मुलायम चारा
कथा साहित्य | कहानी दीपक शर्मा15 Aug 2020 (अंक: 162, द्वितीय, 2020 में प्रकाशित)
ड्राइवर नया था और रास्ता भूल रहा था।
मैंने कोई आपत्ति न की।
एक अजनबी गोल, ऊँची इमारत के पोर्च में पहुँचकर उसने अपनी एंबेसेडर कार खड़ी कर दी और मेरे सम्मान में अपनी सीट छोड़ कर बाहर निकल लिया।
पाँच सितारा किसी होटल के दरबान की मुद्रा में एक सन्तरी आगे बढ़ा और उसने मेरी दिशा का एंबेसेडर दरवाज़ा खोला।
मैं एंबेसेडर से नीचे उतर ली।
ऊँची इमारत के शीशेदार गोल दरवाज़े से बाहर तैनात दूसरे संतरी ने मुझे सलाम ठोंका और सरकते उस गोल दरवाज़े का एक खुला अंश मेरी ओर ला घुमाया।
"आपका बटुआ, मैडम?" ड्राइवर लपकता हुआ मेरे पास आ पहुँचा।
"इसे गाड़ी में रहने दो,” मैंने अपने कंधे उचकाए और मुस्करा पड़ी। स्कूल में हमें शिष्टाचार सिखाते हुए किस टीचर ने लड़कियों की भरी जमात में कहा था, "अ लेडी शुड ऑलवेज़ बी सीन कैरियंग अ पर्स" (एक भद्र महिला को अपने बटुए के साथ दिखायी देना चाहिए)? चालीस बरस पूर्व? बयालीस बरस पूर्व? जब मैं दसवीं जमात में थी? या आठवीं में?
मैंने गोल दरवाज़ा पार किया।
सामने लॉबी थी।
उसके बाएँ कोने में एक काउंटर था और इधर-उधर सोफ़े बिछे थे।
कुछ सोफ़ों पर हाथ-पैर पसारे कुछ लोग बैठे थे।
मैं यहाँ क्या कर रही थी?
तभी एक पहचानी सुगन्ध मुझ तक तैर ली।
मेरे पति यहीं कहीं रहे क्या?
सुगन्ध की दिशा में मैंने अपनी नज़र दौड़ायी।
बेशक़ वही थे।
यहीं थे।
ऊर्जस्वी एवं तन्मय।
मुझ से कम-अज़-कम बीस साल छोटी एक नवयुवती के साथ।
मेरी उम्र के तिरपन वर्षों ने मुझे खूब पहना ओढ़ा था किन्तु मेरे पति अपने पचास वर्षों से कम उम्र के लगते। इधर दो-तीन वर्षों से उनके कपड़ों की अलमारी में रेशमी रुमालों और नेकटाइयों की संख्या में निरन्तर और असीम वृद्धि हुई रही। बेशक़ अपनी उम्र से कम लगने का वह एक निमित्त कारण ही था, समवायी नहीं।
मैं लॉबी के काउण्टर की ओर चल दी। वहाँ लगभग तीस वर्ष की एक युवती तीन टेलीफोनों के बीच खड़ी थी। सफ़ेद सूती ब्लाउज़ के साथ उसने बनावटी जार्जेट की काली साड़ी पहन रखी थी। किस ने कभी बताया रहा मुझे सफ़ेद और काले रंग को एक साथ जोड़ने से पैशाचिक शक्तियाँ हमारी ओर आकर्षित होकर हमारे गिर्द फड़फड़ाने लगती हैं! इशारे से हम उन्हें अपने बराबर भी ला सकते हैं! उन्हें अपने अन्दर उतार सकते हैं! बिखेर सकते हैं! छितरा सकते हैं!
"कहिए मैम," युवती मेरी ओर देखकर मुस्कुरायी।
"उधर उन अधेड़ सज्जन के साथ लाल कपड़ों वाली जो नवयुवती बैठी हँस-बतिया रही है वह कौन है?" मैंने पूछा।
"सॉरी," काउन्टर वाली युवती ने तत्काल एक टेलीफोन का चोंगा हाथ में उठाया और यन्त्र पर कुछ अंक घुमाने लगी, "जासूरी में हम किसी की सहायता करने में अक्षम रहते हैं।"
"बदतमीज़ी दिखाने में नहीं?" मैं भड़क ली।
"आप कौन हैं, मैम?" काउन्टर वाली युवती चौकस हो ली।
"एक उपेक्षित पत्नी," मैंने कहा। मार्क ट्वेन ने कहाँ लिखा था, "वेन इन डाउट, टेल द ट्रुथ" ("जब आशंका हो तो सच बोल दो")!
