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कथा साहित्य | कहानी दीपक शर्मा1 Mar 2023 (अंक: 224, प्रथम, 2023 में प्रकाशित)
मैंने स्कूल से घर लौटते समय रोज़ की तरह इधर-उधर किसी से उस दिन भी बात न की।
चुपचाप स्कूल के साइकिल स्टैंड पर अपनी साइकिल का टोकन जमा कराया, अपनी साइकिल उठाई और चतुर्दिक पवन-मापी गति के साथ घर पहुँचकर ही दम लिया।
“आज इम्तिहान कैसा हुआ?” माँ रोज़ की तरह घर के दरवाज़े पर खड़ी थीं।
“पेपर अच्छा था,” मैं हँसा।
“मुझे दिखाओ,” माँ ने मेरी साइकिल मेरे हाथ से लेकर गलियारे में टिका दी।
“लो,” पसीने से तर हुई अपनी क़मीज़ की जेब से मैंने वह आधा गीला पेपर माँ की ओर बढ़ाया।
“लाओ, बैग भी दे दो।”
“तुम पेपर देखो,” माँ को मैंने बैग न दिया।
“कल तुम्हारे साथ जो सम्ज़ किए थे, उनमें से आठ सवाल ज्यों के त्यों आ गए।”
“हाँ,” हँसकर माँ घर में दाख़िल हुईं, “अब बताओ, ज़रूरी गैर-ज़रूरी की मेरी पहचान कैसी रही?”
“ठीक है,” मैं चिढ़ गया।
प्रफुल्लता का प्रकटीकरण मुझे तनिक नहीं भाता।
“लाओ, मेरा पेपर मुझे वापिस दे दो।”
माँ ने कहा, “लो, इसे अपने कमरे में रखकर हाथ धो लो। मैं खाने की मेज़ पर तुम्हारी प्रतीक्षा कर रही हूँ।”
“आज खाने में क्या है?” खाने के उल्लेख से मैं उत्सुक हो उठा।
“आश्चर्य! आश्चर्य!” माँ अपने स्वर में चंचलता ले आईं, “मालूम है किसने कहा था, सरपराइज़ इज़ द बेस्ट एलिमेंट ऑफ़ द फ़ीस्ट—खाने का सबसे आनंददायक तत्त्व खाने वाले के पास वाले का अचानक पहुँचना है . . .”
“ठीक है, ठीक है,” माँ के आमोद-प्रमोद पर मैंने दोबारा रोक लगाई।
“पापा के लिए क्या बनाया?” अपनी प्लेट में अपने मनपसंद भटूरे, चने और दही-बड़े देखकर मैंने पूछा। पापा तली हुई चीज़ से सख़्त परहेज़ रखते हैं।
“जो तुम नहीं खाते,” माँ हँसीं, “चावल, मूँग की दाल और करेला।”
“पापा का खाना भी लगा दो,” मैंने खाना शुरू किया।
“अभी लगाती हूँ,” माँ मेरे पास वाली कुर्सी पर बैठ गईं।
“अपने कॉलेज से तुम कितने बजे आईं?” माँ एक स्थानीय कॉलेज में राजनीतिशास्त्र पढ़ाती हैं।
“पौने एक,” माँ ने कहा, “बारह बजे क्लास ख़त्म की। टैंपो से पहले मिष्ठान भंडार गई और यह सामान ख़रीदा। फिर रिक्शा लेकर आ गई।”
“आज कोई बात हुई?” लगभग रोज़ ही मैं माँ से यह सवाल पूछा करता।
“नहीं,” माँ दोबारा हँसीं, “न घर में, न कॉलेज में और न ही रास्ते में . . .”
