हिचर-मिचर
कथा साहित्य | कहानी दीपक शर्मा15 Mar 2021 (अंक: 177, द्वितीय, 2021 में प्रकाशित)
इस वर्ष का आज मेरा पहला उपवास है। १६ जनवरी की इस पूर्णिमा के दिन। हर पूर्णिमा के दिन मैं उपवास रखता हूँ। माँ की स्मृति में। पिछले तिरपन वर्ष से। ३१ जनवरी, १९६१ की उस पूर्णिमा के बाद से, जिस दिन अन्ततोगत्वा वह अनहोनी आन घटी थी, जिसकी आहट मैं बचपन से सुनता आया था।
उस आहट की जगह बनाई थी, मनोविशेषज्ञ डॉ. गुप्त ने जिन्हें मेरे पिता ने मेरी माँ का इलाज सौंप रखा था।
तरह-तरह की आश्चर्यजनक घटनाओं को वह पूर्णिमा के साथ आन जोड़ते। कई हत्याएँ, पारिवारिक झड़पें, व्यावसायिक झगड़े, मानसिक अस्पतालों तथा इमरजेन्सी वार्डों में अधिकतम रोगियों के आगमन। और तो और, उनके अनुसार पागल कुत्ते भी अधिकतर पूर्णिमा ही को काटा करते थे।
“अब और हिचर-मिचर नहीं,” उस इकतीस जनवरी को माँ के कमरे के दरवाज़े पर पिता का महाघोष सुनते ही मैं अपने कमरे से वहाँ पहुँच लिया था, “इस कमरे से अपना सामान समेटो और यहाँ से फूट लो . . .”
मैं जानता था उन दिनों कोकिला चाची ने नई ज़िद पकड़ रखी थी: माँ के कमरे में अब वह रहेंगी, माँ नहीं। माँ को वह पिछवाड़े वाले कमरे में भिजवा देना चाहती थीं।
कोकिला चाची मेरे चाचा की विधवा थीं। विधवा वह दूसरी बार हुई थीं। पहली बार, सन् १९५६ में, जब तपेदिक-ग्रस्त उनके पहले पति का देहान्त हुआ था और दूसरी बार, सन् १९५९ में, जब मेरे चाचा एक सड़क दुर्घटना में जान गँवा बैठे थे।
“अपना ठाकुरद्वारा मैं नहीं छोड़ने वाली,” माँ अपने कमरे से उस कोने में बैठी थीं जिसमें उन्होंने अपने देवी-देवताओं की मूर्तियाँ सजा रखी थीं।
उस समय वह पूर्णिमा का प्रसाद तैयार कर रही थीं। प्रत्येक अष्टमी, चतुर्दशी, अमावस्या, संक्रांति एवं पूर्णिमा के दिन उपवास रखने वाली मेरी माँ नीले चाँद वाली पूर्णिमा के दिन विशेष प्रसाद तैयार किया करतीं– पंचमेवे का, जिसमें वह बादाम, छुहारे, किशमिश, चिरौंजी तथा गरी का सम्मिश्रण रखा करती थीं। ‘आज तो माह की यह दूसरी पूर्णिमा है’, सुबह उठते ही उन्होंने मुझे सूचित किया था, ‘डरती हूँ, बारह की जगह तेरह पूर्णिमा वाला यह साल कोई उलटा पासा न फेंक दे . . .’ और मैंने उत्तर में अपने भूगोल अध्यापक की व्याख्या सुना दी थी, साढ़े उनतीस दिन का एक चन्द्रमास, हर दूसरे तीसरे वर्ष इस तेरहवीं पूर्णिमा को लाता ही लाता है। कभी एक ही माह में एक की जगह दो पूर्णिमा लाकर, तो कभी त्रैमासिक किसी एक ही ऋतु में तीन पूर्णिमा की जगह चार पूर्णिमा लाकर। इसी को तो नीला चाँद, ब्लू मून, कहा जाता है।
“तुम्हारे साथ तुम्हारा ठाकुरद्वारा भी उधर वाले कमरे में पहुँचा दिया जाएगा,” मेरे पिता अधीर हो उठे थे, “चलो, समेटो अपना सामान।”
“तुम जाओ यहाँ से,” माँ ने अपने सरौते के जबड़े में एक बादाम जा टिकाया था, “मुझे यहाँ से कहीं नहीं जाना।”
“कैसे नहीं जाएगी?” मेरे पिता चिल्लाए थे।
“नहीं जाना है। यहीं जीना है। यहीं मरना है,” माँ ने अपने सरौते के उत्तोलक पर अपना दाब बढ़ाया था।
माँ का यह सरौता चाँदी का था। ग्यारह तोले तौल का। एक पुरुष का आकार लिए जिसके मुँह के पीछे की ओर बने उत्तोलक को ऊपर उठा देने पर उसका मुँह खुलकर अपने जबड़े अनावृत्त करता था।
“यहाँ कैसे जिएगी?”
