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इसी बहाने से - 11 मेपल तले, कविता पले-1 (कनाडा में हिन्दी-3)

इसी बहाने से -

(कनाडा के मुख्य कवि और कवितायें)

पिछले लेख में मैंने कनाडा में हिन्दी साहित्य के प्रारंभ और विकास के विषय में कुछ तथ्य प्रस्तुत किये थे और अनेक रचनाकारों के नाम और उनकी प्रकाशित पुस्तकों के नाम संक्षेप में लिखॆ थे। प्रस्तुत लेख में और इस के बाद के कुछ लेखों में मैं इन रचनाकारों की रचनाओं पर विस्तार से प्रकाश डालने की चेष्टा करूँगी ताकि विदेशों में बसे हिन्दी साहित्यकारों को जानने की इच्छा रखने वाले जिज्ञासुओं को इन रचनाकारों के रचनाकर्म और रचनात्मक प्रतिभा का पता चल सके।

सर्वप्रथम मैं कनाडा, ट्रिनिडाड और अमरीका में रहने वाले और हर जगह हिन्दी साहित्य लेखन को प्रोत्साहन देने वाले, मुक्त रचनाओं से लेकर महाकाव्यों की रचना करने वाले प्रो. हरिशंकर "आदेश" जी के साहित्य पर चर्चा करना चाहूँगी।

प्रो. हरिशंकर "आदेश" की रचनाओं पर कुछ विचार:

प्रो. "आदेश" बहुमुखी प्रतिभा के व्यक्ति हैं। उन्हें अपने लेखन और भाषा के प्रचार-प्रसार के लिये अनेक सम्मान मिल चुके हैं जैसे: प्रवासी भारत रत्न, प्रवासी हिन्दी भूषण, विश्व तुलसी सम्मान, मानस मनीषी, सुगन्धरा(संगीत), हमिंग बर्ड मैडल गोल्ड नैशनल एवार्ड (रिपब्लिक ऑफ़ ट्रिनीडाड एण्ड टोबेगो) वर्ल्ड लौरेयट (यू.एस.ए.), लिविंग लेजण्ड ऑफ़ 21स्ट सेंचुरी (यू.के.), इन्टरनैशनल पीस प्राईज़ (यू.एस.ए.) इत्यादि। इसके अतिरिक्त उन्हें अपने लेखन के लिये भारत के राष्ट्रपति द्वारा पहला "सत्यनारायण मोटुरि पुरस्कार"(२००२) भी प्राप्त हो चुका है।

ज्योतिष, संगीत और कविता सब पर उनका समान अधिकार है पर कविता उनकी अभिव्यक्ति का प्रिय माध्यम है। वे कहते हैं कि "कविता उनका जीवन है" और यह बात सत्य ही है। उनके पाँच महाकाव्य और अनेक काव्यसंग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। प्रो. आदेश ने दो सौ पचास से अधिक पुस्तकें लिखी हैं। उनकी प्रकाशित पुस्तकों का कुछ विवरण इस प्रकार है:

महाकाव्य:

अनुराग, शकुन्तला, महारानी दमयन्ती, निर्वाण, और राम कथा पर आधारित महाकाव्य
मुक्तक एवं खण्ड काव्य:

मनोव्यथा, निराशा, रवि की भाभी (हास्य-वयंग्य), मन की दरारें, लहू और सिंदूर, आकाश गंगा, रजनीगंधा, प्रवासी की पाती भारत माता के नाम, निर्मल सप्तशती आदि छै सप्तशती, गीत रामायण, शतदल, शरद:शतम्‌ आदि
कथा साहित्य:

रजत जयन्ती, निशा की बाहें, सागर और सरिता आदि
नाटक:

देशभक्ति, सूरदास, निषाद कुमार, अशोक वाटिका, शबरी आदि
उपन्यास:

निष्कलंक, गुबार देखते रहे आदि
निबन्ध:

झीनी झीनी बीनी चदरिया, ज्योति पर्व आदि
उर्दू: 

शबाब, आज की रात, लम्हे आदि
बालकाव्य:

विहान, आओ बच्चों, वेणु, मगर चाचा चले ब्याह रचाने आदि
संगीत:

सरगम, षड्‌ज, ऋषभ, गंधार, मध्यम, पंचम, धैवत, निषाद, राग विवेक आदि

जब कोई कवि इतनी पुस्तकों की रचना कर लेता है तब उसके और उसके साहित्य के विषय में कहना और भी कठिन हो जाता है क्योंकि निर्णयात्मक रूप से कुछ भी कहने के लिए उनकी पुस्तकों का गंभीर अध्ययन आवश्यक है। यह अध्ययन इसलिये संभव नहीं हो पाया क्योंकि बहुत सी पुस्तकों की तो उन्हें एक या दो ही प्रतियाँ ही प्रकाशक द्वारा प्राप्त हुई हैं। ऐसे में उनके मित्रों और साहित्य प्रेमियों को ये पुस्तकें देखने-पढ़ने को नहीं मिल पाई हैं। यह समस्या विदेश में रहने वाले अनेक साहित्यकारों की है। ये लोग अनेक कारणों के चलते भारत से अपनी पुस्तकें मँगा नहीं पाते हैं ऐसे में उनके लेखन के विषय में पाठक जान ही नहीं पाते हैं। हिन्दी साहित्य के अनेक अच्छे लेखक इसी समस्या के कारण अपने पाठकों के सामने न आ पाये हों तो आश्चर्य नहीं।

प्रस्तुत लेख में मैं "आदेश" जी की कुछ पुस्तकों के संदर्भ में अपने विचार प्रस्तुत कर रही हूँ। ये पुस्तकें हैं : "प्रवासी की पाती भारत माता के नाम"; "मदिरालय"; "शरद: शतम"; "अनुराग" (महाकाव्य); "शकुन्तला" (महाकाव्य) और "महारानी दमयन्ती" (महाकाव्य)। इन ३ महाकाव्यों और ३ काव्य संकलनों में उनके प्रबुद्ध कवि-रूप के दर्शन हुए। सभी पुस्तकों के मूल भाव अलग-अलग हैं, केवल "शकुन्तला" और "दमयन्ती" में नारी के प्रति उनका संवेदनात्मक दृष्टिकोण प्रमुख रहा है पर उसमें भी कथा अलग होने के कारण भिन्न भाव दिखाई देते हैं।

"प्रवासी की पाती" में भारत प्रेम, राष्ट्रीयता की भावना, संस्कृति के प्रति गर्व, वर्तमान भारतीय समाज के भ्रष्टाचार के प्रति रोष, बहुत समय के बाद भारत जाने वाले प्रवासी का देश में हुये परिवर्तन के प्रति आश्चर्य दिखाई देता है। देश प्रेम का एक उदाहरण देखिये:

"जिसका नाम अमर है मित्रों वसुधा के इतिहास में।
बसा हुआ वह भारत, मेरी हर धड़कन, हर श्वांस में॥"

इस संग्रह की सारी कवितायें भारत की याद की कवितायें हैं पर उनमें केवल नॉस्टेलिजिया नहीं है, यथार्थ की समझ भी है। भारत के गौरव की प्राचीन गाथा को याद करना ही कवि का उद्देश्य नहीं है। आज के भारत की धूमिल छवि के कारणों की चर्चा करते हुए कवि "अमृतसुतों" के पौरुष को पुकारता हुआ, भारत की गरिमा की पुनर्प्रतिष्ठा का आह्वान करता है; एक उदाहरण देखॆं:

"आशा का संसार लिये, तुमको अनिमेष निहार रहा है।
अमृत-सुतों! जागो तुमको फिर भारत राष्ट्र पुकार रहा है।

आदि काल से देश तुम्हारा और तुम्हारा ही हो शोषण।
नाम तुम्हारा, धाम तुम्हारा पर न तुम्हारा ही हो पोषण॥
अधर सिले क्यों? हाथ बँधे क्यों? शीश झुका क्यों? अपने गृह में?
आज तुम्हारे अतीत का गौरव तुमको ललकार रहा है॥"
                                                     ("भारत राष्ट्र पुकार रहा है", पृष्ठ ३१)

प्राय: भारत के लोग विदेश में जा बसने वाले भारतीयों पर पैसों के लालच में देश त्यागने का आरोप लगा कर व्यंग्य किया करते हैं। भारत के बाहर रहने वाले हम सब भारतीय यह जानते हैं कि यह बात किंचित सत्य भी हो तो भी विदेश में दिन-रात परिश्रम कर के अपना और भारत में रह रहे अपने परिवार को सँभालने का काम करते ये भारतीय अपनी भारतीय संस्कृति को बचाये रखने की जी-जान से चेष्टा करते हैं। लेकिन भारत से दूर एक और भारत बना लेने की इनकी चेष्टाओं की सराहना नहीं होती, केवल व्यंग्य मिलता है और वह भी उन अपनों से जो अपने देश में ही अपनी संस्कृति को भूले बैठे होते हैं। इस संदर्भ में "आदेश" जी लिखते हैं:

