बुरा उदाहरण
कथा साहित्य | कहानी दीपक शर्मा15 Dec 2021 (अंक: 195, द्वितीय, 2021 में प्रकाशित)
“आप नयी हो?” अपनी नब्ज पर एक नया कोमल स्पर्श पाता हूँ तो आँखें खोल लेता हूँ।
“आप स्वस्थ हो रहे हैं,” नयी नर्स युवा है, सुन्दर है कोमल है। “नहीं तो इन विशिष्ट कमरों में किसी भी दूसरे रोगी को मेरा हाथ नया नहीं लगा . . . ”
“वे बेसुध हैं,” मैं हँस पड़ता हूँ। उसे नहीं बताता यहाँ मैं जेल से बचने के लिए दाख़िल हुआ हूँ।
अपने वकील हीरालाल की सलाह पर। मेरी पत्नी ने अपने पिता की आत्महत्या का मुझे कारण बताते हुए मेरे विरुद्ध पुलिस वारन्ट जो ले रखे हैं।
“आप के चार्ट पर लिखी बीमारी भी तो कुण्डलित है, सपाट नहीं। एनजाइना दिल की बीमारी है भी और नहीं भी,” मेरे बेड पर लटक रहा चार्ट वह हाथ में पकड़े है।
“आप जो समझें,” मैं कहता हूँ, “मगर आप का हदय-विशेषज्ञ तो यही कहता है, मुझे अपनी छाती के दर्द को नज़रन्दाज़ नहीं करना चाहिये और कुछ दिन इधर आराम कर लेना चाहिये।”
“हमारे हदय-विशेषज्ञ ज़रूर ठीक कहते होंगे,” वह सतर्क हो कर मुस्करा दी है।
मुझे मालूम है नयी नर्स की आकर्षक मुस्कान मुझे अपनी बातचीत में अभी उलझाए रखना चाहती है।
“अस्पताल एक ऐसी परिकथा के दैत्य का साम्राज्य है जिस का आतिथ्य आप को अपना भोज बनाने के लिए अधिक आतुर रहता है,” मैं कहता हूँ। उसे अपनी सर्वोत्तम मुस्कान देते हुए कहा।
“आप ज़रूर निरोग हो रहे हैं। हो चुके हैं,” नयी नर्स हँसती है, “बाहर बैठी आपकी बेटियों को यह समाचार तत्काल मिल जाना चाहिये . . .”
“मेरी बेटियाँ?” मैं चौंकता हूँ। उन का इस समय साथ-साथ बैठना मेरे लिए किसी अचरज से कम नहीं।
छुटकी का तालाब में डूबना बाक़ी था क्या?
“एक लड़की ग्यारह साल की है और दूसरी दस की,” नयी नर्स फिर मुस्करा देती है। ”मैं अभी-अभी उन से मिलकर आ रहीं हूँ। विन्ध्या और प्रिया। दोनों आप की बेटियाँ नहीं?”
“हैं तो,” बड़की का नाम विन्ध्या ही है और छुटकी का प्रिया।
“लेकिन उनकी माँ नहीं दिखायी दीं?” नयी नर्स उत्सुक हो आयी है।
“उन की माँ साझी नहीं,” मैं कहता हूँ, “विन्ध्या की माँ शशि है और प्रिया की बृजबाला।
“ओह! आप ने दो शादी रचायीं?”
“नहीं! बड़ी बेटी वैध है और छोटी अवैध . . . ”
“ओह!”
“बुरे व्यक्ति वह कर गुज़रते हैं जिस के दायरे में अच्छे व्यक्ति केवल सपना देखा करते हैं . . .”
“आप अच्छे नहीं हैं? बुरे हैं?”
“आप परखना। फ़ैसला देना अपना।”
“इस समय मैं बहुत व्यस्त हूँ। मैं बाद में आती हूँ,” नयी नर्स बेचैन हो उठती है। “अभी आप की बेटियों को इधर भेज रही हूँ।”
“आप का मुझे सूची में रखना मुझे क़तई पसन्द नहीं,” नयी नर्स को मैं बाँध रखना चाहता हूँ, “यहाँ तक कि दूसरे स्थान पर भी नहीं। मुझे तात्कालिक सुनवाई चाहिये। बाद में नहीं . . . ”
“मगर अभी तो आप की बेटियों का आप की निरोगता की ख़ुशख़बरी, तुरन्त मिलनी ही चाहिये,” नयी नर्स अपने कन्धे उचकाती है और दरवाज़े की ओर लपक लेती है।
(2)
“भैया जी,” छुटकी मेरे पास आते ही मेरा बायाँ हाथ अपने हाथों से ढक लेती है।
क्या मैं अपने अतीत में लौट रहा हूँ?
अथवा मेरे भविष्य का कोई परलोक मेरे समीप चला आया है?