“ऐसे” और सरौते के जबड़ों में जकड़े हुए अपने उस बादाम को लहराकर उसकी गिरी से उसका छिलका माँ ने अलग उछाल दिया था।
छिलका मेरे पिता की दिशा में जा गिरा था।
“जानती नहीं मुझे?” मेरे पिता माँ के सरौते पर झपट लिये थे, “नहीं जानती मुझे?”
“आप मेरे कमरे में चलो, अम्मा,” माँ की बाँह पर मैंने अपना हाथ जा टिकाया था। डर गया था, मेरे पिता उस पूर्णिमा को भी माँ का मुँह और हाथ-पैर बाँध न दें। कोकिला चाची की सहायता लेकर।
उस सावधानी के नाम पर, जिसका आधार डॉ. गुप्त ने दे रखा था। उनका कहना था कि पूर्णिमा का ‘ल्यूनसी इफ़ेक्ट’ (पागलपन का आभास) मनोरोगियों के उन्माद को कार्यरूप में परिणत कर दिया करता था। चूँकि जल का संरक्षण हमारे स्नायुतंत्र के अणुओं के संग रहता है, इस कारण मनोरोगी के दिमाग में पूर्णिमा का पूरा चाँद उछाल ले आया करता है। उस ज्वार-भाटा के समान जो समुद्र के जल में चाँद प्रेरित करता है। बाद में बेशक मैंने जब इस विषय पर शोध किया तो पाया कि समुद्र में ज्वार-भाटा को लाने में पूरे चाँद की भूमिका अवश्य ही महत्त्वपूर्ण है किन्तु उसका प्रभाव केवल समुद्र के वृहद जल तक ही सीमित रहता है, मानव शरीर के लघु आयाम में ज्वार उठाने में वह पूर्णतया अक्षम है।
“तू कहाँ से आया है, अबे? चल, दूर हट!” माँ ने मेरा हाथ नीचे झटक दिया था, “मैं यह कमरा नहीं छोड़ने वाली।”
आज मैं यह भी समझता हूँ मेरे प्रति माँ का दुर्व्यवहार जहाँ उन्हें दूसरों के प्रति भी ऐसा करने की छूट देता था वहीं कोकिला चाची को अपनी अनर्गल सुनाने का अवसर भी प्रदान कर दिया करता था, ‘शुरू ही से बावली है बेचारी! तुझे जनते समय ही जब इसने न कोई प्रसौती जानी और न ही कोई प्रसूति। लोग-बाग बताया तो करते हैं, बस मशीन की तरह चिर्चिरायी भर थी कि डॉक्टरों ने इसे खोलकर तुझे बाहर निकाल लिया।”
“अम्मा,” मेरी घबराहट बढ़ ली थी और मैं माँ की छाती से जा चिपका था। रोता-काँपता हुआ।
“रोता क्यों है, पगले? गीदड़ है तू? इस कमरे से मुझे कोई नहीं भगा सकता जान ले तू और जान ले तेरा बाप। मेरी सास लाई थी मुझे यहाँ। मेरे बाबूजी से मोटा दहेज वसूलने के बाद। आज बाबूजी ही होते तो पूछते तेरे बाप से, यह कोकिला कौन है? इस लिल्ली-घोड़ी के पंचांग में तू चौबीसों घंटे घुटने क्यों टेक रहा है? माथा क्यों टेकता है? तंत्री क्यों बजाता है? ताल क्यों बजाता है? झाँझ क्यों बजाता है? नगाड़ा क्यों बजाता है? तुरही क्यों बजाता है?” माँ अपनी कृत्रिम ठीं-ठीं छोड़ती चली गई थीं।
“बच्चे के सामने अंड-बंड बकती है?” माँ के हाथ से छीना हुआ वह सरौता मेरे पिता ने माँ के माथे पर दे मारा था।
माँ के माथे से ख़ून का फव्वारा छूट पड़ा था।
ख़ून रोकने के लिए मैं बर्फ़ भी लाया था लेकिन ख़ून ने रुकने का नाम नहीं लिया था।
परिवार में हर किसी को माँ की मृत्यु का कारण एक दुर्घटना बताया गया था जिसकी व्याख्या कोकिला चाची ने अपने ही ढंग से दी थी, “बेचारी के दिमाग़ में कुछ ऐसा उछाल आया कि अपने ही सरौते से अपना माथा फोड़ लिया। डाक्टर गुप्त बतावें तो हैं जैसे चाँद समुन्दर में ज्वार लाता है वैसे ही पूर्णिमा दिमाग में उठाल ले आया करती है। मानुस हमारे शरीर का सबसे ज़्यादातर भाग यही दिमाग़ जो ठहरा।”
सच मैंने भी किसी पर प्रकट नहीं किया था।
डरता था मेरे पिता मेरा कपाट भी चिटका देंगे।
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