हक़दारी
कथा साहित्य | कहानी दीपक शर्मा1 Feb 2020 (अंक: 149, प्रथम, 2020 में प्रकाशित)
“उषा अभी लौटी नहीं है”- मेरे घर पहुँचते ही अम्मा ने मुझे रिपोर्ट दी।
“मैं सेंटर जाता हूँ,” मैं फ़िक्र में पड़ गया।
दोपहर बारह से शाम छह बजे तक का समय उषा एक कढ़ाई सेंटर पर बिताया करती। अपने रोज़गार के तहत। शहर के बाहर बनी हमारी इस एल.आई.जी. कॉलोनी के हमारे सरकारी क्वार्टर से कोई बीस मिनट के पैदल रास्ते के अंदर।
“देख ही आ,” अम्मा ने हामी भरी, “सात बजने को हैं.....”
“उषा के मायके से यहाँ फोन आया था,” कढ़ाई सेंटर की मालकिन ‘मी’ मुझे देखते ही मेरे पास चली आई।
उस सेंटर की लेबर सभी स्त्रियाँ अपनी मालकिन को ‘मी’ ही बुलाया करतीं। टेलीफोन पर अपने नाम की जगह हर बार उसे जब लेबर ने ‘मी’ जवाब देते हुए सुना तो बेचारी अनपढ़ यही सोच बैठीं कि उसका नाम ही ‘मी’ है। उषा के बताने पर मैंने ‘मी’ का ख़ुलासा खोला भी। तब भी आपस में वे उसे ‘मी’ ही कहा करतीं।
“कौन बोल रहा था?” मैंने पूछा।
“उसकी बहन शशि, बता रही थी, उनकी माँ की हालत बहुत ख़राब है.....”
“कितने बजे आया यह फोन?”
“यही कोई तीन, साढ़े तीन बजे के बीच.....”
मैं घर लौट आया।
“पन्नालाल कुछ ज़्यादा ही अलगरजी दिखा रहा है,” अम्मा ने डंका पीटा और लड़ाई का फ़रमान जारी कर दिया, “पाजी ने हमें कुछ बताने की कोई ज़रूरत ही नहीं समझी? और जब हम पूछेंगे तो बेहया बोल देगा कि कढ़ाई सेंटर से ख़बर ले ली होती.....”
“देखो तो,” मुझे शक हुआ। “उषा यहाँ से कुछ ले तो नहीं गई?”
चार महीने के आर-पार फैली हमारी गृहस्थी की पटरी सही बैठनी बाक़ी रही, उषा ही की वजह से। बीच-बीच में वह पर निकाल लिया करती। परी समझती रही अपने को।
उषा की क़ीमती साड़ियाँ और सोने की बालियाँ अम्मा के ताले में बंद रहा करतीं। सभी को वहाँ ज्यों की त्यों मौजूद देखकर हमें तसल्ली मिली।
“तारादेई ज़रूर ज़्यादा बीमार रही होगी,” मैंने कहा। उषा की माँ का नाम तारादेई था और बाप का पन्नालाल।
“तो क्या उसे फूँककर ही आएगी?” अम्मा हँसने लगी।
अगली सुबह दफ़्तर जाते समय मेरी साइकिल अपने आप ही उषा के मायके घर की तरफ मुड़ ली। कढ़ाई वाली गली। पन्नालाल का वहाँ अपना पुश्तैनी मकान था। तारादेई से पहले उसकी माँ कढ़ाई का काम करती रही थी और अब तारादेई और उसकी बेटियाँ उसी की साख के बूते पर ख़ूब काम पातीं और अच्छे टाइम पर निपटा भी दिया करतीं। इसी पुराने अभ्यास के कारण उषा की कढ़ाई इधर हमारे एरिया-भर में भी मशहूर रही। कढ़ाई सेंटर की मालकिन तो ख़ैर उस पर लट्टू ही रहा करती।
“इधर सब लोग कैसे हैं?” पन्नालाल के घर के बगल ही में एक हलवाई की दुकान थी। हलवाई पन्नालाल को बहुत मानता था और मेरी ख़ूब ख़ातिर करता। मुझे देखते ही एक दोना उठाता और कभी ताज़ा बना गुलाबजामुन उसमें मेरे लिए परोस देता तो कभी लड्डू की गरम बूँदी।
“आओ बेटा!” उस समय वह गरम जलेबी निकाल रहा था। हाथ का काम रोककर उसने उसी पल कड़ाही की जलेबी एक दोने में भर दीं, “इन्हें पहले चखो तो.....”
