तीन-तेरह
कथा साहित्य | कहानी दीपक शर्मा15 Jul 2021 (अंक: 185, द्वितीय, 2021 में प्रकाशित)
"हर्षा देवी नहीं रहीं," कस्बापुर की मेरी एक पुरानी परिचिता की इस सूचना ने असामान्य रूप से मुझे आज आन्दोलित कर दिया है।
हर्षा देवी से मैं केवल एक ही बार मिली थी किन्तु विचित्र उनके छद्मावरण ने उन्हें मेरी स्मृति में स्थायी रूप से उतार दिया था।
पुश्तैनी अपने प्रतिवेश तथा पालन-पोषण द्वारा विकसित हुए अपने सत्व की प्रतिकृति को समाज में जीवित रखने के निमित्त उनके लीला रूपक एक ओर यदि हास्यास्पद थे तो दूसरी ओर करुणास्पद भी।
पन्द्रह वर्ष पूर्व प्रादेशिक चिकित्सा सेवा के अन्तर्गत मेरी पहली नियुक्ति कस्बापुर के सरकारी अस्पताल में हुई थी और उस दिन पुलिस अधीक्षक की गर्भवती पत्नी, उषा सिंह ने अपने चेक-अप के सिलसिले में मुझे अपने बँगले पर बुलवा रखा था।
हर्षा देवी मुझे उन्हीं की बैठक में मिली थी। अपना सिर चटख गुलाबी फूलों वाली गहरी सलेटी रंग की अपनी शिफ़ॉन की साड़ी के पल्लू से ढके और चेहरा गहरे भड़कीले मेक-अप से।
तेज़ खुशबू छोड़ती हुई।
“डॉक्टर हो?” मुझे बैठक में बिठलाने आए अर्दली ने मेरा मेडिकल किट बीच वाली मेज़ पर जैसे ही टिकाया था, हर्षा देवी बोल पड़ी थीं। धाक जमाने वाली, वज़नी अपनी आवाज़ में।
"जी, उषा सिंह अंदर हैं क्या?" उत्तर देते समय मैं भी आधिकारिक अपना स्वर प्रयोग में लायी थी।
"लैन्डलाइन पर एक फोन सुनने गयी हैं। तुम बैठो . . ."
"बैठ रही हूँ," हर्षा देवी की बग़ल में बैठने की बजाए मैं उनके सामने वाले सोफ़े पर जा बैठी थी।
"तुमने अभी तक शादी नहीं की?"
"नहीं . . ." अपना उत्तर मैंने संक्षिप्त रखा था। उन्हें बताया नहीं कि उधर कानपुर निवासी, मेरे परिवार में पिछले पाँच वर्ष से मेरे पिता फ़ालिज-ग्रस्त हैं और अपनी तीनों छोटी बहनों का भार मुझी को उठाना रहता है और उन्हीं का हवाला देकर मैं उन दिनों अपना स्थानान्तरण कानपुर ही में करवाने का प्रयास कर रही थी।
"कितने साल से नौकरी पर हो?"
"तीन साल तो हो ही गए हैं।"
"फिर अकेली घड़ी ही क्यों लगायी हो?" सोने के चार-चार मोटे कंगन वाली अपनी दोनों कलाइयाँ उन्होंने मेरी दिशा में उछाल दी थीं। "और बाक़ी सब ख़ाली रखी हो? अपने कान? अपनी गरदन? अपनी यह दूसरी कलाई?"
"मेरा ज़्यादा समय तो अस्पताल ही में बीतता है। ऐसे में गहनों की ज़रूरत ही महसूस नहीं होती . . ."
"और इधर हमारी पदवी ऐसी है कि हमारे लिए गहने पहनना ज़रूरी हो जाता है," हर्षा देवी ने अपनी गरदन से अपनी शिफ़ॉन साड़ी थोड़ी नीचे खिसकते हुए लाल मानिक-जड़ित अपने गले का हार अनावृत्त किया था, "महारानी जो हूँ। मीठापुर स्टेट के राजा की महारानी . . . जो हूँ।"
मीठापुर स्टेट के राजा की महारानी . . .
