अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

एक अमेरिका यह भी


समीक्षित पुस्तक: सितारों में सूराख़ (उपन्यास)
लेखिका: अनिलप्रभा कुमार
प्रकाशक: भावना प्रकाशन
मूल्य: 195.00

’सितारों में सूराख़’ एक संवेदनशील और अभिव्यक्ति में सिद्धहस्त लेखिका—अनिलप्रभा कुमार जी का पहला उपन्यास है। समय और वातावरण को चित्र और ध्वनि से सहज साकार करने में समर्थ उनकी कहानियाँ पाठकों के मन में अपना स्थान बना चुकी हैं इसीलिए सहज ही उनके इस पहले उपन्यास के प्रकाशन के समाचार का हिन्दी साहित्य प्रेमियों के बीच उत्साह से स्वागत हुआ है। 

इस उपन्यास को पढ़ना अमेरिका के एक ऐसे रूप से गुज़रना है जिसके बारे में प्राय: सोचा नहीं जाता। इस उपन्यास का आधार सच है। इस सच के दुष्प्रभाव से लड़ने के लिए उठे आंदोलन भी सच हैं। सच पर कल्पनात्मक कहानी लिखना सरल नहीं होता। सामाजिक/ ऐतिहासिक घटनाओं पर लिखना लेखन कौशल की एक बड़ी परीक्षा होती है जिसमें लेखक को एक कठोर सच के अंगारों की पोटली लेकर पाठकों तक ऐसे पहुँचना होता है कि रास्ते में भावनाओं से असंतुलित होकर वह अपने हाथ जलाए नहीं पर पाठक उसके ताप को महसूस करें, उसके प्रकाश में जीवन के भयावह सच को देखे। १५२ पृष्ठों और ३२ उप-शीर्षकों के इस उपन्यास की छोटी सी नाव में अमेरिकी समाज की एक महासागर जैसी कठिन समस्या को पार करने के लिए अनिलप्रभा जी ने कितनी साधना की होगी, पाठक इसे पढ़ने के बाद ही समझ सकता है। 

अनेक प्रवासी भारतीयों की तरह जय भी अपनी पत्नी जसलीन-जैस्सी और बेटी चिन्मया—चिन्नी के साथ अपने सपनों के आकाश में सफलताओं के सितारे टाँकने में सफल रहता है। न्यूयार्क के प्रसिद्ध शहर मैनहैट्टन में रहते हुए, ब्रॉडकास्टिंग के क्षेत्र में समाचार पढ़ते, जाँचते, खोजते और प्रसारित करते वह सनसनीख़ेज़ ख़बरों का आदी है। बंदूक, हत्या, ख़ून से लिथड़े समाचार उसे झकझोरते नहीं हैं मात्र सरसराते हुए उसकी आँखों के सामने से निकल जाते हैं। लाखों, करोड़ों लोगों की तरह वह भी इन बातों में पड़े बिना, डॉलर कमाता, खाता, पीता, पत्नी और बेटी को अपनी तर्जनी के रौब में रखने वाला पुरुष है पर यह सब उपन्यास के प्रारंभ में ही बदल जाता है जब रात की शिफ़्ट से आते समय सब-वे स्टेशन पर उसकी कनपटी पर बंदूक रख कर उसे लूट लिया जाता है। शारीरिक रूप से उसे कोई हानि नहीं पहुँचती पर मानसिक रूप से बंदूक के ठंडेपन के नीचे, तनाव में उबलते ख़ून की गर्मी उसे बेचैन कर देती है। अपने सहकर्मियों से केवल काम पर होने वाली औपचारिक मित्रता के परदे के पीछे जा कर वह जॉन से बंदूकों के बारे में जानता है, उसके जीवन के कड़वे सच से भीगता है और अंतत: अपनी और परिवार की सुरक्षा के लिए एक छोटी सी बंदूक ख़रीदता है। 

१४ फरवरी को चिन्नी के स्कूल में घुसकर कोई १७ बच्चों को मार देता है। चिन्नी की कक्षा के कुछ बच्चे भी मारे जाते हैं और उन्हीं सत्रह बच्चों में समर ख़ान भी मारा जाता है जो चिन्नी की युवा होती दुनिया का घनिष्ठतम मित्र है, जो उसकी ’प्रॉम डेट’ है, जो सुबह ही उसे सफ़ेद भालू पर लाल सुर्ख़ रंग का बना दिल वाला तोहफ़ा देता है। इस पाकिस्तानी लड़के को देखकर जय के सामने पाकिस्तान विभाजन के बाद अपनी दादी के जीवन भर की विक्षिप्तता साकार हो जाती है जो अपने सामने ही अपने छोटे भाई की हत्या को कभी भूल नहीं पातीं। वे इस दोस्ती के ख़िलाफ़ हैं जो चिन्नी की समझ से बाहर है। 

कहानी इस द्वंद्वात्मक पृष्ठभूमि को छू ही रही थी कि समर के उन मारे गए सत्रह बच्चों में से एक होने पर पैदा हुए दुख, आक्रोश, चिंता, आशंका और रिक्तता में इस हँसते-बोलते परिवार की बहस, बातचीत और सुख भी मर जाता है। यह रिक्तता एक कुँआ है जिसमें हहरा कर उठती चीखॆं और आँसुओं से लबालब भरी आँखें हैं जिसके धुँधलेपन में मानों सब लोग रास्ता खो देते हैं। 