"हम को कहो न अवसरवादी,
हम भी भारत की संतान॥
X X X
भारत के सांस्कृतिक-दूत हम,
भारत के वाणिज्य-दूत हम।
सच्चे राजदूत भारत के,
भारत के सच्चे सपूत हम।

जितनी आस्था हम रखते हैं,
रखे न पूरा हिन्दुस्तान॥" ("अवसरवादी", पृष्ठ ५७)

इस संग्रह की हर कविता यह विश्वास दिलाती है कि लेखक चाहे अनेक वर्षों से भारत से बाहर रहा है पर भारत की संस्कृति और मूल्य-संस्कार उसकी हर धड़कन में बसे हुये हैं। यह काव्य-संग्रह हर संवेदनशील प्रवासी की भावना को पूरी गहराई और सच्चाई से प्रस्तुत करता है।

उनके जिस दूसरे काव्य संग्रह पर मैं चर्चा करना चाहूँगी, उसका नाम है: "मदिरालय"। इस काव्य संग्रह की यह विशेषता है कि इसमें सात लघु मुक्तक काव्य-कृतियों का संकलन किया गया है। संकलित किये गये लघु मुक्तक हैं: १.मदिरालय २.ललिता ३.आलोक ४.देवल ५.शशांक ६.निर्मम ७.रमणी।

 "मदिरालय" में मदिरा पीने वालों तथा मदिरालय जाने वालों के प्रति उनका रोष स्पष्ट है। आदेश जी ने "मधुशाला" से मत्त साहित्य समाज की मदिर-निद्रा को भंग करने का पारुषिक कार्य इस काव्य संग्रह में किया है। वे लिखते हैं:

"कहते हैं मदिरा पी-पीकर,
दु:ख निवृत्ति मिलती नि:संशय।
हर व्यथा डूब जाती इसमें,
रहते न रंच चिन्ता औ’ भय।
पर सच पूछो तो ये सब ही,
मन बहलाने वाली बातें हैं;
जीवन से सदा पलायन का
ही पाठ पढ़ाते मदिरालय॥"

मदिरा के अवगुणों की ओर ध्यान खींचते हुए उन्होंने साहित्यकारों को चुनौती दी है यह झूठ है कि पीने के बाद ही कला-प्रतिभा निखरती है। वे पूछते हैं कि क्या तुलसी पीते थे, कि सूर और मीरा ने मदिरा पीकर गीत लिखे थे? अगर ये कालजयी कवि और उनकी रचनाएँ, मदिरा से दूर रह कर जनता के हृदय में उतर सकती हैं तो आज के कवियों, प्रसिद्ध गायकों को लिखने/गाने के लिए मदिरा की आवश्यकता क्यों है? "आदेश" जी मदिरा भक्तों पर सीधा प्रहार करते हुए कहते हैं कि मदिरा से सी.एच. आत्मा, के.एल. सहगल जैसे अच्छे कलाकार असमय काल-कवलित हुए हैं:

"मदिरा ने मार दिया मित्रों!
सहगल को जीते जी असमय।
सी.एच. आत्मा की आत्मा को
ले डूबा था यह मादक पय
बन गई काल का कवल सुरा
पी मीना जैसी अभिनेत्री;
कितनी विभूतियों का जग में
वध करते आये मदिरालय"

अनेक छंदों से "आदेश" जी ने यही समझाने की चेष्टा की है कि रोमानियत का मदिरा से कोई संबंध नहीं है और इस मदिरा से कोई, कभी, कुछ भी, लाभ नहीं पा सका है।

उनकी यह रचना उमर ख़ैयाम से लेकर अब तक की मदिरायुक्त रोमानियत को तोड़ती है। पीने से भाव की गहनता उत्पन्न होने के भ्रामक विचार को काटती है और पाठकों की आँखों में अँगुली डाल कर मदिरा के दुष्प्रभावों को दिखाती है। इसे पढ़ने के बाद मदिरा से जुड़े अनेक सम्मोहन-रूपों की पट्टी आँख से उतारती है और लगता है कि साहित्यकारों और समाज ने अभी तक इस बात को समझा क्यों नहीं था? यथार्थ की ठोस ज़मीन पर खड़े होकर, भारतीय संस्कारों के आकाश तले, भाव-कल्पना के तारों की छाया में विचरने वाले "आदेश" जी की यह काव्य रचना हिन्दी साहित्य में अपनी सशक्त, समर्थ और उद्बोधन शक्ति के कारण सदैव याद की जाएगी।