♦ ♦ ♦
“सबने खाना खा लिया क्या?” अढ़ाई बजे पापा घर पर आए।
“नहीं,” माँ मुस्कुराईं, “सबने नहीं खाया, सिर्फ़ नंदन ने खाया है।”
“क्या है खाने में?” पापा मेज़ पर जा बैठे।
“सुकरात ने कहा था, हंगर इज़ द बेस्ट साॅस—खाने में भूख से बड़ा कोई सालन नहीं।”
“अपनी हँसी और अपना सुकरात अपने पास रखो,” पापा खाने पर टूट पड़े, “मुझे दोनों से सख़्त चिढ़ है।”
“दही-बड़ा लीजिए,” माँ सहज बनी रहीं, “मिष्ठान भण्डार का है . . .”
“ले लूँगा। तुम मेरी फ़िक्र न करो . . .”
माँ खाने की मेज़ से उठकर मेरे पास चली आईं।
“तुमने खाना नहीं खाया?” मैंने माँ के प्रति संवेदना प्रकट की।
“मैं बाद में खा लूँगी,” माँ मेरे पास बैठ लीं।
शाम को माँ मुझे विभिन्न देशों तथा उनकी राजधानियों की सूची रटा रहीं थीं कि सोम अंकल आ गए, “कहाँ हो भाभी?”
“तुम पढ़ो,” माँ ने तत्काल मेरी कॉपी मेरे हाथ में पकड़ा दी, “इनकी ख़ातिरदारी ज़रूरी है . . .”
सोम अंकल भी पापा की तरह उसी अख़बार में उप-संपादक थे, जिसका लखनऊ संस्करण चार महीने पहले बंद हो गया था, किन्तु जहाँ सोम अंकल को फटाक से दूसरे ही सप्ताह एक दूसरे अख़बार में नौकरी मिल गई थी, पापा अभी भी बेकार थे।
“चाय के साथ आज भाभी के हाथ की पकौड़ी हो जाए,” सोम अंकल बहुत ज़ोर से बोलते हैं, “भाई के लिए दूरदर्शन में जुगाड़ लगाया है। एक प्रोड्यूसर को राज़ी कर लिया है। भाई को वह महीने में दो प्रोग्राम दे दिया करेगा। धीरे-धीरे भाई वहाँ अपनी धाक जमा लेंगे।”
“कौन-से प्रोग्राम रहेंगे?” माँ ने पूछा।
“मुझे कोई अंतर नहीं पड़ता,” पापा ने माँ को फटकार दिया, “तुम अपने काम से मतलब रखो और जाकर चाय बना लाओ।”
“चाय के साथ पकौड़ी ज़रूर बनाना, भाभी,” सोम अंकल ने कहा।
“क्यों नहीं!” माँ ने गर्मजोशी दिखाई, हालाँकि मैं जानता था कि माँ को पकौड़ी बनाना किसी बखेड़े से कम नहीं लगता।
“रात का खाना अब हल्का रखना,” सोम अंकल को विदा देकर पापा मेरे कमरे में चले आए, “आज पकौड़ी कुछ ज़्यादा ही खाई गईं।”
“खिचड़ी बना लूँ क्या?” माँ ने पूछा।
“हाँ,” पापा ने स्वीकृति में सिर हिलाया, “खिचड़ी बना लो। मगर साथ में पोदीने या धनिए की चटनी ज़रूर तैयार कर लेना।”
“ठीक है,” माँ उठकर रसोई में लौट गईं।
“मेरे लिए पानी तो लाना, नंदन,” पापा मेरे बिस्तर पर पसर लिये।
“कल मेरा टेस्ट है पापा,” मैं खीझा, “पहले ही सोम अंकल मेरा इतना समय बर्बाद कर गए हैं।”
“बक मत,” पापा ने मुझे घुड़की दी, “तेरा समय बर्बाद कर गए हैं? सोम तो इधर आया ही नहीं।”
“आप लोग बहुत ज़ोर से बोलते हैं पापा . . .”
“अब अपने घर में मैं बोलूँगा भी नहीं,” बिस्तर से उठकर पापा ने अपनी चप्पल पकड़ ली, “हरामज़ादे! यह मेरा घर है। जैसा चाहूँगा, वैसा बोलूँगा . . .”