“बड़की कहाँ है?” अपना वर्तमान मैं निश्चित कर लेना चाहता हूँ।
“वह यहाँ नहीं है,” छुटकी हँसती है, “अच्छा है जो वह यहाँ नहीं है। वरना वह मुझे तालाब में फिर से गिरा देती . . .”
जभी अपने स्कूल की लड़कियों के साथ जब बड़की और छुटकी दोनों पिकनिक पर गयी रहीं और छुटकी के उनके साथ न लौटने पर बड़की से जब पूछा गया कि छुटकी का उस ने ध्यान क्यों नहीं रखा तो वह बोली थी, “मैं उसका ध्यान क्यों रखती? अपना क्यों नहीं रखती?”
“तालाब में तुम्हें बड़की ने गिराया था क्या?” मैं चौकन्ना हो लेता हूँ।
“हाँ, उसी ने . . .”
“तुम ने अपना ध्यान क्यों नहीं रखा?” मैं उदास हो लेता हूँ।
“कितना भी ध्यान क्यों न रखती, बड़की मुझे तालाब में डुबो ही देती . . .”
“क्यों?” मैं जानना चाहता हूँ ख़तरनाक इलाक़े के कितने घुमाव उसने लाँघ रखे हैं।
“ममा कहती है उसे मुझ से वैर है। तीखा वैर। दीदी को भी।”
शशि को वह दीदी ही कहती है।
रिश्ते में बृजबाला शशि की सौतेली माँ है।
इसीलिए मर्यादा बनाए रखने हेतु छुटकी मुझे ‘भैया जी’ कहती और शशि को ‘दीदी’।
“तुम्हारे पापा भी तुम से वैर रखते थे?” मैं पूछता हूँ।
स्कूल में पिता वाला कॉलम शशि के पिता, आनन्दमोहन, ही के नाम से भरा गया था। तब वह जानते भी नहीं थे कि वह छुटकी के पिता नहीं।
“नहीं, पापा मुझ से बहुत प्यार करते हैं,” छुटकी कहती है।
“कहाँ हैं तुम्हारे पापा?” जानना चाहता हूँ वर्तमान से कितनी दूर हैं हम इस समय?
आनन्दमोहन की अत्महत्या होनी भी बाक़ी है क्या?
“ममा से पूछती हूँ,” छुटकी शुरू ही से बृजबाला के हर बोल पर निर्भर रही।
“बृजबाला कहाँ है?” बृजबाला के संग मेरा दिखाऊ सम्बोधन कभी भी कुछ नहीं रहा था किन्तु उस का नाम खुलेआम मेरे होंठों पर इस प्रकार पहली बार आया है।
“ममा?” छुटकी की उतावली फूट-फूट पड़ती है, “अभी बुला लाती हूँ।”
(3)
बृजबाला मेरे सामने है।
अपनी पूरी ठसक के साथ।
शशि के विपरीत बृजबाला अच्छा पहनने-ओढ़ने और अच्छा खाने-खिलाने की शौक़ीन है।
“कैसे हो?” बृजबाला पूछती है।
“तुम कहाँ हो,” मैं पूछता हूँ।
आनन्दमोहन की आत्महत्या के बाद शशि ने कचहरी की सहायता लेकर बृजबाला को अपने मायके घर से उखाड़ बाहर फेंक दिया था। घरजमाई रहे आनन्दमोहन उस घर के मालिक कभी रहे भी न थे। शशि की माँ कैन्सरग्रस्त रही थीं और मृत्यु को निकट आती देखकर वह घर शशि के नाम लिखवाकर गयी थीं।
“हीरालाल ने मुझे एक नया मकान किराए पर ले दिया है,” बृजबाला हँसती है। “कस्बापुर रोड पर। दो बेडरूम हैं। तीन बाथरूम हैं। एक बड़ा हाल है . . .”
“एक अकेली जान के लिए?” मैं गम्भीर हो लेता हूँ, “या छुटकी क्या लौट आयी है?”
“वहाँ से लौट कर कौन आया है? कौन आएगा? न हमारे मोहन लाला आएँगे, न हमारी प्रिया ही . . . ”
छुटकी को बृजबाला प्रिया ही के नाम से बुलाती-पुकारती।
“फिर तुम्हारे मकान में और कौन है?” मैं आंशकित हो उठा हूँ।
“हीरालाल है। वह मेरे साथ है। मेरे केस वही देख रहा है।”
“तुम्हारे कौन केस हैं?”
“वह मकान शशि के नाम रहा, सो रहा। मगर बैंक का रुपया तो नहीं। वहाँ का लॉकर तो नहीं। साझा उस में मेरा भी है। मोहन लाला की वैध विधवा हूँ। रखैल नहीं। अपने हक़ के लिए तो लड़ूँगी ही . . .”
