खुली हवा में
कथा साहित्य | कहानी दीपक शर्मा1 Nov 2023 (अंक: 240, प्रथम, 2023 में प्रकाशित)
तारीख़ और साल उषा को याद है . . .10 दिसंबर, 1975 . . .
ऑपरेशन की पूर्व-संध्या डॉ. सत्या दुबे ने उसे अस्पताल के कमरे में बुला लिया था।
उसे एनीमा, एन्टीबायोटिक और मैगनीशियम साइट्रेट दिलाने हेतु।
उसी रात उसे वह सपना दिखाई दिया था . . .
पूरी नींद में?
आधी नींद में?
या फिर जागते में ही?
♦ ♦ ♦
वह सुरेश के बँगले पर है . . .
अन्दर के बरामदे के फ़र्श पर बिछी बर्फ़ के बीच . . .
और घर-भर में सुरेश समेत पुलिस वर्दियों की आवा-जाही चालू है . . .
“मार्क्स का वह बंदा आ पहुँचा है,” उषा के बाबूजी को सुरेश इसी तरह लक्षित करता है, “उषा के चेहरे से यह बिंदी, लिपस्टिक, सब पोंछ डालो . . .”
“पति के द्वार से अर्थी उठ रही है,” बड़ी ननद ने हाथ नचाया है, “हम जैसी चाहें, वैसी सजाएँ . . .”
“सुहागिन मरी है,” मँझली ननद ने मुँह बिचकाया है, “तो सुहागिन की तरह ही फूँकी जानी चाहिए . . .”
“डोली के समय बिंदी-लिपस्टिक के लिए उसने आँख तरेरीं सो तरेर लीं,” छोटी ननद ने मुँह खोला है, “अब कैसी दख़लंदाज़ी?”
अपने चेहरे को उषा ने मेकअप के सामान से हमेशा अनछुआ रखा था, शादी से पहले भी और शादी के बाद भी . . .
“न,” सुरेश ने प्रतिवाद किया है, “तुम इसकी बिंदी-लिपस्टिक पोंछ ही डालो . . .”
“हत् तेरे की!” उषा की सास ने सुरेश की पीठ पर एक हल्का धौल जमाया है, “डरते हो? अब भी डरते हो? उससे जिसे जेल में ठूँसने के लिए तुम्हारा एक इशारा ही काफ़ी है?”
कांग्रेस सरकार द्वारा लाए गए आपातकाल के उन दिनों में पुलिस-अफ़सरों के अधिकार क्षेत्र में ’मीसा’ में शामिल हो जाने से किसी भी ग़ैर-कांग्रेसी राजनैतिक पार्टी के सदस्य के संग ज़्यादती वैध थी।
“आप चले जाइए, बाबूजी,” बर्फ़ के बीच से उषा बैठी है, “आपसे मिलने कस्बापुर मैं आपके पास आऊँगी। आप चले जाइए, चले जाइए . . .”
♦ ♦ ♦
सुबह ऑपरेशन से कुछ पहले दो परिचारिकाएँ उषा को अस्पताल के कपड़े पहनाने आईं।
पेटीकोटनुमा एक स्कर्ट, कुर्तेनुमा एक टाॅप और पगड़ीनुमा एक स्कार्फ़।
लंबे दोनों मोज़े एड़ियों से फटे थे।
“हाथ, कान और गले का सामान भी उतार दीजिए,” दोनों में से लंबी आया ने कहा।
“अरे!” नाटी आया ने आश्चर्य जतलाया, “कान में आपने कुछ भी नहीं पहन रखा? बल्कि कान तो आपके छिदे भी नहीं?” नाटी आया की हैरानी लंबी आया की दिशा में उछल ली।
उषा कुल जमा दस बरस की थी जब उसकी माँ स्वर्ग सिधार गई थीं और माँ के बाद बाबूजी ने उसे लड़की की मान्यता दी ही न थी।
अपना मंगलसूत्र, घड़ी और कंगन पर्स में रखते समय एक पर्ची उषा के हाथ से आ टकराई।
“मेरा एक काम है,” पर्ची के साथ उषा ने सौ रुपए का एक नोट भी अपने पर्स से बाहर निकाल लिया।
“बताइए,” दोनों ने उत्सुकता दिखाई।
“इस पर्ची पर मेरा एक टेलीफ़ोन नम्बर है . . .”
