पत्थर का
काव्य साहित्य | कविता धीरज पाल15 Nov 2024 (अंक: 265, द्वितीय, 2024 में प्रकाशित)
 मुझमें अब कोई संवेदना नहीं बची
 मेरी आँखें नहीं रोतीं अब किसी बात पर
 तुम मुझसे अपनी कोई बात न कहना
 अच्छा हो तुम कह लेना अपनी बात
 तुम्हारे आँगन की शोभा बढ़ाती तुलसी से
 पेड़ पौधों से, चिड़ियों से, अपने पालतू जानवर से
 घर की दीवारों से, हवाओं से, फ़िज़ाओं से 
 हो सकता है ये तुम्हारी बात सुन कर
 दुख प्रकट करें, शायद रोएँ भी
 परन्तु मैं, मैं अब इस क़ाबिल नहीं रहा
 क्यूँकि अब मैं पत्थरों के युग का हो गया हूँ
 अब मुझसे प्यार नहीं, मुझे तोड़ो और बर्बाद करो। 
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