बँधी हुई मुट्ठी
कथा साहित्य | कहानी दीपक शर्मा1 Jul 2025 (अंक: 280, प्रथम, 2025 में प्रकाशित)
पेशे से मैं एक नर्स हूँ। ऑपरेशन के लिए तैयार हो चुके मरीज़ को ओ.टी. (ऑपरेशन थिएटर) तक उसकी पहिएदार कुर्सी में लेकर जाती हूँ। ऑपरेशन के समय डॉक्टरों की मदद के लिए ओ.टी. में उपस्थित रहती हूँ और फिर ऑपरेशन के बाद रिकवरी रूम में मरीज़ को मैं ही पहुँचाती हूँ और उसके साथ बैठती हूँ।
एनिस्थीसिया (बेहोशी) का प्रभाव जब मरीज़ पर ख़त्म होने को होता है तो उसकी सोच के अवरोध मंद पड़ जाते हैं और वह कई बार अपने गोपनशील मर्म प्रकट करने लगता है। बिना यह जाने वह क्या कह रहा है।
वृद्धा आदर्श बाला के साथ ऐसा ही कुछ हुआ रहा।
“अम्मा, अम्मा . . .” अपने ऑपरेशन के लगभग चार घंटे बाद वह बुदबुदाई।
क्या वह अपने बचपन में जी रही थी?
“अम्मा, तुम कनेर छील रही हो? और ये कुकुरमुत्ते? यह आक के डंठल? यह हुरहुर? कस्तूरी लाल के लिए?”
मेरी जिज्ञासा जाग ली।
उसकी अम्मा ने कोई हत्या की रही क्या? ज़हरीले माने जाने वाले इन पौधों ने उस हत्या में कोई भूमिका निभाई रही क्या?
मैं उसके निकट जा बैठी।
“बाऊजी अकेले लौटे हैं?” उसके होंठ फिर हरकत में आए, “कस्तूरी लाल को फेंक आए हैं।”
“कस्तूरी लाल कहाँ है?” उसके कान में मैं फुसफुसाई, “मिल क्यों नहीं रहा।”
तभी रिकवरी रूम के बाहर एक थपथपाहट हुई।
मैं दरवाज़े पर गई।
एक अधेड़ स्त्री वहाँ खड़ी थी।
“मैं आदर्शबाला की छोटी भाभी हूँ,” वह बोली, “इनके भाई ने मुझे इन्हें कमरे में लिवाने को बोला है। डॉक्टर साहिबा बता गई थीं इनकी हिस्टेरेक्टॉमी (गर्भाशय के निष्कासन) के चार घंटे बाद उन्हें वहाँ ले जाया जा सकता है।”
“कमरा बुक कराया है?” मैंने पूछा। हमारे अस्पताल में निजी कमरों का किराया काफ़ी ऊँचा है।
“हाँ, कमरा नंबर पाँच . . .”
“ये नौकरी करती हैं?” मैंने आदर्शबाला के चेहरे पर अपनी निगाह दौड़ाई।
“हाँ, स्कूल में प्रिंसिपल हैं . . .”
“दर्द बहुत तेज़ है,” तभी आदर्शबाला बोल उठीं।
“जीजी . . .” अधेड़ स्त्री उसकी ओर लपक ली।
“चाहें तो इन्हें कमरे में ले जा सकते हैं,” पहिएदार उस स्ट्रेचर का हैंडल मैंने थाम लिया।
“हाँ, वहाँ सब लोग इनका इंतज़ार कर रहे हैं . . .”
आदर्शबाला को उसके कमरे में छोड़कर मैं अपने ड्यूटी रूम में चली आई। वहीं से मैंने जाना पाँच नंबर कमरा अगले पाँच दिन तक आदर्श बाला के नाम पर बुक था।
आगामी पहले तीन दिन मैंने आदर्शबाला का विश्वास जीतने में बिताए और अंतिम दो दिन कस्तूरी लाल का पता लगाने में।
छनकर जो वृत्तांत मेरे हाथ लगा, वह कुछ इस प्रकार थाः
आदर्शबाला के पिता एक ट्रक के मालिक थे और शहरी माल ऊपर पहाड़ों पर पहुँचाया करते थे। सन् 50 के दशक में।
शुरू के कुछेक साल अपना ट्रक वे आप चलाते रहे थे, लेकिन उन्नीस सौ उनसठ के आते-आते उन्हें एक सहायक ड्राइवर की ज़रूरत महसूस हुई। उन दिनों ट्रकों में आज जैसी ना तो पॉवर स्टीयरिंग की सुविधा रही, न ही सोलह फ़ॉरवर्ड स्पीड की, न ही डुयल रेंज ट्रांसमिशन की और न ही डीडी थ्री एक्च्यूमेटर ब्रेक की जो दुर्घटना का अंदेशा होने पर प्रत्येक पहिए पर लगी एयर ब्रेक पर मैकेनिकल ताला लगा देने में सक्षम है। चार सौ हॉर्स पॉवर वाले उनके ट्रक के सभी एक्सेल ट्रक के फ़्रेम के साथ जुड़े थे, जिसमें चार-चक्का ब्रेक थी और सिंगल रेंज ट्रांसमिशन। ऐसे में पैंतालीस साल पहले ट्रक का परिचालन ताक़त और मज़बूती का काम करता रहा। उस पर पीछे लदे सामान का ‘लोड’ और ख़राब सड़कों पर पहाड़ों की बीहड़ चढ़ाई।
महल्ले के सभी जवान लड़कों में उन्हें अपने सहायक के रूप में कस्तूरी लाल ही सबसे ज़्यादा उपयुक्त लगा। पाँच लड़कों और चार लड़कियों वाला उसका परिवार एक तो ग़रीब था और फिर अपने भाइयों में सबसे छोटे कस्तूरी लाल को पढ़ाई से ज़्यादा कुश्ती और कसरत का शौक़ था। इधर आदर्शबाला के पिता ने उसके सामने अपना प्रस्ताव रखा कि उसने ड्राइविंग सीखनी भी शुरू कर दी। उस समय कोई नहीं जानता था कि वह आदर्शबाला को उन्माद की सीमा तक चाहता था। आदर्शबाला के सिवा।
