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आशियाना

 

बड़े घरों में
महलों में
सबके अपने अपने आवास
अपने अपने गाँव
अपने अपने शहर
एक दहलीज़ से दूसरे दहलीज़
जाने में लगते हैं मिनटों समय
 
जहाँ न कोई उत्सव है, न ख़ुशी
न मीठे टकराव
अपने अपने बंद कमरों में पड़े पड़े
आदमी भी चहुँदिशा से बंद हो गया है
 
न कोई आलिंगन, न कोई स्पर्श और
न ही होते किसी के दरस
कमरों से उठती निष्ठुरता की तीक्ष्ण गंध
जो बजबजाती रहती है
अकेलेपन की दलदल में
जहाँ आदमी ख़ुद को कमल समझता है
किन्तु वास्तव में आदमी मदार का पुष्प भी नहीं
 
मेरे ईश्वर! 
मुझे उतना ही बड़ा घर देना
जितने में आती रहे मेरे अपनों की आवाज़
मेरे कानों तक और
बनी रहे हमारे चेहरों पर मुस्कान। 

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