अनचाहे खेल
काव्य साहित्य | कविता डॉ. शैलजा सक्सेना8 Jan 2019
भीड़ के शोर में,
हर नयन के छोर में,
हृदय की कोर में,
कसमसाता आँसू कोई
बात ’निज’ की कहीं
हो न पाती कभी।
एक धकापेल है,
व्यर्थ का यह खेल है,
मुस्कराहटों में छिपा,
बुद्धि विष-खेल है।
आइनों में देख कर,
क्या कभी भ्रम हुआ?
एक ही रूप में,
रूप की अनेकता,
अनेकता को देख-देख,
चकित हुई चेतना,
यही हुई वेदना,
खेल रहे खेल सभी
इर्द-गिर्द, यहाँ-वहाँ॥
बुद्धि-मन खिन्न मेरे,
झँझाएँ ही घेरे,
शांत झील, आलोड़ित,
परछाइयाँ चाँद की,
किरिच-किरिच फैलीं सब,
अपनी ही महक तक,
फूलों से छूटी सब,
अपनों से अपनों की,
डोर कहीं छूटी अब।
किरकिरा ऐसे में,
कई रिश्ते चटके जब,
मन हुआ एकाकी
वैरागी बन भटके अब।
अविश्वासी खेलों से,
घायल मन, प्राण हुए,
समर्पण के प्रण सारे,
प्राणों पर भार हुए।
डगर कौन मुड़ते हैं
निर्बुद्धि पग मेरे,
रोको..... इन्हें रोक लो!
चेतना उकसाती है,
काल की पवन मुझे,
खींच लिए जाती है,
क्षण भर को थम जाऊँ,
सत्य शायद समझ पाऊँ,
कैसे बिन समझे ही
निर्णय सुना जाऊँ?
किन्तु धकापेल है,
समय का ही खेल है,
समय साधने को यहाँ
शेष नहीं समय है।
धकिया दी गई हूँ मैं,
थमने से पहले ही,
धमका दी गई हूँ,
समझने से पहले ही।
क्या यही सबका हाल है?
बचना अब मुहाल है
अनचाहे खेलों से,
जीवन बेहाल है!!
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