स्त्रियाँ
काव्य साहित्य | कविता धीरज ‘प्रीतो’1 Mar 2024 (अंक: 248, प्रथम, 2024 में प्रकाशित)
पीढ़ियों से मेरे घर के बुजुर्गों ने
स्त्रियों को पर्दे में रखा
उन्हें चूल्हे में तपाया
अब मैं डरता हूँ, क्यूँकि जानता हूँ
सबसे ख़तरनाक है एक औरत का चूल्हा जलाना
ये दुनिया कब उनके लिए चूल्हा बन जाए
हम कल्पना नहीं कर सकते
मर्दों के घरों को,
स्त्रियाँ सदियों से चलाती आ रहीं हैं
अब चला रहीं हैं साइकल,
स्कूटी, कार, जहाज़ और देश भी
अब जाकर स्त्रियाँ जागी हैं
अब जाकर मैं कहता हूँ
एक क्रांति स्त्रियों की आँखों में थी
एक अँग्रेज़ मर्दों की सोच में थी
स्त्रियाँ लड़ीं ऐसे जैसे मर्दानी हो
मर्द हारे जैसे पानी का बुलबुला।
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