यह प्रिंसीपैलिटी क्या इसी कस्बापुर ज़िले में पड़ती है? जानबूझकर उनकी "स्टेट" के लिए मैंने प्रिंसीपैलिटी शब्द प्रयोग किया था। मैं जानती थी ब्रिटिश सरकार भारत के प्रत्येक रजवाड़े या जागीर को एक प्रिंसीपैलिटी ही का दरजा देती रही थी और उसके स्वामी को भी मात्र एक प्रिन्स का, राजे का नहीं। ताकि ब्रिटिश राजतन्त्र के राजा का एकल पद अक्षुण्ण बना रहे।
"हाँ, इसी ज़िले में है। कस्बापुर टाउन से कोई बीस-बाइस किलोमीटर पर . . ." हर्षा देवी ने अपने दाएँ कान के झूल रहे लाल मानिक अकड़ में झुला दिए थे।
"ए गन-सैल्यूट स्टेट?" मैंने हर्षा देवी को उनके मंच से नीचे उतारना चाहा था। यहाँ मैं यह बताती चलूँ कि अंगरेज़ों ने प्रिंसिपैलिटीज़ का वर्गीकरण उनके स्वामी की सम्पत्ति एवं इतिहास के आधार पर कर रखा था। गन-सैल्यूट स्टेट तथा नान-गन-सैल्यूट स्टेट। पहले वर्ग के स्वामियों को अपने आगमन पर तोपों की सलामी लेने की आज्ञा थी मगर दूसरे वर्ग की प्रिंसिपैलिटीज़ के स्वामियों को नहीं। और सलामी में दागी जाने वाली तोपों की संख्या भी ब्रिटिश सरकार ही निर्धारित किया करती थी। और यह संख्या भी तीन और इक्कीस के बीच की विषम अंकों में रहा करती थी। ब्रिटिश साम्राज्य के राजा को बेशक एक सौ एक तोपों की सलामी मिला करती थी तथा भारत के वाइस रॉय को इकतीस तोपों की।
"गन-सैल्यूट के बारे में तुम जानती हो?" हर्षा देवी ने हैरानी जतलायी थी।
"हाँ, क्यों नहीं?" मैं मुस्करा दी थी, "भारत छोड़ते समय अंगरेज़ों की ५६५ प्रिंसिपैलिटीज़ में से केवल एक सौ बीस ही नाइन-गन सैल्यूट वाली स्टेट्स थीं। और इक्कीस गन-सैल्यूट वाली सिर्फ़ चार या पाँच। आपके मीठापुर को कितनी तोपों की सलामी लेने की आज्ञा थी?"
"पाँच की। मगर उधर नेपाल में हमारे नाना नौ, तोप वाले थे। वह "तीन ख़ून माफ़" वाले सरदार परिवार से थे।"
"तीन ख़ून माफ़?" मैं चौंक गयी थी।
"पुराने ज़माने में तो हमारे महाराजाधिराज तथा उनके परिवार को "सब ख़ून माफ़" रहा करते थे और "राणा" परिवारजन को "सात ख़ून माफ़," हर्षा देवी के तेवर फिर चढ़ लिए थे।
"इधर आप शादी के बाद आयीं?" उन्हें अधिक जानने की जिज्ञासा ने मुझे उत्सुक कर दिया था। उनसे पहले किसी भी नेपाली के संग-साथ का मुझे अवसर नहीं मिल सका था।
"हाँ, सन् १९७१ में . . ."
"जिस साल भारत सरकार ने राजा लोगों के प्रिवी पर्सों को समाप्त कर दिया था?" मैंने फिर चिढ़ाना चाहा था।
जभी उषा सिंह हमारे पास चली आयी थीं।
"क्षमा करियेगा, मुझे थोड़ी देर लग गयी।"
"आपकी प्रतीक्षा हो रही थी," हर्षा देवी ने कहा था, "और उसी प्रतीक्षा के क्षणों में आप की डॉक्टर ने हमारा सारा इतिहास हमसे खुलवा लिया . . ."
