सुनहरा बटुआ
कथा साहित्य | कहानी दीपक शर्मा15 Aug 2024 (अंक: 259, द्वितीय, 2024 में प्रकाशित)
उनसे पहले उनका सामान अन्दर आया था . . .
दो कुलियों के साथ एक बड़ा सूटकेस, वी.आई.पी. . . .एक मीडियम स्काय बैग जिस के हत्थे पर लगे लेबल हाल ही में किसी हवाई यात्रा की सूचना दे रहे थे . . .
एक लंबी प्लास्टिक टोकरी जिस की जाली के बीच की ख़ाली जगहों से अमरीकन या ऑस्ट्रेलियन सेब और नाशपाती और बिसलेरी की पानी की बोतलें देखी जा सकती थीं . . .
फिर एक स्त्री आयी थी . . .
अपना एक हाथ अपने कंधे से झूल रहे अपने सुनहरे बटुए पर टिकाए और दूसरे हाथ में एक हलका रुमाल सँभाले . . .
“पंद्रह और सत्रह नम्बर कहाँ पड़ेंगे?” स्त्री ने पूछा।
“यहीं . . .दरवाज़े से एकदम पहले,” किसी एक कुली ने कहा . . .
“असल में पहले यह कोच भी ए.सी. वन का हिस्सा रहा,” दूसरा कुली बोला, “फिर जब ए.सी. टू में भीड़ बढ़ने लगी तो इसे काटकर ए.सी. टू में बदल दिया गया।”
“क्या बात है?” वे अब आये थे।
आला कमान!
रोष और झुँझलाहट से संपूर्ण तथा संग्रथित!
“ये अपनी सीट की बाबत पूछ रही थी,” स्त्री की बजाए किसी एक कुली ने उत्तर दिया।
“अब भी पूछ रही थी?” खट से वे गुर्राए। “कल भी यही पूछ रही थी। परसों भी यही पूछ रही थी। पिछले दस दिनों से यही पूछ रही है . . .”
“सामान हम ने टिका दिया है, साहब,” एक कुली बोला। “हमारी मेहनत हमें दे दी जाए। इधर अम्बाला में यह हावड़ा मेल बस कुल जमा दो मिनट ही रुकती है . . .”
“बेशक,” पचास का एक नोट उन्होंने कुलियों की तरफ़ बढ़ा दिया।
“यह पन्द्रह और सत्रह नम्बर मैंने एडजस्ट कर दिए हैं, सर,” गाड़ी के गतिमान होते ही टी.टी.ई. उन के पास पहुँच लिया, “हमारी बड़ी बिटिया की शादी अगले सप्ताह पड़ रही है, सर! उसके मनोरथ भी कुछ दे दिया जाए।”
“अम्बाला से सहारनपुर तक ही तो जा रहे हैं,” वे ठठाए। “अदनवाटिका नहीं। फिर तुम से कोई टिकट भी नहीं माँग रहे। पंद्रह और सत्रह यों भी ख़ाली ही जातीं . . .ख़ाली जा ही रही थीं . . .नहीं क्या?”
“जी सर . . .” टी.टी.ई. थोड़ा झेंप गया। “फिर भी हमारा थोड़ा ध्यान रख लिया जाए। दो हज़ार तो दे ही दिया जाए।” उन्होंने पहले अपनी रिवॉल्वर अपनी पेटी से अलग की, फिर अपना बटुआ बाहर निकाला . . .
“ठीक है,” पाँच-पाँच सौ के चार नोट उन्होंने टी.टी.ई. की हथेली पर गिन दिए।
“थैंक यू सर . . .” टी.टी.ई. ने कहा। “अटैन्डेन्ट उधर सोने के लिए निकल गया है। आप के बिस्तर उसे खोज कर आप को पहुँचाए देता हूँ।”
“बिस्तर के लिए अब किसी को जगाइए नहीं,” वे उदार हो लिए। “हमने अच्छा गर्म कपड़ा पहन रखा है। तिस पर इधर एयर कन्डीशनिंग है, ठंड महसूस नहीं हो रही।”
बाहर शुरू जनवरी की बर्फ़ीली रात अपनी पराकाष्ठा पर रही।
“जैसी आपकी आज्ञा सर,” दुष्करण की समूची रक़म अब उसकी हो गयी थी।
“पानी,” अपने ब्रीफ़ केस के कुछ नंबर घुमा कर उन्होंने उस में से एक बोतल निकाल ली। स्त्री ने प्लास्टिक की टोकरी में रखी एक थरमस में से ढक्कन के नीचे छिपे गिलास में थरमस का पानी उँडेल दिया।
पानी गर्म था . . .
“आप ब्रांडी लेंगे?” बोतल के कुछ अंश उन्होंने थरमस के ढक्कन में मिला दिए। टी.टी.ई. की निर्धारित सीट ठीक उन के सामने पड़ रही थी।
“आप लीजिए, सर,” टी.टी.ई. ने लार टपकायी . . .
“मैं भी ले लूँगा . . .” उन्होंने थरमस के ढक्कन में ब्रांडी की मात्रा बढ़ा दी।
“लीजिए,” ढक्कन उन्होंने टी.टी.ई. की ओर बढ़ाया।
एक बड़े घूँट के साथ टी.टी.ई. ने वह ढक्कन ख़ाली कर दिया।
“और लीजिए,” थरमस और बोतल उन्होंने टी.टी.ई. को सुपुर्द कर दी, “नैपोलियन ब्रांडी है, आप को शीत से दूर रखेगी . . .”
