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मजनूँ का दुःख

 

लैला की पार्थिव देह हिम से ज़्यादा ठंडी होती जा रही है
कब सुबह होगी, सूरज निकलेगा, पिघलेगी देह
आज रात का वज़न कैसे उठाएगा मजनूँ
इन्हीं सवालों के बीच फुसफुसा रहे मजनूँ के चाहने वाले
परन्तु मजनूँ बंजर हो चुका है
नहीं बची उसमें कोई संवेदना
आँखों का खौलता पानी आँखों में सूख गया
कंधे झुक गए, रक्त से गर्मी निकल गई
बौखलाया हुआ पूरी ताक़त से खींच रहा प्राणशक्ति, परन्तु
हवा में अब नहीं है लैला के साँसों की ख़ुश्बू
बीच बीच में चाट लेता है जिह्वा से अपने सूखे होंठों को
जैसे अभी भी चिपका हो होंठों पर 
हफ़्ते भर पहले वाले चुम्बन का स्वाद
ये दुःख है अनंत ब्रह्मांड जितना विशाल और 
मजनूँ तिनके मात्र
तो पूछो कोई मजनूँ से, मजनूँ कैसे उठाएगा इस दुःख का भार
परन्तु यहाँ सब मौन है
मजनूँ बैठा है एक कोने में दुखभरी मुठ्ठी बाँधे
इन सभी सवालों से बेपरवाह लैला को ताक़ते हुए
कि लैला अब जागे, अब जागे, अब जागे। 

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