“क्या हो रहा है?” माँ पापा की चप्पल के सामने आ खड़ी हुईं।
“पापा अपने आपको गाली दे रहे हैं,” मैंने कहा।
नौ वर्ष की अपनी उस अल्पायु में भी मैं जानता रहा, हरामज़ादा किसे कहा जाता है।
“आज मैं इसे नहीं छोड़ूँगा,” पापा ने माँ को रास्ते से हटाना चाहा।
“टाल जाइए,” माँ ने पापा से विनती की और मेरी ओर मुड़ लीं, “ऐसे नहीं बोलते बेटे। वे तुम्हारे पापा हैं। उनके लिए तुम्हारे मन में प्यार होना चाहिए, श्रद्धा होनी चाहिए . . .”
“तुम बताओ,” मैं भड़क लिया, “क्या तुम पापा से प्यार करती हो? तुम उनके लिए श्रद्धा रखती हो?”
माँ का रंग सफ़ेद पड़ गया। झूठ बोलने का माँ को कम अभ्यास रहा।
“तू ठीक कहता है,” पापा मेरी दिशा में हँसे और उन्होंने अपने हाथ की चप्पल ज़मीन पर छोड़ दी, “तुझे हरामज़ादा बोलकर मैं अपने आपको गाली दे रहा था। तू हरामज़ादा नहीं है। तू मेरा बेटा है, मेरा बेटा। एक पत्रकार का बेटा। तभी तो तू आडंबर की थाह लेता है, कपट कोक घेरता है, मिथ्याचार की थुड़ी-थुड़ी करता है . . .”
“मैं रसोई में हूँ,” माँ ने अपनी थिरता क़ायम रखी, “खिचड़ी बना रही हूँ . . .”
“हाँ,” पापा माँ के पीछे हो लिये, “तुम पूछती रहती थीं न, तुममें क्या कमी है, क्या ख़ामी है, जो तुम्हारे समर्पण के बावजूद मैं तुम्हारी क़द्र क्यों नहीं करता? तो सुन लो आज, तुम्हारा व्यवहार आयोजित है, संकल्पित है, सहज नहीं, स्वैच्छिक नहीं . . . नौ साल का वह बच्चा भी जानता है, तुम मुझे प्यार नहीं करतीं, मेरे लिए कोई श्रद्धा नहीं रखतीं . . .”
“कल नंदन का भूगोल का टेस्ट है,” पापा के बहाने माँ ने मुझे सुनाया, “उसेअब पढ़ने दीजिए। अपना मंच हम फिर कभी लगा लेंगे . . .”
“माफ़ करना,” पापा ने कहा, “तुम्हारे साथ अभिनय करने की मुझे कोई लालसा नहीं . . .”
“घर घालना कोई आपसे सीखे,” माँ रोने लगीं, “बेतरीक़े बोलेंगे, बेजा बात को उलझाएँगे . . .”
“मैं मंचभीरू हूँ, भई, मंचभीरू,” पापा रसोई से बाहर निकल लिये, “तुम्हारे जैसे नाटकीय प्रभाव प्रस्तुत करने में सर्वथा असमर्थ हूँ . . .”
“मुझे माफ़ कर दो,” पापा के बैठक में टिकते ही मैं माँ के पास रसोई में चला आया। माँ को माँ अभिनय अधिकार सौंपने की मुझे जल्दी रही, “मेरी वजह से तुम्हें पापा से इतना कुछ सुनना पड़ा . . .”
“नहीं बेटा,” माँ ने मेरे अभिनय निर्देश सहर्ष ग्रहण कर लिये, “मैं उनकी किसी बात का बुरा नहीं मानती; और फिर यह चंद दिनों की ही तो बात है, जल्दी ही उन्हें कोई नया काम मिल जाएगा और वे इस तरह बात-बात पर तुनकना छोड़ देंगे।”
“मैं समझता हूँ माँ,” मैं आश्वस्त हुआ।
माँ का मंच साबुत था।
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