“नहीं सर,” झूठा विरोध प्रकट करने के एकदम बाद टी.टी.ई. मदिरासक्ति में डूब लिया।
अपने खंड की सभी बत्तियाँ बुझा कर वे लेट लिए . . .
सत्रह नम्बर पर . . .
स्त्री पन्द्रह नम्बर पर लेट गयी।
अपनी मद्यधारा की अधबटाई के बीच टी.टी.ई. को दरवाज़ा खुलने की आवाज़ आयी तो वह उठ खड़ा हुआ . . .तत्काल . . .
“आप चालू रहिए,” दरवाज़े पर वही थे। आला कमान . . .
“जी सर,” टी.टी.ई. ने उनकी आज्ञा स्वीकारी।
“मेरी डायरी शायद उधर वॉश बेसिन के पास रह गयी है,” उन्होंने स्त्री को आन जगाया।
“उसे ले आओ . . .”
स्त्री की पीठ जैसे ही दरवाज़े पर दिखायी दी, वे फ़ुर्ती से उठे और स्त्री के सुनहरे बटुए पर झपट पड़े।
बिना आधा पल गँवाए उन्होंने अपना ब्रीफ़ केस खोला। फिर बटुए के सभी वर्ण्य विषय उस में उलट कर उसे बंद कर दिया।
ख़ाली सुनहरी बटुए के साथ वे दरवाज़े से बाहर लपक लिए।
लौटे, तो ख़ाली हाथ लौटे।
टी.टी.ई. अपनी निर्धारित सीट से फिर उठ खड़ा हुआ।
दरवाज़े के पार कोई न था।
बाहर निकल कर टी.टी.ई. ने दोनों बाथरूम देखे। दोनों ख़ाली थे।
घुप्प अँधेरे और तेज़ ठंड के बीच गाड़ी द्रुत गति से आगे बढ़ रही थी। आगे बढ़ती रही।
“क्या है?” वे भी दरवाज़े से बाहर निकल आए।
“वे कहाँ गयी?” टी.टी.ई. ने पूछा . . .
“कौन?”
“आप के साथ एक लेडी सवारी रही . . .नहीं क्या? . . .”
“लेडी सवारी?” वे हँसे, “या गुलाबी हाथी . . .”
“गुलाबी हाथी? माने . . . ?”
“नेपोलियन की वजह से आप बहक रहे हैं . . .मति भ्रम में, दृष्टिभ्रम में, श्रुतिभ्रम में, निर्मूल भ्रम में . . .”
“नहीं, सर . . .” टी.टी.ई. ने प्रतिवाद करना चाहा।
“ड्यूटी के समय मदिरा सेवन की सज़ा जानते हैं?”
“जी सर,” टी.टी.ई. की बोलती बंद हो गयी।
दरवाज़ा पार कर वह अपनी निर्धारित सीट पर लौट आया।
जल्दी ही उसकी घबराहट नींद में बदल गई।
नींद उसकी टूटी तो उसने गाड़ी को खड़ी पाया। सामने नज़र दौड़ाई तो पंद्रह और सत्रह उसे ख़ाली मिली। सामान और थरमस भी ग़ायब थे।
इस कथा योग की लुप्त कड़ी उसे अपनी वापसी यात्रा के दौरान प्राप्त हुई।
अम्बाला अभी बीस मिनट की दूरी पर था जब एक स्त्री-स्वर ने उसे पीछे से पुकारा, “आप की बड़ी बिटिया की शादी कब है?”
“कौन बड़ी बिटिया?” उस एक पल के लिए वह भूल गया था सीटों के ‘एडजस्टमेंट’ करते समय वह अक्सर एक बड़ी बिटिया क पिता भी बन जाया करता था, जब कि संतान के नाम पर उस के पास मात्र दो बेटे रहे।
“देखिए,” स्त्री ने कहा, “अभी दो दिन पहले की बात है। इसी हावड़ा मेल में अम्बाला स्टेशन से एक दम्पत्ति बैठे थे। पंद्रह और सत्रह बर्थ वाले।”
“वे दोनों बर्थ उस दिन ख़ाली गयी थीं। मेरे पास रिकॉर्ड है, पूरा रिकॉर्ड . . .” टी.टी.ई. मुकर गया।
“आप याद करिए, पुरुष के पास एक रिवॉल्वर था और स्त्री के हाथ का बटुआ सुनहरी था।
“सोने की तरह चमकीला . . .”
“क़तई नहीं,” टी.टी.ई. फिर मुकर गया।
“मैं नहीं मानती,” स्त्री-स्वर ने एक पहचानी आकृति धारण कर ली, “एक लड़की की लाश इस रेलपथ पर मिलने की सूचना आज के अख़बार में छपी है। कहें तो अख़बार दिखाऊँ . . .”
युवती ने अपने हाथ अपने बटुए की ओर बढ़ाए।
उसी स्त्री का बटुआ?
छिटक कर टी.टी.ई. उस आकृति से दूर जा खड़ा हुआ।
“यह बटुआ आप के पास कैसे आया?” टी.टी.ई. काँपने लगा।
“यह मेरा है,” आकृति की दिशा से हँसी फूट ली।
“कौन हो आप?” टी.टी.ई. की जीभ सूख चली।
“गुलाबी हाथी,” हँसी तेज़ हो गयी।
सुनहरे बटुए वाली वह स्त्री आज भी उस कोच में उस टी.टी.ई. को दिखायी दे जाती है। किन्तु जब भी वह यह पता लगाने का प्रयास करता है कि उसके दूसरे हाथ में उसका रुमाल है या नहीं, वह अदृश्य हो लेती है।
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