"हाँ, शरीर के मामले में हमारी महारानी साहिबा अभागी ही रही हैं," उषा सिंह ने मेरी ओर देखा था, "हिस्टरेक्टमी भी करवा चुकी हैं, गॉल ब्लैडर निकलवा चुकी हैं और अब पाखाने के साथ टपकने वाले ख़ून से परेशान हैं . . ."
"आपने मुझे कुछ नहीं बताया?" मैं झेंप गयी थी।
"तुमने हमें अपनी मेडिकल हिस्ट्री खोलने ही कहाँ दी? हमें तोपों ही के गिर्द घूमाती चली गयी . . ."
"कौन सी तोपें?" उषा सिंह ने पूछा था।
"इस समय तो मैं आपके इलाज की बात पहले रखना चाहूँगी," हर्षा देवी के संग आक्रामक रहे अपने व्यवहार पर मुझे ग्लानि हो आयी थी और मैं उन्हीं की ओर मुड़ ली थी, "आप बताइए टपक रहा वह ख़ून क्या सुर्ख़ लाल रहा करता है? या फिर कालिमा लिए?"
"सुर्ख लाल . . ."
"अभी आपको कुछ दवाएँ लिख देती हूँ," अपने मेडिकल किट में रखे अपने अस्पताल वाले पैड से एक कोरा काग़ज़ निकालकर मैंने अपनी क़लम थाम ली थी, "आपके नाम से शुरू करूँगी . . ."
"हमारा नाम?" हर्षा देवी ने अपने कंधे उचकाए थे, "मीठापुर की महारानी हर्षा देवी . . ."
"आयु?" उनका नाम लिखकर मैंने अपनी क़लम रोक ली थी।
"कुछ भी लिख सकती हो।"
वह झल्लायी थीं, "हमारा गर्भाशय क्या हमारी उम्र पूछकर थिरथिराया था? या हमारे पित्ताशय में पथरी हमारी उम्र देखकर जा घुसी थी? जो अब हमारी उम्र ही यह बीमारी हम पर लाद लायी है?"
"आप घबराइए नहीं। मैं यह तीन दवाएँ लिख रही हूँ। डेफलान एक हज़ार मिलीग्राम एक गोली सुबह, एक शाम, एनोवेट मलहम है जिसे आप ख़ून टपकाने वाले स्थान पर लगाएँगी और यह लैक्टोलूज़ सौल्यूशन है जिसके दो बड़े चम्मच आप सोते समय पानी के साथ लेंगी ताकि आपको कब्ज़ न रहने पाए।"
"कितने दिन की दवा मँगवा दूँ?" उषा सिंह ने अपने सोफ़े की बग़ल में रखी घण्टी दबायी थी।
"सात दिन की तो अभी मँगवा ही लीजिए," मैंने कहा था, "तब भी ख़ून आना बंद नहीं हुआ तो मैं इनकी सिग्मौएडोस्कोटी द्वारा इनके मस्सों की विस्तृत जाँच करूँगी और फिर उनकी बैन्डिंग कर दूँगी . . ."
"सात दिन बाद . . . मगर तुम यहाँ कहाँ होओगी?" उषा सिंह हँस पड़ी थी, "अभी-अभी अपने पति से तुम्हारे लिए ख़ुशख़बरी सुनकर आ रही हूँ। वह इस समय चिकित्सा विभाग ही में हैं और तुम्हारे स्थानान्तरण आदेश हाथों-हाथ लिए आ रहे हैं।"
"हुजूर," अर्दली आन प्रकट हुआ था, "आपने घंटी बजायी थी?"
