तुम्हारी महक
काव्य साहित्य | कविता धीरज ‘प्रीतो’1 Jun 2024 (अंक: 254, प्रथम, 2024 में प्रकाशित)
मैंने जमा कर रखी है
तुम्हारी महक
मेरी उस रुमाल में
जिसे तुमने एक बार लिया था मुझसे
तुम्हारे चेहरे पर खिल आए
स्वेद की बूँदों को पोंछने के लिए
तुम्हारी महक
कभी कभी मेरे ही बदन
से उठती है
मैं चौक जाता हूँ
और ढूँढ़ने लगता हूँ तुम्हें
जैसे भक्त ढूँढ़ता है ईश्वर को।
कभी कभी तुम्हारे घर
की तरफ़ से आती हुई हवा
शरारत करती है मुझ से
कहती है तुम्हारे महबूब की
ख़ुश्बू लाई हूँ साथ
और जैसे ही मैं आगे बढ़ता हूँ
तुम्हारी महक और हवा
दोनों छूमंतर हो जाते हैं
और तड़प उठता हूँ मैं
सोचता हूँ तुम्हारे घर जाऊँ किसी दिन चोरी छिपे
तुम्हारा दुप्पटा या तुम्हारा सूट
या तुम्हारे बिस्तर से लिपटा
तुम्हारे बालों का कोई टुकड़ा
चुरा लाऊँ
जिसमें क़ैद हो तुम्हारी महक।
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