इस काव्य संग्रह के अन्य छह मुक्तक अन्य विभिन्न भावों को केन्द्र में रख कर लिखे गये हैं। "आदेश" जी इस संग्रह के प्राक्कथन में लिखते हैं: "..ये सब एक ही काल की रचनायें हैं। अतएव हर रचना के मूल में एक सी ही आशा-निराशा, कुंठा, जिज्ञासा, मनोव्यथा, आक्रोश आदि अनुभूतियाँ अन्तर्निहित हैं।"

इन रचनाओं में भावों के प्रवाह के साथ-साथ भाषा का सौन्दर्य भी देखते ही बनता है; उदाहरण के लिये:

"लावण्यमयी ललिते ललाम।
दो मुझको आँचल में विराम॥

रजनीगंधा सी गंधमयी,
भगवद्गीता सी छंदमयी,
अन्तर्यामिनी! अनुपम, अनाम॥" ("ललिता" से)

"आदेश" जी का एक अन्य काव्य-संग्रह है, "शरद: शतम"! "शरद: शतम" अपनी भाव-गहनता और प्रतिदिन के सामान्य विषयों को भी परिष्कृत एवं प्रवाह पूर्ण भाषा में प्रस्तुत करता है। इस पुस्तक में विभिन्न भावों का इंद्रधनुष है पर जिस बात ने मन को सबसे अधिक बाँधा वह है; अनुभूति की गहनता और सत्यता। अनेक कविताओं में आंतरिक द्वंद्व उभर कर आया है -

"दुख तो यह है, मेरा जीवन
ही समझ नहीं मुझको पाया।
मेरे ही प्राणों ने कदापि,
मुझको न अभी तक अपनाया।
अपने ही अन्तराल पर मैं,
अपना ही राज्य न पाता हूँ।। ("गीत नहीं गा पाता हूँ")

यह द्वंद्व मन की इच्छाओं, वासनाओं से है वो भक्तों, श्रद्धालुओं द्वारा महामानव के रूप में पूजे जाने से भी उत्पन्न हुआ है। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि "आदेश" जी ट्रिनीडाड आदि देशों में पूज्यास्पद रहे हैं। प्राय: लोग उन्हें गुरु जी कह कर आदर देते हैं। इस संबोधन का कारण यह भी हो सकता है कि "आदेश" जी ट्रिनिडाड में अपने "आदेश आश्रम" में बड़ों और बच्चों को संगीत और हिन्दी की शिक्षा देते थे। ज्योतिष के पंडित होने के कारण भी संभव है कि लोग उन से अपने जीवन संबंधित प्रश्नों के लिये संपर्क करते रहे हों। जो इतने विषयों पर अधिकार रखता हो, वह आदरणीय होगा ही। परन्तु वेद, उपनिषद, पुराण आदि का गहन अध्ययन करने वाले तथा भारतीय संस्कृति के पुरोधा "आदेश" जी अत्यंत मानवीय होकर, दीन स्वर में कहते हैं :

"मैं भोगी हूँ, मुझको भगवान न समझो,
मैं महापतित हूँ, मुझको महान न समझो,
विद्वान नहीं, तुमको प्रलाप लग जाएगा।" ("मेरी पूजा मत करो")

इस काव्य संग्रह की अनेक कविताएँ मन बाँधती हैं।

आदेश जी सबसे बड़ी विशेषता है कि वे शब्दों के सम्राट हैं। बड़े से बड़े, परिष्कृत, संस्कृतनिष्ठ शब्द उनके भावों के मधु में पग कर लय की ताल पर थिरकने लगते हैं। कविता-प्रति-कविता ये शब्द अपनी सार्थकता के साथ काग़ज़ पर उतरते आते हैं, पृष्ठ भरते जाते हैं, फिर एक पुस्तक बन जाती है पर शब्दों का यह मेला नहीं रुकता, दूसरी पुस्तक बनती है फिर तीसरी, फिर एक महाकाव्य बनता है, फिर दूसरा, फिर 700 पृष्ठों की दमयन्ती बनती है। पृष्ठ पर पृष्ठ, पुस्तक प्रति पुस्तक। इतने भाव, इतनी कल्पना, इतने शब्द, यह त्रिवेणी अनंत सागर सी आदेश जी के मन मस्तिष्क और हृदय से उमड़ कर पुस्तकारूपों में ढलती रहती है।

क्रमश:

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