पिछले चार महीनों से भूमिगत बाबूजी इस नम्बर से सम्बद्ध कस्बापुर वाले चाचा के पास रह रहे थे।
“यहाँ कोई ख़बर भेजनी है क्या?” नाटी ने पूछा।
“हाँ,” उषा का गला भर आया, “तभी जब मेरा ऑपरेशन गड़बड़ हो जाए . . .”
“आपका ऑपरेशन हरगिज़ गड़बड़ न होगा। न होना चाहिए। हम तो आपसे अपने इनाम की क़यास लगाए बैठी हैं,” लंबी आया ने कहा।
“तुम दोनों में टेलीफ़ोन के दफ़्तर कौन जा सकती है?” उषा ने पूछा।
उस साल सबस्क्राइबर ट्रंक डायलिंग का चलन अभी तक आया न था। बाद में आए एसटीडी बूथ अथवा आज के मोबाइल की कल्पना तक न थी। दूसरे शहर में फोन मिलाने के लिए बाक़ायदा ट्रंक ’काल’ बुक करानी पड़ती थी।
“हम चली जाएँगी,” नाटी ने कहा, “टेलीफ़ोन विभाग में हमारा घरवाला जान-पहचान रखता भी है।”
“ठीक है,” उषा ने पर्ची और नोट नाटी के हवाले कर दिए, “मगर इसे बहुत ध्यान से रखना। बाहर कहीं साहब को न पकड़ा देना। बेध्यानी से वे इसे खो सकते हैं . . .”
“हम समझ रही हैं,” नाटी की उत्सुकता बढ़ ली, “यह किसका नम्बर है भला?”
“मेरे चाचा का,” उषा ने कहा, “और अगर मेरा ऑपरेशन ठीक-ठाक हो जाता है तो फिर यह पर्ची मुझी को ज्यों की त्यों लौटा देना . . . अपनी राजी-ख़ुशी की ख़बर मैं आप ही फिर उन्हें दे दूँगी . . .”
“यह सब क्या है?” सुरेश ने कमरे में आते ही उषा की बदली वेशभूषा पर अपनी निगाह फेरी।
वह अपनी पुलिस वर्दी में था। उषा के रात के सपने वाली पुलिस वर्दी में। अपने नाम और ओहदे के बिल्लों के साथ। अपने स्टार्ज़ और अपनी रिवाल्वर के साथ।
“क्यों?” उसकी पोशाक की छोटी सी छोटी तबदीली पर ध्यान देने वाले सुरेश की हैरानी उषा समझ सकती थी, “बहुत ख़राब लग रही हूँ?”
“नहीं। ख़राब नहीं। सिर्फ़ अजीब और अजनबी . . .”
“यह मेरा पर्स है,” उषा ने अपना बटुआ सुरेश को सौंप दिया, “इसमें मेरी सभी चीज़ें रखी हैं . . . मेरे बैंक की पास-बुक, चेक-बुक . . . मेरी अलमारी की चाबी . . .
“मेरा मंगलसूत्र . . . मेरी घड़ी . . . मेरा ब्रेसलेट . . .”
“तुम्हारी डाॅ. दुबे से मिलकर आ रहा हूँ,” सुरेश ने उषा का बटुआ अपने सरकारी ब्रीफ़केस में सँभालकर रख दिया, “उसकी प्रिंसिपल ने, विभागाध्यक्ष ने, हेल्थ डायरेक्टर ने सभी ने उसे सतर्क कर दिया है, तुम शहर के एसएसपी की पत्नी हो; उसे तुम्हारा विशेष ध्यान रखना होगा . . .”
“थैंक यू,” उषा का दिल डूब गया। अपनी पदवी और अपने पद के प्रति उषा को सचेत रखने का एक भी अवसर सुरेश अपने हाथ से जाने क्यों नहीं देता?
“चलें?” अस्पताल की दो और परिचारिकाएँ व्हील चेयर ले आईं।
“इस पर बैठना ज़रूरी है क्या?” उषा ने पूछा, “अभी तो मैं चल सकती हूँ . . .”
