प्रतीक्षा
काव्य साहित्य | कविता डॉ. शैलजा सक्सेना21 Feb 2019
मन की बगिया भरी-भरी, घर का चौबारा सूना
साँझ ढले यह निविड़ अकेलापन हो जाता दूना।
दस्तक की थापों से वँचित, दरवाज़ा भी देख रहा
उम्र बीतती पतझड़ जैसी, ठूँठ सरीखे सा रहना।
स्मृतियों के जँगल में मैं, कब से यूँ ही भटक रही
सूँघ रही हूँ हर घटना के, पत्तों में तेरा होना।
तेरे उस मधुर हास्य को, फिर से सुन मन भरने को
चलते-चलते बीच राह में ठिठक अचानक ही थमना।
बीते दिन उलझी बातों को, अपनी अँगुली से सुलझा
सुख से पल जो बीते अपने, जीने की फिर इच्छा करना।
कैसी बाल-सुलभ ये बातें, फिर भी मन की ज़िद आगे
प्रियतम तुम ही लिख भेजो, मुझको है अब क्या करना।।
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