दृश्य की ऊपरी तह तोड़, केवल दृश्य के भीतर ही नहीं पैठते हैं बल्कि उस दृश्य को उसकी भीतर और बाहरी विशेषताओं समेत पूरी समग्रता के साथ ईमानदारी से प्रस्तुत कर देते हैं। "अंतिम अरण्य" में भी कहानी या घटनाएँ कम और दृश्य अधिक हैं, इन दृश्यों की पर्तें हैं जो उपन्यास के कथानक के आगे बढ़ने के साथ-साथ उधड़ती हैं और उपन्यास के चरित्रों के भीतर का पूरा एक संसार खड़ा कर देती हैं। एक और बात ध्यान देने की है कि निर्मल जी के उपन्यासों में चरित्रों का "उपन्यासों की परम्परा के अनुसार" विकास नहीं होता है यानि "प्रारंभ, मध्य और चरम" की अवस्थाएँ नहीं आती हैं। पात्र कथानक के उतार-चढ़ाव और तनाव के बीच अपनी विभिन्न प्रतिक्रियाओं को व्यक्त करता हुआ, हमारे सामने खुलता जाता है यानि चरित्र विकास की ऊर्ध्वोन्मुखी यात्रा करने की अपेक्षा, कथानक के समांनांतर एक आत्मोन्मुखी यात्रा करते हैं, एक ऐसी यात्रा जो उपन्यास की कहानी समाप्त हो जाने के बाद भी समाप्त नहीं होती ।
निर्मल वर्मा के उपन्यासों में सब कुछ मन की भूमि पर सार्थक बनने की चेष्टा करता हुआ दिखाई देता है। प्रकृति इस उपन्यास में भी उनके अन्य उपन्यासों की तरह पात्रों की मन:स्थिति को बाहरी कैनवास पर "री क्रियेट" करने का काम कर रही है, मतलब यह कि अन्य लेखकों से बिल्कुल अलग हटकर निर्मल वर्मा प्रकृति (बाहर) द्वारा पात्रों को प्रभावित होते हुए नही िखाते बल्कि पात्रो की मनःस्थिति से प्रकृति प्रभावित होते हुए दिखाते हैं जैसा कि इस उपन्यास में भी है।
"अंतिम अरण्य" तीन भागों में बँटा हुआ है। पहले भाग में कहानी का प्रारंभ लेखक द्वारा पहाड़ में बसे उस छोटे से शहर में पहुँचने से होता है। दूसरे दृश्य में मेहरा साहब बहुत बीमार हो जाते हैं और तीसरे दृश्य से पूर्व उनकी मृत्यु हो जाती है पर कहानी यहाँ समाप्त नहीं होती, लेखक मेहरा साहब के फूल लेकर नदी में अर्पित करने जाता है और पक्षियों को तर्पण का भोजन खिलाता है। मृत्यु और जीवन की विवेचना की तरह जो घटना वहाँ घटती है वह उपन्यास के उपसंहार के रूप में है। निर्मल वर्मा तर्पण के भोजन को खाने आए गिद्धों के बारे में लिखते हैं "आप सोचते हैं, ये अपनी भूख मिटाने आए हैं..वे उन तृष्णाओं को चुगने आते हैं, जो लोग पीछे छोड़ जाते हैं। ये न आते, तो जिन्हें आप साथ लाए हैं..उनकी प्रेतात्मा भूखी-प्यासी भटकती रहती...आप क्या सोचते हैं-देह के जलने के बाद मन भी मर जाता है? आपको मालूम नहीं, कितना कुछ पीछे छूट जाता है। आप सौभाग्यवान हैं कि मैंने बुलाया और ये आ गए..कभी-कभी तो लोग घंटों बाट जोहते रहते हैं और ये कहीं दिखाई नहीं देते।"
इस उपन्यास में मृत्यु की प्रतीक्षा में जीवन का और मृत्यु के बाद तर्पण के माध्यम से जीव का दुर्लभ विवेचन देखने को मिलता है।
श्रीलाल शुक्ल इस उपन्यास के विषय में लिखते हैं "निश्चय ही, बाहर से शान्त और तटस्थ सी दीखती हुई यह कुछ विलक्षण दुनिया है। या निर्मल यह लक्षित करा रहे हैं कि लोगों के भीतर गहनता से प्रवेश करने की प्रवृति हो तो दुनिया का सहज से सहज दीखने वाला कोना भी विलक्षण लगेगा?"
यह उपन्यास विषय-वस्तु में यह निर्मल जी के अन्य उपन्यासों से बहुत हट कर है परन्तु इसकी शैली ठेठ वही है, उनके अन्य उपन्यासों जैसी। एक हैरानी होती है कि क्या यह उपन्यास लेखक की जाने की "निजी" तैयारी का परिचय नहीं देता..जीते हुए मृत्यु को खोल देखने का यह प्रयास... निर्मल वर्मा ही कर सकते हैं। ऐसी चेष्टा सार्थक जीवन जीने वाले मनुष्य करते हैं...और इसमें कोई संदेह नहीं कि साहित्यकार निर्मल वर्मा ने बहुत सक्षम, सफल जीवन जिया और हिन्दी को बहुत ही सार्थक और अमूल्य साहित्य प्रदान किया।
साहित्यकार निर्मल वर्मा को हमारा शत-शत प्रणाम!!!
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