बिगुल
कथा साहित्य | कहानी दीपक शर्मा1 Jan 2021 (अंक: 172, प्रथम, 2021 में प्रकाशित)
“तुम्हें घोर अभ्यास करना होगा," बाबा ने कहा, “वह कोई स्कूली बच्चों का कार्यक्रम नहीं जो तुम्हारी फप्फुप फप्फुप को वे संगीत मान लेंगे . . .”
जनवरी के उन दिनों बाबा का इलाज चल रहा था और गणतंत्र दिवस की पूर्व-संध्या पर आयोजित किए जा रहे पुलिस समारोह के अंतर्गत मेरे बिगुल-वादन को सम्मिलित किया गया था बाबा के अनुमोदन पर।
“मैं सब कर लूँगी, आप चिंता न करें . . .” मैंने कहा।
उनके सामने बिगुल बजाना मुझे अब अच्छा नहीं लगता।
वे खूब टोकते भी और नए सिरे से अपने अनुदेश दोहराते भी;
“बिगुल वाली बाँह को छाती से दूर रखो, तभी तुम्हारे फेफड़े तुम्हारे मुँह में बराबर हवा पहुँचा सकेंगे . . .”
“अपने होंठ बिगुल की सीध में रखो और उन्हें आपस में भिनकने मत दो . . .” इत्यादि . . .इत्यादि।
“कैसे न करूँ चिंता?” बाबा खीझ गए, “जाओ और बिगुल इधर मेरे पास लेकर आओ। देखूँ, उसमें, लुबरिकेन्ट की ज़रूरत तो नहीं . . .”
बिगुल का ट्युनिंग स्लाइड चिकनाने के लिए बाबा उसे अक़्सर लुबरिकेन्ट से ओंगाया करते।
बिगुल से बाबा का संबंध यदि एक झटके के साथ शुरू हुआ था तो उससे विच्छेद भी झटके के संग हुआ। पहला झटका उनकी पुलिस की पेट्रोल ड्यूटी ने उन्हें उनके पैंतीसवें वर्ष में दिया था जब उसके अंतर्गत अपनी दाहिनी टाँग पर लगी चोट के परिणाम-स्वरूप वे पुलिस लाइन्स में ‘ब्यूगल कौलज़’ देने की ड्यूटी पाए थे और उनके लिए बिगुल सीखना अनिवार्य हो गया था।
दूसरा झटका उन्हें तब लगा था जब उसके चौथे ही वर्ष उसी घायल टाँग की एक गहरी शिरा में जम रहे खून का एक थक्का वहाँ से छूटकर उनके फेफड़ों की एक नाड़ी में आन ठहरा था, जिस कारण बिगुल में जा रही उनकी फूँक तिड़ी-बिड़ी हो बाहर निकलने लगी थी।
सधी हुई उनकी उस पें-पों की भाँति नहीं, जिसकी प्रबलता एवं मन्दता पुलिस लाइन्स के पुलिसियों की दैनिक परेड की स्थिति एवं कालावधि निश्चित करती रही थी, और जिसके, तद्नुसार वे आगे बढ़ते, दाएँ मुड़ते, पूरा घूमते और फिर छितर जाया करते।
यह ज़रूर था कि इन चार वर्षों में हम माँ-बेटी भी बाबा के बिगुल के संग उतना ही जुड़ चुकी थीं जितना वे स्वयं।
बल्कि उनसे भी ज़्यादा कारण बेशक अलग थे।
माँ के लिए वह उन बुरे दिनों में बाबा को उस प्रभामंडल में खिसकाने का माध्यम बन गया था जिसके प्रकाश में बाबा उसे किसी सेनापति से कम न दिखाई देते जबकि मेरे लिए वह एक ऐसी महाशक्ति का द्योतक बन चुका था जिसके बूते पर अपने उस चौदहवें वर्ष तक पहुँचते-पहुँचते मैं कई संगीत प्रतियोगिताएँ जीत चुकी थी और कई और भी जीतने की मंशा रखती थी।
बाबा से बिगुल को उसके मन्द स्वर, फंडामेंटल से उसे अपर पार्शलज़, निर्धारित स्वरान्तराल के प्रबल से प्रबलतम स्वर पकड़ने में मुझे सिद्धि प्राप्त हो चुकी थी।