“आपरेशन थिएटर में जूते-चप्पल ले जाने की मनाही है,” नाटी आया ने उषा के कंधे थपथपाए।
“बहादुरी का तमगा अभी भी तुमसे दूर ही रहा,” सुरेश हँसने लगा।
“अपना ध्यान रखिएगा,” अनायास उमड़ आए अपने आँसू उषा ने पीछे धकेल दिए।
“लास्ट फ़ेमस वर्डज़ (तुम्हारे आख़िरी शब्द)?” सुरेश फिर हँस पड़ा।
“मेरे बाबूजी का भी।”
“क्यों भाई?” सुरेश की हास्यकर मुद्रा तुरंत लुप्त हो ली, “उसने मेरा क्या सँवारा है? बल्कि तुमसे कोई पूछे तुम्हारा भी उसने क्या सँवारा है? तुम्हारी पढ़ाई तुम्हारे वजीफ़ों ने निबटा दी और तुम्हारी शादी मेरी मूढ़मति ने . . .”
“चलें?” व्हील चेयर के साथ चारों परिचारिकाएँ उषा को कमरे से बाहर ले आईं।
“नमस्कार, सर,” कमरे के दरवाजे़ को घेरे वर्दीधारी एक पूरी पलटन ने उषा को सलाम ठोंका और सुरेश के मंडलाकार आ खड़ी हुईं। सरकार द्वारा मिला सुरक्षा-घेरा सुरेश के साथ-साथ बना रहता।
व्हील चेयर ऑपरेशन थिएटर जा पहुँची।
“उषा पाठक?” स्त्रियों का एक और झुंड उषा की ओर बढ़ आया।
उनमें से किसी को भी उषा पहचानती न थी। वह डाॅ. सत्या दुबे के निजी नर्सिंग होम की मरीज़ रही थी और यहाँ सिर्फ़ ऑपरेशन के लिए लाई गई थी।
“जी,” उषा ने कहा।
“आप इधर मेज़ पर आ जाइए,” उनमें से एक स्वर मुखरित हुआ, “डाॅ. दुबे के लिए आपको तैयार करना है . . .”
“जी . . .”
“लाएसिस आव एन्डोमीट्रियौमा?” किसी ने पूछा।
“आव द लेफ़्ट ओवरी,” दूसरी ने जवाब दिया।
दो साल के उसके बाँझपन और पेट के कष्ट को देखकर सुरेश जब उषा को डाॅ. सत्या दुबे के पास लेकर गया था तो तरह-तरह की जाँच-परख के दौरान उषा की अल्ट्रासाउंड रिपोर्ट ने उसकी बीमारी खोज निकाली थी। उषा की बायीं डिम्बग्रंथि में एन्डोमिट्रियम नाम के टिश्यू का अनियमित अवरोध। जिसे दूर करने के लिए ऑपरेशन अनिवार्य था। अपने बाबूजी के लिए अपने को बचाव-जंगला मान रही उषा ने अपना यह ऑपरेशन टाल जाना चाहा था किन्तु सुरेश ने उसकी बात न मानी थी, “मैं एक्शन में यक़ीन रखता हूँ। प्रौम्पट एक्शन में। तत्काल कार्यवाही में। सिर्फ़ एक्शन ही गड़बड़ी ख़त्म करने का एकमात्र चारा है . . .”
“उम्र? छब्बीस साल?” उषा की नाक की तरफ़ एक हाथ बढ़ आया।
तिक्त और मुलायम।
“जी . . .”
“कहीं काम करती हैं कोई?”
“जी . . .”
जिस सरकारी प्रयोगशाला में उषा पिछले तीन वर्षों से काम कर रही थी वह उसकी आँखों के सामने आन प्रकट हुई।
साथ में उसे दिखाई दी अपनी ही आकृति, विभिन्न रस-द्रव्यों के बीच . . .
“कैमिस्ट (रसायनज्ञ) हैं?”
“जी . . .”
एक झटके के साथ उषा के सामने का दृश्य बदल गया . . .
♦ ♦ ♦
कस्बापुर के अपने चाचा के घर का गेट वह लाँघ रही है . . .
“कौन है?” बाबूजी हाथ धो रहे हैं . . . जाने कैसे वह जब भी उन्हें उनसे दूर देखती है, वे उसे अपने हाथ धो रहे मिलते हैं . . . बस्तीपुर में जीव-विज्ञान के अध्यापक रहे उसके बाबूजी अपने काम से लौटने पर हाथ धोने में ढेरों समय लगाया भी करते . . .
“मैं आई हूँ,” वह कहती है . . .
“मैं आ रहा हूँ,” बाबू कहते हैं, “बस, हाथ धो लूँ . . .”