"मैं आपका परिचय जानना चाहती थी," काउन्टर वाली युवती फिर से टेलीफोन यन्त्र पर अंक घुमाने लगी, “आप परिचय नहीं देना चाहती तो न दीजिए। यक़ीन मानिए अजनबियों में हमारी दिलचस्पी शून्य के बराबर रहती है।”
"आप फिर बदतमीज़ी दिखा रही हैं," मैं चिल्ला उठी। "मैं आपसे बात कर रही हूँ। आप से कुछ पूछ रही हूँ और आप हैं कि टेलीफोन से खेल रही हैं।"
मेरे पति भी अक़्सर ऐसा किया करते। जैसे ही मैं उन के पास अपनी कोई बात कहने को जाती वे तत्काल किसी टेलीफोन वार्ता में स्वयं को व्यस्त कर लेते। बल्कि इधर अपने मोबाइल के संग वे कुछ ज़्यादा ही "एंगेज्ड" रहने लगे थे। फोन पर बात न हो रही होती तो एस.एम.एस. देने में स्वयं को उलझा लिया करते। और तो और, अपने मोबाइल फोन की पहरेदारी ऐसी चौकसी से करते कि मुझे अपने वैवाहिक जीवन के शुरूआती साल याद हो आते जब मेरी ख़बरदारी और निगरानी रखने के अतिरिक्त उन्हें किसी भी दूसरे काम में तनिक रुचि न रहा करती। भारतीय प्रशासनिक सेवा में हम दोनों एक साथ दाख़िल हुए थे। सन् सतहत्तर में। और अठहत्तर तक आते-आते हम शादी रचा चुके थे। भिन्न जाति समुदायों से सम्बन्ध रखने के बावजूद।
"बदतमीज़ी तो आप दिखा रही हैं," काउन्टर वाली युवती की आवाज़ भी तेज़ हो ली, "मैं केवल अपना काम कर रही हूँ।"
"मैं कुछ कर सकता हूँ, क्या मैम?" तभी एक अजनबी नवयुवक मेरे समीप चला आया। उसकी कमीज़ सफ़ेद सूती रही, अच्छी और तीखी कलफ़ लिए। बख़ूबी करीज़दार।
"मुझे उस नवयुवती की बाबत जानकारी चाहिए," मैं विपरीत दिशा में घूम ली। काउन्टर वाली युवती से बात करते समय अपने पति के सोफ़े की तरफ़ मेरी पीठ हो ली थी।
"किस नवयुवती की बाबत जानकारी चाहिए, मैम?"
मेरे पति वाला सोफ़ा अब खाली था। मैं पुनः काउन्टर की ओर अभिमुख हुई, "उधर उस किनारे वाले सोफ़े पर मेरे पति लाल कपड़ों वाली एक नवयुवती के साथ बैठे थे। वे दोनों कहाँ गए? कब गए?"
"कौन दोनों?" काउन्टर वाली युवती ठठायी।
"मैंने वे दोनों आपको हँसते-बतियाते हुए दिखलाए थे," मैंने कहा, “एक अधेड़ और एक नवयुवती।”
"सॉरी," काउन्टर वाली युवती ने मुझसे अपनी आँखें चुरा ली, "मैं कुछ नहीं जानती....."
"झूठ मत बोलो," ग़ुस्से में मैं काँप उठी, "उन्हें उधर एक साथ बैठे देख कर ही तो मैं तुम्हारे पास आयी थी।"
"सॉरी," काउन्टर वाली ने अपने दाँत निपोरे, "मेरे पास निपटाने को बहुत काम बाक़ी हैं। मैं आपकी तरह ख़ाली नहीं हूँ। मेरा समय क़ीमती है। व्यर्थ गँवा नहीं सकती।"
"आप मुझे बतलाइए, मैम," अजनबी नवयुवक ने एक मंदहास्य के साथ स्वयं को प्रस्तुत किया, "मैं ज़रूर आपकी सहायता करना चाहूँगा।"
"मेरे पति की एक गर्ल फ़्रेंड है," मैं ने कहा, मुझे उसका नाम और पता चाहिए।
"आपके पति का नाम और पता?" अजनबी नवयुवक का स्वर दुगुना विनम्र हो उठा। उसके चेहरे पर सहानुभूति भी आन बैठी।
"मेरे बटुए में हैं....."
"आपका बटुआ?"
"बाहर एंबेसेडर में रखा है....."
"एंबेसेडर का नम्बर?"
"मुझे याद नहीं....."
"ड्राइवर का नाम?"
"ड्राइवर नया है....."
"लेकिन वह आपको ज़रूर पहचान लेगा। आप जैसे ही बाहर निकलेंगी वह आपके पास दौड़ा चला आएगा....."
"ठीक है। मैं अपना बटुआ लेकर लौटती हूँ....."
