दूर, बहुत दूर
काव्य साहित्य | कविता धीरज ‘प्रीतो’15 Nov 2024 (अंक: 265, द्वितीय, 2024 में प्रकाशित)
तुम्हारे जाने के बाद
मन में विचार आता है
कहीं बहुत दूर निकल जाऊँ मैं
इस दक़ियानूसी सोच से बहुत दूर
कहीं धरती के दूसरे छोर पर
जहाँ नितांत अँधेरा हो
उजाला भी नहीं,
किसी की फुसफुसाहट भी नहीं
जहाँ नीर हो, नीर का शोर न हो
जहाँ तुम्हारी याद आए तो दिल जले
बदन न जले
या धरती खोद कर समा जाऊँ
नहीं, सुना है वहाँ राक्षस रहते हैं
राक्षस नहीं तो केंचुए तो रहते ही होंगे
चन्द्रमा कैसा रहेगा या मंगल?
क्या वहाँ मैं खुल कर रो सकता हूँ?
इतना रोऊँ की कोई चुप न कराए
नहीं, वहाँ भी तो इंसानी रॉकेट पहुँच गए हैं
न जाने कब कौन पीछे से आ जाए
मेरी रुदन में अपनी टाँग अड़ाने के लिए
कैसा रहेगा ध्रुव तारा?
नहीं, नहीं वो तो बिल्कुल नहीं
तारा नहीं, मैं तो जल जाऊँगा वहाँ
एक तरह से अच्छा ही है
जल जाऊँ मेरी बला से
उफ़ ये कैसी कश्मकश है
मुझे तो तुम्हारी याद में नाचना है,
गाना है, पागल हो जाना है
क्या कोई ऐसा स्थान नहीं है
इस अनंत ब्रह्मांड में?
याद आया, ब्लैक होल
वहाँ तो कोई डिस्टर्बेंस नहीं है
नहीं है, सच में नहीं है?
या फिर वहाँ भी तिलचट्टों की फुसफुसाहट है
सब ईश्वर की ग़लती है
इंसान बनाया, प्रेम बनाया, दिल बनाया
पर दिल टूटने या प्रेमिका से बिछड़ जाने
वाली स्थिति के लिए
क्यों, क्यों कोई ऐसा स्थान नहीं बनाया
जहाँ प्रेमी सुकून से रह सके
जहाँ ज़्यादा नहीं कम से कम
एक जादुई मंत्र हो बिछड़े हुए से
मिल पाने के लिए
बार बार नहीं एकाध बार
क्यों कोई ऐसा स्थान नहीं है
जहाँ मैं जा सकूँ
दूर, बहुत दूर, बहुत दूर
इस दक़ियानूसी सोच से
इस दोगलेपन से
दूर, बहुत दूर।
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