मैं आवाज़ हूँ
काव्य साहित्य | कविता धीरज ‘प्रीतो’15 Jan 2024 (अंक: 245, द्वितीय, 2024 में प्रकाशित)
मैं आवाज़ हूँ
मुझे बोला गया
मुझे बोलने वालों की संख्या
अरबों में है
सुना नहीं गया
जिन्होंने सुना उनकी गिनती
अंगुलियों पर ही ख़त्म हो जाती है
मैं आवाज़ हूँ
पिंजरे में क़ैद जानवरों की
जिनके दुखों को मनोरंजन का साधन
समझा गया
मैं आवाज़ हूँ
चि चि करती चिड़ियों की जिनके घरों को
काट कर बनाया गया आलीशान घर
उनसे छीन लिया गया उनका आसमान
और पिरो दिया गया गुर्राते उड़ते जहाज़
मैं आवाज़ हूँ
सूखती और बजबजाती नदियों के रोने की
जिनके मार दिए गए जलजीव
इनसे भी छीना गया इनका घाट,
इनकी तराई, इनके किनारे और इनके रेत
मैं आवाज़ हूँ
पिघलते हिमालयों और हिमखंडों की
जिनसे छीनी गई उनकी ठंडक और
भर दिया गया असहनीय ताप
मैं आवाज़ हूँ
फुसफुसाती धरती के छाती की
जिसको छेदा जा रहा है लोहे के
बड़े बड़े छड़ों से और निकाला जा रहा है
उनकी जीवनदायिनी नीर को
सुखाया जा रहा और ज़हर बोया जा रहा है
इसकी छाती पर
मैं आवाज़ हूँ
धरती के नीचे दबी सभ्यताओं की
जो पुकार रही है और सीखा रही है
सबका अंत आता है, सबकी क़ब्र बनती है
मैं आवाज़ हूँ
उन अँधेरी रातों का
जिनसे छीना गया उनका अँधेरा
और टाँग दिए गए लाखों ट्यूबलाइट,
लपलपाती बत्तियाँ और
मार दिए गए जिनके जुगनू
मैं आवाज़ हूँ
बलात्कार करके फेंकी गई लड़कियों की
जो रात भर सड़ती रही गरम रातों में
मार काट कर भर दी गईं बर्फ़ीले फ़्रिज में
जिन्हें जलाया गया उनके ससुराल के
बंद कमरों में
मैं आवाज़ हूँ
सताए गए लड़कों की
जिन्हें रोने ना दिया गया
जिनका दिल तोड़ा गया
और उनसे पूछा न गया दुख का कारण
और थोप दिया गया ज़बरदस्ती की हँसी और
हिमालय सी ज़िम्मेदारी
मैं आवाज़ हूँ
भूखे नंगे बच्चों की
जो खोज रहे खाना और कपड़ा
शहर के कचरों में
जो मजबूर है सोने को सड़कों पर
मैं आवाज़ हूँ
भ्रूण में पल रहे अविकसित बच्चे की
जो सुन रहा है कल रात उसे
मार दिया जाएगा किसी अस्पताल के
तहख़ाने में
मैं आवाज़ हूँ
मैं निरंतर कोशिश करता रहूँगा
पहुँचने को बहरे कानों में।
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