मज़दूर हूँ
काव्य साहित्य | कविता धीरज ‘प्रीतो’1 Dec 2023 (अंक: 242, प्रथम, 2023 में प्रकाशित)
मैं मज़दूर हूँ
आँखों में सारा शहर लिए फिरता हूँ
फिर भी मैं घर को तरसता हूँ
हाँ, पीठ पर वहीं गाँव की याद का बोझ
जो रिसता है मेरे पसीने में दर्द बनकर।
मैं मज़दूर हूँ
मैं मजबूर हूँ
दिहाड़ी में आता हूँ
दिहाड़ी मैं खाता हूँ
दिहाड़ी बनकर रह जाता हूँ।
मैं मज़दूर हूँ
हमारे पास पर्स नहीं होता
होता है चुरैया जेबा जिसमें कुछ सिक्के और
राजश्री की पन्नी में कुछ मैले नोट होते हैं
हज़ार पाँच सौ के नहीं, सौ पचास के
रबड़ी मलाई के लिए नहीं, नून तेल के लिए।
मैं मज़दूर हूँ
सुकून से कोसों दूर हूँ
आज काम है तो कल विश्राम है
विश्राम में आराम नहीं पर्याप्त व्यथा है
परिवार के भविष्य का नहीं आज रात की चिंता है।
मैं मज़दूर हूँ
मैं आज भी मलिन हूँ
मैं बनाता जिस इमारत को
जब बन जाए फिर उसके न क़ाबिल हूँ
ग़लती से घुस जाऊँ जो इमारत में, मैं चोर हूँ, मैं नमकहराम हूँ।
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