अपनी उम्र के पंद्रहवें साल में पहुँच रही आदर्शबाला उन दिनों नौवीं जमात में पढ़ती थी और स्कूल दूर होने की वजह से साइकिल पर आया-जाया करती थी। रास्ते में एक पुल पड़ता था जिसकी निचान पर एक लकड़ी की सीढ़ी थी। आती-जाती आदर्शबाला को कस्तूरी लाल उसी सीढ़ी पर रोज़ दिखाई देता था, अपनी टकटकी में असीम अनुराग लिए। बेधड़क। शुरू में तो आदर्शबाला ने देखी-अनदेखी कर देनी चाही लेकिन धीरे-धीरे कस्तूरी लाल की टकटकी उसे उल्लसित करने लगी और आनंद विभोर होकर वह अपना सिर झुकाने लगी मानो वह कस्तूरी लाल को सलामी दे रही हो।
ड्राइविंग शुरू करने पर कस्तूरी लाल की हिम्मत बढ़ गई और वह आदर्शबाला के लिए दूसरे इलाक़ों से फूल-पत्ती क्या, रिबन परांदी क्या, पत्थर-गटिया क्या अपने झोले में भर-भरकर लाने लगा। अपनी वापसी पर उसी लकड़ी की सीढ़ी पर आदर्शबाला को रोकता और कहता, “झोला ख़ाली कर दे।” लजाती-सकुचाती आदर्शबाला अपने स्कूल का बस्ता खोलती और झोले का सामान उसमें उड़ेल लिया करती।
आदर्शबाला की दसवीं जमात शुरू हुई तो बिरादरी वालों ने उसके पिता के पास विवाह प्रस्ताव भेजने शुरू कर दिए। उनकी भनक लगते ही कस्तूरी लाल-पीला हो जाया करता और आदर्शबाला से कह उठता, “तू जब भी शादी करना, मुझी से करना। बस मुझे पाँच साल का समय दे दे। इधर तेरी बी.ए. ख़त्म होगी उधर मेरे पास अपना एक ट्रक होगा।” उस समय वह कुल जमा इक्कीस साल का था।
शादी के लिए आदर्शबाला की कड़ी ना-नुकर ख़तरनाक साबित हुई और एक दिन उसके पिता ने उन दोनों को लकड़ी की सीढ़ी पर रंगे हाथों पकड़ा। उसी दोपहर आदर्शबाला के बस्ते की, उसकी अलमारी की तलाशी ली गई। उनमें मिले पहाड़ी सभी टूम-छल्ले ज़ब्त कर लिए गए और उसकी सूखे फूलों वाली कॉपी चूल्हे में झोंक दी गई। उसके पिता की इस घोषणा के साथ कि आदर्शबाला अब घर से बाहर क़दम नहीं रखेगी।
उसी रात वे कस्तूरी लाल के साथ नए काम पर निकल भी लिए और चौथे दिन जब लौटे तो अकेले थे।
कस्तूरी लाल ग़ायब था। उसके भाइयों पर आश्रित उसके माता-पिता आदर्शबाला के पिता से दूसरा सवाल पूछने कभी नहीं आए, हमारा बेटा ग़ायब कैसे हुआ?
संकोच के मारे आदर्शबाला ने भी अपनी अम्मा और अपने बाऊजी से वह सवाल कभी नहीं पूछा। बदले में उन्होंने बेटी को सिर्फ़ फिर से स्कूल जाने की छूट ही नहीं दी, लेकिन उसकी पढ़ाई आगे भी जारी रहने दी और शादी कभी न करने की उसकी ज़िद भी आख़िर तक निबाह दी।
“आप सोचती हैं आपके पिता ने कस्तूरी लाल जी को किसी पहाड़ी, गहरे गड्ढे में ट्रक से नीचे फेंक डाला?” गहन उस वृत्तांत के कथन के दौरान मैंने सहज ही आदर्शबाला के संग प्रगाढ़, घनिष्ठता अर्जित कर ली थी।
“कस्तूरी लाल में बहुत दम था। मेरे पिता का धक्का उसका कुछ नहीं बिगाड़ पाता अगर उसके रात के खाने में मेरी माँ ने ज़हर न मिला दिया होता . . .”
“ओह! जभी आप अपनी अचेतावस्था में ज़हरीले कनेर, कुकुरमुत्ते, आक के डंठल और हुरहुर की बात कर रही थीं?”
“अपनी माँ को इन सबके साथ मैंने रसोई में देखा रहा कहने को वह चौलाई का साग बना रही थीं।”
“लेकिन उस समय आपको शक नहीं हुआ?”
“नहीं। मगर एक दिन स्कूल से लौटते समय भरी दोपहरी में रास्ते के पुल की निचान वाली लकड़ी की सीढ़ी पर मुझे अचानक कस्तूरी लाल दिखाई दे गया। वह कै कर रहा था। अपनी साइकिल जैसे ही उसकी दिशा में मैंने बढ़ाई, वह लोप हो गया और उसकी कै वाली जगह पर वही चीज़ें रखी थीं जो मैंने अपनी माँ की रसोई में उसकी आख़िरी यात्रा वाले दिन देखी रहीं। वही कनेर, वही कुकुरमुत्ते, वही आक के डंठल वही हुरहुर . . .”
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