इन सबके बीच जसलीन अपनी बेटी के दुख में अँधेरे में डूबी हाथ-पाँव मारती एक ऐसी मुहिम के किनारे आ निकलती है जो उन माँओं ने स्थापित की है जिनके बच्चे ऐसी अनर्गल हत्या कांडों के शिकार हुए हैं या साक्षी हुए हैं। वे अमेरिका के ’गन-लॉ’ को बदलना चाहती हैं, भाषण देती हैं, मोर्चे निकालने की तैयारी कर रही हैं। वे लोगों के बंदूक रखने को ग़लत बताते हुए इसकी बिक्री और ख़रीद को बंद करना चाहती हैं। चिन्नी को दुख और भविष्य की आशंकाओं से निकालने का एक मात्र सहारा मान जैस्सी इस रास्ते चल पड़ती है। जय तभी उसे अपनी बंदूक के बारे में बताता है। प्रवासियों के ’अपने काम से काम रखने और इनके पचड़ों में न पड़ने’ जैसे जीवन-दर्शन को दोहराता है पर जैस्सी के सामने चिन्नी और उस जैसे बच्चे हैं, माँ के रूप में अपने इन बच्चों को बचाने की हर सम्भव चेष्टा से वह पीछे नहीं हटने वाली। संबंधों में दरार, घर में चुप्पी, मन में चिंता पसर कर उन्हें अजनबी बनाने लगती है। 

चिन्नी भी बच्चों की ’नैवर अगेन’ जैसे आंदोलन से जुड़ती है और वे वाशिंगटन डी.सी. में प्रदर्शन के लिए जाते हैं। जैस्सी सोचती है कि काश जय भी साथ होता और अंतत: जय भी अपनी और अपने दोस्त की दी हुई बंदूक के बक्से को पूरी तरह नष्ट करके वाशिंगटन में ’नैवर अगेन’ कहता हुआ साथ मिल जाता है। समस्या को समाधान का एक रास्ता मिलता है, जीवन को एक बृहत्तर उद्देश्य, प्रवासी जीवन को अपनाए गए देश के साथ तादात्म्य और चिन्नी और जैस्सी को दु:ख के कुँए से बाहर निकलने के लिए एक रस्सी। 

उपन्यास प्रश्न उठाता है कि इस दुनिया में शक्तिशाली कहे जाने वाला देश अमेरिका अपने बच्चों और निर्दोष लोगों को अचानक हुई इन हत्याओं से नहीं बचा पा रहा, क्यों? उसका उत्तर वह बंदूक निर्माताओं और विक्रेताओं की राजनैतिक लॉबी के साथ-साथ इतिहास में बंदूक के बल पर ज़मीन हड़पने के संस्कार और पुरुषत्व की अवधारणाओं को समझती हैं। 

इस उपन्यास में प्रवासियों की अपनी स्थितियों के प्रति ’तटस्थ’ बने रहने, अपने-अपने छोटे-छोटे भारत बनाए रखने की मानसिकता को दिखाया गया है तो ऊपर से दृढ़ और बेपरवाह दिखने वाले अमेरिकी लोगों के भीतर के गहरे दर्द को भी संवेदना की निष्पक्ष आँखों से देखा गया है। बच्चे के मरने पर माता-पिताओं का बिलखना, सहपाठियों का ’हम क्यों जीवित रह गए’ की ग्लानि, जैस्सी की दृढ़ता के सर्प का फन उठाना, जय का बंदूक की नोक पर लूट लिए के बाद शक्तिहीन और गहरी असुरक्षा से घिरना . . . आदि अनेक स्थितियाँ हैं जो पाठक को जीवन के कड़वे सच की कंक्रीट पर लाकर बुरी तरह पटक देती हैं। 

यह लेखिका की अभिव्यक्ति सामर्थ्य है कि संवेदनशील पाठक उनके शब्दों, छोटे वाक्यों के बीच उठता, गिरता, रोता, उबरता चलता है। केवल समस्या देकर छोड़ देना लेखिका का उद्देश्य नहीं है। वे एक सक्षम समाधान से उसे जोड़ती हैं इस तरह यह उपन्यास करुणा से ओज की यात्रा कराता है। अनिलप्रभा जी के लेखन में एक सरलता है जो जीवन की कठिनता के बीच अनेक उपमानों, काव्यात्मक शब्दों के बीच से फूटी पड़ती है और यही पाठकों को पात्रों की संवेदना तक पहुँचा देती है। 

यह कोई विमर्श पैदा करने वाला सनसनीखेज़ उपन्यास नहीं बल्कि चिंता से लेकर चिंतन की गहरी रेखाओं के बीच चलने वाली छटपटाहट की कहानी है। मुझे पूरा विश्वास है कि उनका यह उपन्यास हम सब के भीतर वैचारिक संवेदना को जगाने और मनुष्यता को जिलाए रखने का कार्य करेगा। 

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

लघुकथा

साहित्यिक आलेख

हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी

कविता

पुस्तक समीक्षा

पुस्तक चर्चा

नज़्म

कहानी

कविता - हाइकु

कविता-मुक्तक

स्मृति लेख

विडियो

ऑडियो

उपलब्ध नहीं

लेखक की पुस्तकें

  1. क्या तुमको भी ऐसा लगा