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मैं स्त्री हूँ


एक 
 
वो देख कर मर्दों को 
सँभालती रही अपना पल्लू 
घबराहट से
छिपाती रही अपने स्तनों को और
स्तनों के बीच के हृदय प्रदेश को
छुपाती रही अपनी ब्रा से अपने उभरे कुचाग्र को
वो अपनी आँखों से विरोध करती रही
बताती रही मुझे इस नज़र से ना देखा जाए
मुझे ना देखा जाए किसी विलासिता की वस्तु
की तरह
 
दो
 
मैं स्त्री हूँ 
मुझे स्त्री की तरह देखा जाए
जैसे देखा जाता है अजूबों को
अजूबों की तरह
जैसे देखा जाता है नदियों को
नदियों की तरह
जैसे देखा जाता है स्त्री को 
बेटी की तरह, बहन की तरह
 
तीन
 
मैं स्त्री हूँ
मेरे उरोज अप्राकृतिक नहीं हैं
मेरे उरोज एलियन नहीं हैं
मेरे उरोज से एक दिन अमृत निकलेगा
इन्हें देखा जाए अमृत कलश 
की तरह
 
चार
 
मैं स्त्री हूँ
मैं चाहती हूँ कि
न मेरे उरोज को
न मेरी नाभि को
न मेरी योनि को
और न ही मुझे अपवित्र समझा जाए 
मुझे स्वतंत्रता दी जाए 
मैं जैसे चाहूँ रह सकूँ
मैं जो चाहूँ पहन सकूँ
ताज्जुब है मर्दों की बेशर्मी पर
इतना सब सुन कर भी 
मर्दों से अपनी नज़र ना सँभाली गई। 

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