भाग्यशाली
काव्य साहित्य | कविता धीरज ‘प्रीतो’1 Mar 2024 (अंक: 248, प्रथम, 2024 में प्रकाशित)
बचपन में जब कभी भी
मैं अपनी माँ को शृंगार करते देखता था
मेरा भी मन करता था चूड़ी पहनने को,
बिंदी लगाने को, लाली और सिंदूर से ख़ुद को सजाने को,
साड़ी पहनने को
और जब मैं प्रयत्न करता माँ की तरह बनने को
माँ डाँट देती मुझे और कहती तेरे लिए नहीं है ये सब
तू लड़का है, बाल झाड़ ले और जा खेल
तो मैं कहता
ये तो ग़लत है माँ
आपके लिए इतना कुछ
मेरे सजने के लिए सिर्फ़ कंघा, ये भेदभाव क्यों?
माँ कहती बेटा तू भाग्यशाली है कि
तू लड़का पैदा हुआ है लड़की नहीं
माँ की ये भाग्यशाली वाली बात मेरे पल्ले नहीं पड़ती थी तब
परन्तु जैसे जैसे मैं बड़ा होता गया पितृसत्तात्मक समाज में
मुझे यह बतलाया कि क्यों मैं भाग्यशाली हूँ और
मेरी माँ दुर्भाग्यशाली क्यों!
मैं अक़्सर अपने आप से यह सवाल करता रहता हूँ कि
हमारा समाज इतना ग़लत कैसे हो सकता है और
ग़लत होने के बावजूद ज़रा सा भी शर्म क्यों नहीं इसको?
मैं बड़ा हो गया हूँ, मेरे अंदर की स्त्री मर गई है
अब सिर्फ़ एक पुरुष बचा है और यह पुरुष भी दूषित है।
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