“तुम्हारा सामान कहाँ है?” उसकी चाची उसके पास आ खड़ी हुई हैं . . .
“नहीं है,” वह रोने लगी है . . .
“ऐसा ही होता है,” चाची कहती हैं, “कचहरी में हुई शादी के बाद होता ही ऐसा है . . . कचहरी दोबारा जाना ही पड़ता है फिर . . . पहले शादी की रजिस्ट्री के लिए, फिर तलाक़नामे के लिए . . .”
“उषा,” जल्दी में आधे-धुले साबुन-लगे हाथों के साथ बाबूजी उसके पास आ पहुँचते हैं, “इधर आना पहले . . .”
वे उसे चाची से अलग बैठक में ले गए हैं . . .
“तुमने कोई फ़ैसला लिया क्या?” उसके कंधों पर टिकाने जा रहे अपने गीले हाथ बाबूजी रास्ते में रोक लेते हैं, “या सुरेश का कोई फ़ैसला तुम्हें पसन्द नहीं आया?”
वह रोती चली जाती है . . .
“मैंने आपको चेताया था न?” चाचा अपनी बैठक में आ घुसते हैं, “सुरेश सही नहीं रहेगा। छुरी-काँटे वाले उस कल्चर में उषा का निबाह न होगा। वहाँ ये चीज़ें सिर्फ़ खाने के लिए ही इस्तेमाल नहीं होतीं . . .”
“मैं हर स्थिति के लिए तैयार हूँ,” बाबूजी की आवाज़ लरजी है . . . जब भी वह आपा सँभाल कर बात करते हैं उनकी आवाज़ थर्रा जाती है, “अपने मीसा-वारंट के लिए, उषा के तलाक़ के लिए . . .”
♦ ♦ ♦
“हम न कहती थीं,” चेतना लौटने पर उषा ने अपने को अस्पताल के कमरे में वापस पाया; उसकी नाटी आया के साथ, जिसे उसने वह पर्ची और सौ रुपए का नोट दिया था, “आप ऑपरेशन से सही-सलामत लौटेंगी . . .”
“वह पर्ची कहाँ है?” पेट में हो रहे तेज़ दर्द के बावजूद उषा ने अपना हाथ नाटी आया की दिशा में बढ़ा दिया।
“अभी दे रही हैं, मेम साहब,” नाटी आया अपनी साड़ी के पल्लू में बँधी गिरह खोलने लगी, “मगर एक बात हमें पूछनी रही . . . अपनी शादी आपने अपनी मर्ज़ी से करी क्या?”
“क्यों?” उषा ने पूछा।
“सारी दुनिया दंग है, इतना बड़ा ऑपरेशन रहा आपका और मायके से एक जन नहीं आया . . .”
“मैंने उन्हें बताया न था . . .”
“फिर ज़रूर आपकी शादी आपके पिता की मर्ज़ी से नहीं हुई रही . . .”
“मेरे पिता आज़ाद ख़्याल हैं,” उषा ने कहा, “वे कहते हैं आज़ादी पर हम सबका हक़ बराबर है . . .”
“और दान-दहेज? वह सब दिया दिलाया उन्होंने, कायदेवार?”
“वे ऐसे क़ायदों को नहीं मानते . . .”
“मगर आपके कप्तान साहब तो मानते होंगे! इतनी ऊँची अफ़सरी है उनकी!! वे तो सब मानते ही होंगे!! चाहते ही होंगे!! बल्कि माँगते भी होंगे!!! . . . ”
“सौ रुपया, वह मत लौटाना,” उषा ने बात बदल दी, “इनाम समझकर रख लेना . . .”
“शुक्रिया, मेम साहब,” नाटी आया ने अपनी गिरह से उषा की पर्ची उसे लौटा दी, “हम जानती हैं आप इस अस्पताल में फिर जल्दी आने वाली हैं . . . और जब अगली बार आएँगी तो माँ बनकर लौटेंगी . . .”
“दूसरी आया लोग को भी मेरे पास भेज देना,” उषा ने समापक मुद्रा में कहा—वह अब आराम करना चाहती थी—“उन्हें भी मैं इनाम देना चाहूँगी . . .”
“जी, मेम साहब,” नाटी आया कमरे से बाहर हो ली।
काँपते हाथों से उषा ने वह टेलीफ़ोन वाली पर्ची अपने बिस्तर के गद्दे के नीचे छिपा दी।
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