(4)
“स्पन्ज,” परिचित और कठोर एक स्पर्श मुझे मेरे एकाकी बिस्तर पर लौटा लाया है।
मैं अकेला हूँ।
अकेले कमरे में।
डॉक्टरों के आने से पहले अधेड़ यह नर्स इस विशिष्ट वार्ड में रह रहे सभी रोगियों को उन के सुबह-सवेरे के नित्यकर्म निपटाने आया करती है।
“वह नहीं आयी?” मुझे वही नयी नर्स चाहिये।
वही युवती।
उसी के युवा, कोमल हाथ।
उसी की युवा हँसी। उसी की मीठी युवा मुस्कराहट।
“उस का इंतज़ार आप छोड़ दीजिये। वह कभी नहीं आएगी,” अधेड़ इस नर्स का खुरदरापन मुझे खटकता है।
“कौन नहीं आएगी?” मेरी खीझ मेरे स्वर में आन टपकी है
“आप की पत्नी। मुझे वह सब बता गयी है। आप से नाराज़ है वह। बहुत नाराज़। कहती है आप ही के कारण उसके पिता ने आत्महत्या की . . .”
(5)
कहाँ से शुरू किया होगा शशि ने?
जब अपने विवाह के लिए मैंने अख़बार में विज्ञापन दिया था?
“अट्ठाईस वर्षीय आयकर अधिकारी के लिए बीस-बाईस वर्षीया वधु चाहिए। अच्छे, ऊँचे घराने की . . .”
और उत्तर में मिले सभी पत्रों में मुझे शशि ही के सम्पर्क-सूत्र सर्वोपयुक्त लगे थे? इन्जीनियरी के बूते तगड़ी चाँदी काट रहे उसके पिता जिन की वह इकलौती सन्तान थी? साथ रही थी वह दूसरी पत्नी जो शशि से आठ वर्ष बड़ी थी और उसके पिता से अठारह वर्ष छोटी? निसन्तान?
या फिर उस दिन से जब शशि के घर पर घरजमाई के रूप में रह लेने के बाद ही मैं समझ पाया था, शशि को मेरा परिवार सर्वहारा क्यों लगता रहा था? क्यों वह मुझे अपने परिवार का रेहनदार कह कर नीचा दिखाती रही थी?
[यह सच था अपने परिवार के लिए मैं अपनी एक चौथायी तनख़्वाह आरक्षित रखता ही रखता था। इस लखनऊ से कोसों दूर कस्बापुर के एक पुराने मुहल्ले के मेरे पुश्तैनी मकान के आधे हिस्से में बसर कर रही मेरी माँ और स्कूल-कॉलेज की अपनी-अपनी पढ़ाई में जुटी तीनों मेरी बहनें सघन अपने ख़र्चे के लिए मेरा ही मुँह ताकती थीं क्योंकि मकान के दूसरे आधे हिस्से का किराया उन्हें पूरा नहीं पड़ता था।]
या फिर शशि ने अपनी बात शुरू की थी हमारे विवाह के उस दूसरे साल से जब सहज सम्मोहित हो कर मैं उसकी सौतेली माँ, बृजबाला, द्वारा प्रस्तावित अगाध उस गर्त में डूब-उतर लिया था जिस में डूबने-उतारने की सम्भावना वह पहले ही दिन से दर्शाती रही थी?
[बेशक, जिस नयी सुखानुभूति का सिरा बृजबाला ने मेरे हाथ में आन थमाया था, वह सुख न केवल विवाह की आचार-संहिता में वर्जित रहा था, अपितु प्रत्येक समाज की नियमावली में भी अनैतिक ठहराया जाना था। और उस सुख में शशि को दुख व क्लेश देने की चूँकि गुजाइंश सर्वाधिक रही थी, मैंने बृजबाला को मुझ से गर्भवती भी हो जाने दिया था।]
या फिर शशि न अधेड़ इस नर्स को हमारे विवाहित जीवन के विस्तार के अन्त की पूरी गाथा ही कह सुनायी थी?
कैसे वह छुटकी के जन्म लेते ही पूरी तरह से किनारे सरक ली थी?
बड़की के एक वर्ष पहले हुए जन्म के बावजूद?
और मुझे भी कोई आपत्ति न रही थी?
शशि ने कौन कम सन्ताप दिया था मुझे?
परिवारिक कर्तव्यों की, दाम्पतिक अपक्षाओं की तो बात ही अलग थी, विशुद्ध मानवीयता ही की संहिता में अन्तर्निहित प्रत्येक नियम भी तो वह तोड़ती नहीं रही थी क्या?
कैसे भाँडा भी फिर शशि ही ने फोड़ा था?
बताया होगा क्या?