"यह दवाएँ चाहिएँ। फ़ौरन। बिल्कुल अभी," उषा सिंह ने आदेश दिया था और मैंने अपने हाथ की पर्ची उसे थमा दी थी।
"अभी लीजिए," अर्दली बाहर लपक लिया था।
"बढ़िया। बहुत बढ़िया। डॉक्टर भी चुस्त मुस्तैद और अर्दली भी चुस्त, मुस्तैद . . . " हर्षा देवी ने मेरा वर्गीकरण करने में तनिक देर नहीं लगायी थी।
वह अब भी मुझसे रुष्ट थीं। बैठक में अपने बैठे रहने का अब मुझे कोई प्रयोजन नज़र नहीं आया था और मैं सोफ़े से तत्काल उठ खड़ी हुई थी और उषा सिंह से बोली थीं, "आप के कमरे में आपका चेक-अप हो जाये? उधर अस्पताल में कई मरीज़ मेरे इन्तज़ार में बैठे हैं . . ."
"मैं अभी आती हूँ," उषा सिंह ने हर्षा देवी से आज्ञा ली थी और मुझे अपने कमरे की ओर बढ़ा ले आयी थी।
शायद वह जान गई थी कि मैं उससे अपने स्थानान्तरण का पुष्टीकरण अकेले में चाहती थी।
"मेरे स्थानान्तरण के आदेश कानपुर ही के लिए हैं न!" कमरे का दरवाज़ा बंद होते ही मैं अपनी उत्तेजना रोक नहीं पायी थी।
"हाँ, हाँ, कानपुर ही के लिए हैं," उषा सिंह स्नेह से मुस्करायी।
"आपने मेरी मन की मुराद पूरी कर दी," गद्गद् होकर मैंने उषा सिंह के हाथ थाम लिए थे, "आपके इस ऋण से मैं कभी उऋण नहीं हो पाऊँगी . . ."
अपने पिता के पास मैं जल्दी से जल्दी पहुँच जाना चाहती थी।
"दोस्ती में ऋण कैसा?" उषा सिंह ने मुझे हल्का करने के लिए प्रकरण बदल दिया था, "यह बताओ तुम्हें हमारी महारानी कैसी लगी?"
"अंगरेज़ गए, राजे गए, महाराजे गए, उनके प्रिंवी पर्स गए, मगर यह अपना राज्यतंत्र छोड़ने को अब भी तैयार नहीं। उसी चौखट पर जड़ी अपनी पुरानी तस्वीर पर अपनी नज़र आज भी जमाए बैठी हैं . . ."
"बहुत दुखी हैं बेचारी," उषा सिंह ने कहा था, "जिससे ब्याही गयी थीं, उसने इन्हें पत्नी के रूप में कभी स्वीकारा ही नहीं। उम्र में उससे सात साल बड़ी भी थी। विवाह के समय वह राजधानी के एक ताल्लुकेदार कॉलेज में पढ़ाई कर रहा था। उधर पिता का एक बँगला तो था ही वहीं रहता भी था। फिर पढ़ाई के बाद उस पर टेबल टेनिस का शौक चढ़ आया। साथ ही टेनिस की एक साथिन खिलाड़ी पर रीझ बैठा। फिर उसी से शादी कर ली। तीन बच्चे कर लिए। सभी इधर आते हैं और इनसे मिले बग़ैर लौट जाते हैं . . ."
"और यह सब भी इतनी सजती-धजती हैं? गहनों पर गहने चढ़ाए घूमती हैं?" मैं जुगुप्सा से भर उठी थी।
"गहनों की बात ही मत करो। बेचारी को जारी किए जाते हैं। स्टेट के मैनेजर द्वारा बाक़ायदा। ब्यौरेदार रजिस्टर पर दर्ज करने के बाद। फिर जैसे ही घर पहुँचती है, वे वापिस जमा कर लिए जाते हैं। इसी तरह निजी अपनी ख़रीददारी के लिए भी इन्हें मैनेजर से पहले बजट पास करवाना पड़ता है फिर बाद में एक एक चीज़ का बिल जमा करवाना पड़ता है। मानो सरकारी टकसाल से पैसा निकाला गया हो!"
"इतनी पाबन्दियाँ हैं तो वापिस अपने नेपाल क्यों नहीं चली जातीं?" मैं विकल हो आयी थी।
"एक बार मैंने भी यह सुझाया था तो पलटकर बोली थीं, चली तो जाऊँ मगर वहाँ मुझे महारानी कौन कहेगा?"
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