“कल उषा यहाँ आई थी?” जलेबी मैंने पकड़ ली।
“तारादेई अस्पताल में दाख़िल है,” हलवाई ने कहा, “उसकी हालत बहुत नाज़ुक है। सभी बच्चियाँ वहीं गई हैं.....”
उषा के परिवार में भी मेरे परिवार की तरह एक ही पुरुषजन था- पन्नालाल। बाक़ी वे पाँच बहनें ही बहनें थीं। शादी भी अभी तक सिर्फ़ उषा ही की हुई थी।
“सिविल में?” मैंने पूछा।
“वहीं ही। सरकारी जो ठहरा.....”
उस दिन दफ़्तर में अपना पूरा समय मैंने ऊहापोह में काटा।
अस्पताल जाऊँ? न जाऊँ?
अम्मा क्या बोलेगी? क्या सोचेगी?
मुझे बताए बग़ैर ससुराल वालों से मिलने लगा? मेरी सलाह बग़ैर उधर हलवाई के पास चला गया? जलेबी भी खा ली?
कढ़ाई वाली गली में मेरे आने-जाने को लेकर अम्मा बहुत चौकस रहा करती। उषा के परिवार में से मेरी किस-किससे बात हुई? वहाँ मुझे क्या-क्या खिलाया-पिलाया गया? क्या-क्या समझाया-बुझाया गया?
सिविल जाना फिर मैं टाल ही गया।
शाम घर पहुँचा तो अम्मा फिर पिछौहे वैर-भाव पर सवार हो ली, “समधियाने की ढिठाई अब आसमान छू रही है। अभी तक कोई ख़बर नहीं भेजी.....”
“ढिठाई है तो,” .....मैंने झट हाँ में हाँ मिला दी।
हलवाई की ख़बर न खोली।
अम्मा के सवालों की बौछार के लिए मैं तैयार न था।
“दिल अपना मज़बूत रखना अब। इतनी ढिलाई देनी ठीक नहीं। तारादेई बीमार है तो ऐसी कौन-सी आफ़त है? उषा के अलावा उधर उसे देखने वालियाँ चार और हैं। उषा को क्या सबसे ज़्यादा देखना-भालना आता है? पन्नालाल के पास मानो फ़ुरसत नहीं तो उषा को यहाँ आकर हमें पूछना-बतलाना ज़रूरी नहीं रहा क्या?”
तीसरा दिन भी गुज़र गया। बिना कोई ख़बर पाए।
फिर चौथा दिन गुज़रा। फिर पाँचवाँ। फिर छठा।
पास-पड़ोस से उषा को पूछने कई स्त्रियाँ आईं। सभी की कढ़ाई उषा की सलाह से आगे बढ़ा करती।
“उषा कहीं दिखाई नहीं दे रही?” अम्मा से सभी ने पूछा, “रूठकर चली गई क्या? हुनर वाली तो है ही। इधर काम छोड़ेगी तो उधर पकड़ लेगी.....”
“काम तो उधर उसने पकड़ ही लिया है,” अम्मा के पास हर सवाल का जवाब रहा करता। “उसकी माँ को कढ़ाई का कोई बड़ा ऑर्डर मिला था और अपनी इस गुलाम को उसने बुलवा भेजा। हमें कौन परवाह है? हमारी बला से! उनकी गुलामी उसे भाती है तो भायी रहे.....”
