दुख का स्वाद
काव्य साहित्य | कविता धीरज ‘प्रीतो’1 Oct 2024 (अंक: 262, प्रथम, 2024 में प्रकाशित)
मालूम पड़ता है
दुख बहुत प्रिय है तुम्हें
जैसे प्रिय है मिट्टी कुम्हार को
प्रिय है कीचड़ शूकर को
परन्तु क्या तुमने कभी दुख को चखा है
स्वाद पता है तुम्हें दुख का
तीखा है, मीठा है या कड़वा
ज़रा ठहरो और सोचो कि एक आदमी का दुख
दूसरे आदमी के दुख से कितनी समानता रखता है
या फिर एक आदमी का दुख एक मच्छर के दुख से
कितना भिन्न है, क्या एक ताली से मारे जाने और
एक बंदूक से मारे जाने जितना
उस बुढ़िया का दुख जिसका पेट ख़राब है,
क़दम क़दम पर चाबुक से मार खाते
घोड़े के दुख से कितना बड़ा है
सामान्य वर्ग या पिछड़े वर्ग में से
किसने परीक्षण किया है दुःख का?
चलो छोड़ो, तुम ये बताओ
मेरी कविताओं में तुम क्या ढूँढ़ते हो?
मेरे दुख का स्रोत
या अपने दुःख का विकल्प
तुम्हें क्यों इतनी प्रीतिकर लगता है
मेरी कविताओं में बहता दुःख
कहीं हमारी आत्मा का दुःख एक ही तो नहीं
तुम्हें क्यों लगते है धूमिल और मुक्तिबोध पर्याय
यों तो नहीं कि हमारे और इनके दुखों का हलवाई एक है
इसलिए हमारे दुखों का स्वाद भी एक है
मैं कुछ भी कह लूँ परन्तु
अब मुझे मौत के ख़्वाब नहीं आते
मेरी नींद को वासना ने जकड़ रखा है
मेरी जिह्वा पर दुःख का आधिपत्य है
परन्तु सच तुम्हें भी पता है
कि किस तरह से हॉस्पिटलों में छुपाया जाता है
मरीज़ों के दुख का स्वाद फिनायल की गंध से
इस जागृत जगत में ‘प्रीतो’ को छोड़
दूसरा कौन है
जिसने जाना हो दुख का स्वाद
और लिख दिया हो संक्षिप्त में
दुःख का स्वाद ‘कैंसर’ है॥
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