बल्कि यही नहीं उनसे बिगुल सीखते समय मैं उस पर नयी धुनें भी निकालने लगी थी। उसकी यंत्ररचना की सीमाओं के बावजूद। यहाँ यह बताती चलूँ कि बिगुल में किसी अन्य कपाट की अनुपस्थिति में सुर बदलने वाली कोई जुगत नहीं रहती हैं और उस पर केवल एक ही हारमोनिक सिरीज़ बजायी जा सकती है। जिस पर उसके सुर की फेंक का विस्तार करने वाली शंक्वाकार नली छोटी होती है और घंटी कम फैली हुई। ऐसे में सारा कमाल मुँह को बटोरकर उसके अन्दर हवा छोड़ने में है सही अनुपात में। ज़ुबान से एक ‘सटौपर’ का काम लेते हुए। जो बिगुल के मुहाने पर जमे होंठों में बाहर की हवा के प्रवेश को रोके रखे और होंठ अपनी सिकोड़ को घटा-बढ़ा कर हवा में अपेक्षित स्फुरण पैदा कर सकें।
“बाहर आकर बाबा को सँभालो," अन्दर वाले कमरे में, बिगुल के पास माँ दिखाई दीं तो मैं झीखी, “वे मुझे फिर से बिगुल बजाने को कह रहे हैं और मुझसे उनकी हाँका-हाँकी और ठिनक-ठुनक अब और झेली नहीं जाती।
“अपने उस्ताद के बारे में ऐसे बोलती है?” बिना किसी चेतावनी के माँ ने ज़ोरदार एक तमाचा मेरे मुँह पर दे मारा, “जिनके फेफड़े उन्हें जवाब दे रहे है?”
“मतलब?” तमाचे की पीड़ा मैं भूल गयी।
“उनकी साँस अब समान रूप से चल नहीं पा रही और वे किसी भी दिन . . .”
माँ रोने लगीं।
“फिर हम क्या करेंगे? कहाँ जाएँगे?” बाबा के बिना अपने जीवन की कल्पना करना मेरे लिए असंभव रहा।
माँ ने मुझे अपने अंक में भर लिया और मेरे आँसू पोंछकर बोली, “हम घबराएँगे नहीं। हौसला रखेंगे। हिम्मत रखेंगे। ताक़त रखेंगे। उनमें ताक़त भरेंगे। उनके ये मुश्किल दिन अच्छे से कटवाएँगे . . .”
“उन्हें मालूम है?” मुझे कंपकपी छिड़ गयी।
“नहीं। और उन्हें मालूम होना भी नहीं चाहिए . . .”
“बिट्टो,” आँगन से बाबा चिल्लाए, “लुबरिकेन्ट नहीं मिल रहा तो छोड़ो उसे। बिगुल ही लेती आओ . . .”
“पहुँच रही है," माँ प्रकृतिस्थ हो चली।
कहना न होगा उस पुलिस समारोह में बिगुल को उसके पाँचों सुरों-बास, काउन्टरबास, बैरीटोन, औल्टो एवं सौपरैनो के धीमे, तीव्र, मन्द, मध्यम एवं प्रबल स्वरग्राम बाँधने में मैं पूर्णतया सफल रही और जैसे-जैसे उनके विभिन्न संस्पन्दन एवं अनुनाद हवा में लहराते गए, तालियों की गड़गड़ाहट के संग-संग पहिएदार अपनी कुर्सी पर बैठे बाबा का अपनी मूँछों पर ताव भी बढ़ता चला गया।
मेरे बिगुल-वादन के एकदम बाद समारोह की अध्यक्षता कर रहे हमारे कस्बापुर के पुलिस अधीक्षक मंच पर चले आये: “पुत्री के रूप में हमारे सरनदास को एक अमोल हीरा मिला है। यदि यह लड़की अठारह से ऊपर होती तो मैं इसे आज ही महिला कान्सटेबुलियरी में भरती करवा देता और सरकार को सुझाव भेजता कि देश की प्रत्येक महिला पुलिस टुकड़ी में अपना एक महिला बैंड होना चाहिए ताकि इस लड़की की तरह हमारी दूसरी होनहार बेटियाँ भी इस दिशा में नाम हासिल करें, कमाल दिखाएँ . . .”
घर लौटते ही बाबा ने मेरी पीठ थपथपायी, “तुमने आज मेरा सिर ऊँचा कर दिया . . .”
“आप जैसे कमाल के उस्ताद से सीखा है। मज़ाक है कोई?” मंत्रमुग्ध एवं विभोरमय उसी ताव-भाव से माँ ने बाबा की ओर देखा जो उनके बिगुल बजाते समय उसके चेहरे पर टपका करता था।
“तुम कौन कम बजनिया हो?” बाबा गदगद हो लिए, “बिगुल तो तुम भी अच्छा बजा लेती हो!”
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