सातवें रोज पन्नालाल मेरे दफ़्तर चला आया।
मन में मेरे मलाल तो मनों रहा, लेकिन खुलेआम उसकी बेलिहाज़ी मुझसे हो न पाई और लोगों को दिखाने-भर के लिए मैंने उसके पाँव छू लिए। हमारे दफ़्तर में कई लोग उसे जानते थे, हालाँकि उसका दफ़्तर हमारे दफ़्तर से पंद्रह-सोलह किलोमीटर की दूरी पर तो ही था। हम चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारी जिस यूनियन के बूते बोनस और तरक्क़ी पाते रहे, उस यूनियन का वह लगातार तीन साल तक सेक्रेटरी रह चुका था और इन दिनों उसका वाइस प्रेसिडेंट चुना गया था। मेरे पिता के गुज़रने पर इस दफ़्तर में मृतकआश्रित की हैसियत से मुझे उनकी चपरासीगिरी दिलाने में भी उसने ख़ूब दौड़-धूप की थी, हालाँकि अम्मा तो तभी बूझी थीं, ‘इस पन्नालाल के मन में अपनी एक लड़की को इधर खिसकाने का इरादा है.....’
“हमारे साथ बुरी बीती है,” पन्नालाल ने मेरे कंधे पर अपना एक हाथ ला टिकाया, “बहुत बुरी बीती है, बेटा! तारादेई के दोनों गुर्दे जवाब दे गए थे। बहाली की एक ही सूरत बची थी, उसके एक गुर्दे की बदलाई.....”
“लेकिन गुर्दा तो बहुत ऊँची क़ीमत पर बिकता है,” मुझे अपने दफ़्तर में अगर कोई एक चीज़ बहुत पसंद थी तो वह था- सुबह का अख़बार। उसे मैं ज़रूर पढ़ता और रोज़ पढ़ता। वहीं अख़बार ही से मैंने जाना था, उधर पंजाब के कुछ पेशेवर डॉक्टर गुर्दों की ख़रीद और बेची में धर लिए गए थे। ग़रीब रिक्शेवालों-मज़दूरों से औने-पौने दाम पर गुर्दे ख़रीदते रहे थे और अमीर मरीज़ों से एक-एक गुर्दे की क़ीमत की एवज़ में चालीस से पचास हज़ार रुपए तक ऐंठते थे।
“नहीं!” पन्नालाल झेंप गया। “डॉक्टर लोग बाहर से गुर्दा तभी ख़रीदने को बोलते हैं जब घरवालों में से किसी का भी ख़ून और टिश्यू मरीज़ से मेल न खाता हो.....”
“उषा का गुर्दा लेंगे?” मुझे खटका हुआ।
“ख़ून ही उसका मेल खाया। टिश्यू ही उसका मेल खाया,” पन्नालाल की झेंप बढ़ गई, क्या मैंने और क्या उन चारों लड़कियों ने सभी टेस्ट करवाए, लेकिन ना, डॉक्टर लोग ने उषा ही के लिए हामी भरी.....”
“गुर्दा ले भी लिया?” मेरे तलुवों और हथेलियों पर अँगारे दौड़ गए।
“मजबूरी ही ऐसी रही। क्या करते? कहाँ जाते?”
“हमारे पास आते,” पन्नालाल का हाथ अपने कंधे से मैंने नीचे झटक दिया।
“कब आते? एक बार जो अस्पताल पहुँचे तो फिर दम मारने की फ़ुरसत न मिली। इस बीच हलवाई भाई ने लड़कियों को बतला दिया था, तुम्हें ख़बर है। पूरी ख़बर है। हमने बल्कि सोचा, तुम ज़रूर कहीं फँस गए हो जो दोबारा ख़बर लेने नहीं आ पाए, न घर पर, न ही अस्पताल में.....”
“उषा कहाँ है?” मैंने थूक निगला।
“तुम्हारे क्वार्टर पर। अभी उसे वहीं पहुँचाकर आ रहा हूँ। थोड़ी कमज़ोरी की हालत में है। डॉक्टर लोगों ने दस दिन का आराम बतलाया है। ध्यान रखना.....”
मेरी तरफ पन्नालाल की पीठ होने की देर थी कि साइकिल स्टैंड से अपनी साइकिल मैंने उठाई और अपने क्वार्टर की ओर लपक लिया।
“आ गई है,” अम्मा बाहर के बरामदे की दीवार की ओट में हाथ का पंखा लिए बैठी थी। दो-दो क्वार्टरों के सेट में बने हमारे साझे बरामदे के बीचों-बीच हमने और हमारे बगल वालों ने खुली ईंटों की एक दीवार खड़ी कर रखी थी, ताकि अपनी-अपनी हक़दारी का दोनों को एक समान ध्यान रहे।
“कहाँ है?” मैं चीखा।
अँगारों की चुनचुनाहट अब मेरी बोटी-बोटी में दाख़िल हो चुकी थी।
“क्या बात है?” छत के पंखे वाले अपने कमरे से उषा बाहर निकल आई।
हाल बेहाल। रंग एकदम पीला। मानो सारा ख़ून निचुड़ गया हो।
“तेरी करतूत सुनकर आ रहा हूँ.....”