जिस दिन छुटकी का शव तालाब से लौटा था और आनन्दमोहन का विलाप उस से सहन न हुआ था और वह छुटकी के पैतृत्व-परख का आग्रह किए थी और डीएनए के तीन नमूने लिए गये थे छुटकी के, आनन्दमोहन के और मेरे?
बताया होगा क्या?
कैसे जब परख का सच आनन्दमोहन को दहशत से भर गया था तो शशि ने ही दहशतंगेज़ उनकी उस स्थिति को दहकाया था?
उनसे सवाल-जवाब किए थे, क्यों वह बृजबाला पर अथाह विश्वास रखते रहे थे?
क्यों वह मेरे प्रति रहे उसके घृणा-भाव में साझीदार नहीं बनते रहे थे?
मृत अपनी माँ के भी कई आरोप-अभिकथन वह उनके सामने लायी थी और आनन्दमोहन अपने दफ़्तर की छठी मंज़िल से नीचे कूद लिए थे?
बताया होगा क्या आनन्दमोहन की आत्महत्या के पीछे शशि की लानत-मज़ामत थी, हमारा व्याभिचार नहीं?
(6)
“मैं अपनी पत्नी के बारे में नहीं पूछ रहा,” मैं कहता हूँ, “मैं तो नयी उस नर्स के बारे में पूछ रहा हूँ जो आप के आने से पहले अभी यहाँ आयी थी।”
“नयी नर्स?” अधेड़ नर्स अपना ख़ाली हाथ नचाती है, उस के दूसरे हाथ में सूखा तौलिया है, “यहाँ तो नयी कोई भरती नहीं हुई है . . .”
“अभी मुँहअँधेरे ही एक नयी नर्स आयी थी। कम उम्र की। कोमल। सुन्दर।”
“आप को दिल के साथ-साथ भ्रमरोग की बीमारी भी है। होता है एक भ्रमरोग भी। वही आप जैसे चालीस साल की जवान उम्र को ऐसी कम उम्र की नर्सों के पास होने का भ्रम दिया करता है।” अधेड़ उस नर्स का स्वर तिक्त हो आया है, “इधर इन विशिष्ट कमरों में हम सभी नर्सें पैंतालीस से ऊपर की हैं। अनुभवी और ज़िन्दगी के क़रीब . . .” अवसाद मेरे समीप आन खड़ा होता है।
नयी वह नर्स मुझे मिली भी तो कैसे?
अनाहूत व अकस्मात्?
सुस्पष्ट व असंदिग्ध?
मनोहर अपने वर्चस्व के साथ?
उसे मैं क्या फिर कभी बुला न पाऊँगा?
उसी भ्रामक-स्थिति में फिर जा न पाऊँगा?
“दस साल की एक बच्ची भी तो इधर आयी थी?” धूमिल अपने कुहासे से मैं पूरी तरह बाहर आ जाना चाहता हूँ। “सैंतीस साल की एक महिला के साथ?”
“इधर सभी को आप से मिलने की सख़्त मनाही है,” अधेड़ नर्स हाथ के पाउडर के डिब्बे को बग़ली मेज़ पर टिकाते हुए कहती है। “आप के वकील के इलावा। और ताज्जुब है वह आज तीसरे दिन भी इधर फटक नहीं रहा . . .”
हीरालाल का उल्लेख पहली बार मेरे कानों के वार-पार किसी तड़ित झंझा की मानिन्द गड़गड़ाता है . . .
बेशक उस के वकीली मोहरे-रस्से मुझे शस्त्रसज्जित करने में प्रभावी भूमिका निभाने की सम्भावना रखते हैं लेकिन मैं पीछे छोड़ आए काले उस भू-भाग की तरफ़ पलटना नहीं चाहता . . .
अभी कुछ दिन और यहाँ रहना चाहता हूँ . . .
अकेले और स्वतऩ्त्र . . .
अकेले रहने का मेरा अभ्यास पुराना है . . .
अपनी नवीं जमात ही से जब सरकारी शिक्षा विभाग में क्लर्क रहे मेरे पिता ने मुझे आवासी छात्रवृत्ति की प्रतियोगी परीक्षा में भाग लेने के लिए प्रेरित किया था और मैं सफल रहा था।
प्रतियोगी परीक्षाओं में सफलता मैंने बाद में भी पायी।
बारहवीं के बाद आईआईटी की प्रवेश परीक्षा में और फिर इन्जीनियरिंग के बाद भारतीय लोक सेवा के अन्तर्गत राजस्व सेवा में।
यह अलग बात है मेरी इन्जीनियरिंग की पढ़ाई के दौरान ही मेरे पिता मृत्यु को प्राप्त हो लिए। जीवित रहे होते, तो मुझे शशि से विवाह कभी न करने देते।
और मैं उन के लक्षित आदर्श प्रतिमान पर पूरा उतरता, ऐसा बुरा उदाहरण नहीं बन जाता।
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