लॉबी में तैनात एक तीसरे संतरी ने शीशेदार, गोल दरवाज़े का खुला अंश मेरे सामने ला आवर्तित किया। एक सलाम के साथ।
बाहर, पार्किंग में खड़ी सभी गाड़ियाँ एंबेसेडर थीं। सभी का रंग सफेद था और क़तार में खड़े सभी ड्राइवर एक-सी सफ़ेद वर्दी में थे।
"आपके ड्राइवर को बुलवाएँ, मैम?" अंदर आते समय जिन दो संतरियों ने मेरे संग जी हुजूरिया बरती रही, वे दोनों मेरे सामने आन खड़े हुए। "ड्राइवर ही गाड़ी नहीं," मैंने कहा, "वह मुझे मेरा बटुआ ला देगा।"
"लीजिए मैडम," क़तार तोड़ कर एक ड्राइवर मेरे पलक झपकते-झपकते मेरे बटुए के साथ प्रकट हुआ।
बटुआ मैंने उसके हाथ से ले लिया।
"चाय पियोगे?" मैंने पूछा।
ओट में खड़े वे दोनों संतरी भी मेरे पास चले आए।
बटुआ खोल कर मैंने पचास रुपये का नोट ड्राइवर के हाथ में ला थमाया, "तीनों लोग एक साथ चाय लेना।"
"जी, मैडम," तीनों ने समवेत स्वर में चाय की पावती का आभार माना और फिर मुझे सलामी दी। अपना शीशेदार, गोल, दरवाज़ा मेरी दिशा में सरकाते हुए।
मैं लॉबी में लौट ली।
"आप अपना बटुआ ले आयीं, मैम?" मुझे देखते ही वह अजनबी नवयुवक मेरी ओर बढ़ आया।
अपने बटुए से अपने पति का कार्ड मैंने निकाला और उसकी ओर बढ़ा दिया।
उनका नाम पढ़कर वह मुस्कराया।
"तुम उन्हें जानते हो?" मैंने पूछा।
"जी, मैम....."
"लाल कपड़े वाली उस नवयुवती को भी?"
"जी, मैम, आप उससे मिलना चाहेंगी?"
"वह यहीं काम करती है?"
"जी, मैम। लिफ़्ट से जाना होगा।"
लिफ़्ट मेरे लिए नयी थी लेकिन मैं उसमें सवार हो ली।
रास्ते भर लिफ़्ट में कई यात्री अपने-अपने गन्तव्य तल पर पहुँचने के लिए उस पर चढ़ते और उतरते रहे।
अलबत्ता अंक दस तक आते-आते लिफ़्ट में केवल मैं और वह अजनबी नवयुवक ही रह गए। अंक ग्यारह में जैसे ही रोशनी चमकी, उसने स्टॉप का बटन दबा दिया।
लिफ़्ट रुक गई।
"आइए," नवयुवक ने अपना पैर लिफ़्ट छोड़ने के लिए बढ़ाया तो मेरी निगाह उसकी पतलून पर जम गयी।
पतलून काली थी। उसके जूतों की तरह।
"वह नवयुवती यहाँ बैठती है?" मैंने लिफ़्ट न छोड़ी।
"जी, मैम," अजनबी नवयुवक की आवाज गूँजी, “अभी आपसे मिलवाता हूँ, मैम। आप आइए तो, मैम.....।”
लिफ़्ट के सामने वाली दीवार बंद थी। बायीं एक दरवाज़ा लिए थी और दायीं एक खिड़की। दरवाज़ा आयताकार था और खिड़की मेहराबी।
वह खिड़की की ओर बढ़ लिया, "इस पूरी इमारत में यह एक अकेली खिड़की है जिसमें एयर कन्डिशनर फ़िट नहीं हुआ है।"
"वह नवयुवती यहाँ बैठती है?" अपनी आवाज़ की कमान मैं अपने वश में रखे रही, “ग्यारहवें तल पर?”
"जी, मैम," उसने आगे बढ़कर खिड़की खोल दी, "अभी आपसे मैं मिलवाता हूँ.....।"
खिड़की के पट घिराव की दिशा में न खुले, बाहर दीवार में खुले।
"दरवाज़ा खुलवाएँ?" मैंने पूछा।
"पहले इस खिड़की पर आएँ, मैम," उसकी आवाज़ में दुहरी गूँज ग्रहण कर ली, “इसका यह दर्रा देखिए, इसकी मेड़ देखिए, इसकी ढलान देखिए।"
"नहीं, पहले दरवाज़ा खुलवाएँगे," मैं दरवाज़े की ओर बढ़ ली।
"आप मेरी बात सुनती क्यों नहीं, मैम," उसने मेरे हाथ का बटुआ हथिया लिया, "मानती क्यों नहीं?"
तभी एक ज़ोरदार तिलमिली और गुबार भरी गर्द मुझ पर टूट पड़ी।
दूर पार उनकी दिशा में उसने मुझे उछाला रहा क्या?
मेरा सिर घूम लिया और मेरी समूची देह चक्कर खाने लगी.....
अस्थिर, अरक्षित आकाश में.....
सूरज को छूती हुई.....
हवा को चीरती हुई.....
ग्यारहवें तल की ऊँचाई को पीछे छोड़ती हुई.....
भू-तल तक.....
गोल..... गोल..... गोल.....
ख़ाली हाथ, तिरछे पाँव.....
चिटकने-फूटने हेतु.....
स्थावर, शरण्य धरा के गतिरोध पर एक धमक के साथ।
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