मैं ख़ुद की हीनता से जन्मा मृत हूँ
काव्य साहित्य | कविता धीरज ‘प्रीतो’15 Jan 2024 (अंक: 245, द्वितीय, 2024 में प्रकाशित)
मुझे भगवान मत कहो
मुझे राक्षस मत कहो
मत कहो मुझे इंसान भी
मैं वो हूँ
जिसे मैंने ख़ुद ही बनाया है
अपनी सोच से, अपने क्रोध से
अपनी अज्ञानता से
अपनी हीनता से
मैं हत्यारा हूँ
अपने आप का
असंख्य जीवों का,
अनगिनत भ्रूणों का
सुनसान सड़क पर जाती अकेली लड़कियों का
वीरान में रह रहे बुज़ुर्ग दंपत्तियों का
नवजात शिशुओं का जिन्हें तड़पाने में सुकून मिलता है
मैं तेज़ धार हूँ
अपनी आँखों से चीर देता हूँ छोटी बच्चियों, लड़कियों
और जवान औरतों के कपड़े
और महसूस करता हूँ अपनी टाँगों के बीच
उत्तेजित होती अपनी मर्दानगी को
और घुस जाता हूँ उनके मदनालय में
बलपूर्वक कभी सरिया लेकर, कभी सीसे
की बोतल लेकर, कभी ईंट, बालू और कंक्रीट लेकर
लड़कियाँ, अवसर नहीं ज़िम्मेदारी है
परन्तु मेरे लिए अवसर है
मुझसे सहा नहीं जाती खिलखिलाती हुई लड़कियों
की आवाज़, बच्चों की मासूमियत
और आज़ाद औरतें
ये सब मुझे प्रोत्साहित करती हैं
कुछ बुरा, बहुत बुरा करने को
मैं वो हूँ जिसे
पुलिस, प्रशासन और
समाज के रखवाले ढूँढ़ते हैं
परन्तु खोज नहीं पाते हैं
मैं वो हूँ जिस पर समाज थूकता है
जिस पर पूरा ख़ानदान शर्मिंदा है
मैं गिरगिट हूँ, मैं भेड़िया हूँ
मैं लोगों के बीच अच्छा हूँ, सच्चा हूँ
एकांत में, रात में और अवसर पर
मैं रावण से भी क्रूर हूँ
मैं वही हूँ जिसे
इंडियन प्रेडेटर कहते हैं
मुझे डर नहीं किसी का
न जेल का, न फाँसी का,
न अपने लिंग को काटे जाने का
मैं मानसिक कचरे में भिनभिना रहे
कीड़ों का सरदार हूँ
मैं ख़ुद की हीनता से जन्मा मृत हूँ।
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