“कैसी करतूत?” अम्मा की आवाज़ में ख़ुशी झूल-झूल गई।
“क्या किया है मैंने?” उषा मुक़ाबले पर उतर आई।
“पचास हज़ार का अपना गुर्दा अपनी माँ को दान में दे आई हो। बिना हमसे पूछे-जाने.....”
“क्या?” अम्मा की चीख निकल गई, “हाय-हाय! जभी मैं कहूँ, आते ही यह बिस्तर पर क्यों लेट ली है? पन्नालाल इसे बाहर ही से छोड़कर कैसे लौट लिया है? अंदर मुझसे मुआफ़ी माँगने क्यों नहीं आया? लेकिन आता भी तो क्या मुँह लेकर आता? क्या कहता? लीजिए, लीजिए, गूदा मैंने धर लिया है और गुठली लौटा रहा हूँ.....”
“गुर्दा मेरा था,” उषा ऊँची उड़ने लगी, “उस पर मेरा हक़ था। यहाँ से उसे नहीं चुराया था मैंने। यहाँ से उसे नहीं उठाया था मैंने.....”
“तेरी यह मजाल?” दीवार की खुली एक ईंट मैंने उठाई और उसके सिर पर दे मारी, “इतना सब कर लेने के बाद अब अपना हक़ हम पर जतलाएगी?”
ख़ून का फव्वारा उसके सिर से छूटते हुए अम्मा ने और मैंने एक साथ देखा, लेकिन अम्मा पहले हरकत में आई- “दीवार पर अब गिर पड़ी है, इस कमज़ोर हालत में। देख तो बेटे, इसे कहीं ज्यादा चोट जो नहीं लग गई?”
ओट में खड़े सभी पड़ोसी बच्चे बाहर निकलकर हमारे पास चले आए।
ख़ून देखकर बगल वाला पड़ोसी बच्चा अपनी माँ को लिवा लाया।
उसने इधर-उधर से बर्फ़ का जुगाड़ भी किया।
ख़ून रिसना अब बंद हो, जब बंद हो, कब बंद हो..…
अस्पताल या डॉक्टर का नाम हममें से किसी के होंठों पर न आया।
आता भी कैसे?
हमारे इन क्वार्टरों से डॉक्टर तो एक तरफ़, डॉक्टर की जात भी मीलों-मील दूर रही।
बर्फ़ की आवाजाही की अफ़रा-तफ़री लंबी न चली।
जल्दी ही उषा परले पार हो गई।
मातमपुरसी के लिए जैसे ही जुटाव बढ़ने लगा, मैं अम्मा को अलग ले गया- “किसी ने मुझे ईंट चलाते हुए देखा क्या?”
“देखा भी होगा तो किसी को हमसे क्या मतलब?” अम्मा ने मुझे भींच लिया, “और फिर कमबख़्त उस लड़की में जान ही कितनी बची थी? टका-भर?”
“पन्नालाल चुप बैठने वाला नहीं.....”
“जिसने हमें उलटे उस्तरे से मुँडा? अँधेरी देकर बेशक़ीमती हमारी चीज़ उषा से निकिया ली? तिस पर, इतने दिन हमें बेख़बर रखा?”
“यूनियन में उसका रुतबा ऊँचा है.....”
“कैसा रुतबा? चार-चार लड़कियाँ जिसकी छाती पर मूँग दल रही हों, क्या कहेगा वह अपनी यूनियन से? और अगर कुछ कहना शुरू करेगा भी तो उसकी दूसरी बेटी इधर लिवा लाएँगे, अपने पास, तेरी बहू बनाकर.....”
मालूम नहीं, कढ़ाई वाली गली के उस हलवाई की बेदाम वह जलेबी बेमौक़ा मेरी जबान पर कैसे आ बैठी और अम्मा की बाँहों का घेरा छुड़ाकर मैं कै करने लगा।
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