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सौ हाथ का कलेजा

 

हावड़ा मेल मैंने शाहजहाँपुर से पकड़ी थी। रात सात बजे़ दिसंबर की अपनी छुट्टियों में से तीन छुट्टियाँ अपने शहर, अमृतसर में बिताने हेतु शाहजहाँपुर में मेरी ससुराल है। मेरे पति वहाँ के इंटर कॉलेज में विज्ञान पढ़ाते हैं और पिछले वर्ष हुई अपनी शादी के बाद से मैं इतिहास पढ़ाती हूँ। 

थ्री-टियर के अपने भाग में पहुँचते ही मैंने अपने नए-पुराने सहयात्रियों से उनके स्लीपर का पता लगाना चाहा। 

मेरी नीचे वाली बर्थ पर एक युवक अपनी स्त्री तथा दुधमुँही बच्ची के साथ पाँव पसारे बैठा था। 

“मेरी बच्ची नीचे सोना पसंद करेगी,” युवक ने कहा, “आप चाहें तो ऊपर वाली हमारी बर्थ से नीचे वाली बर्थ बदल लें।” 

उसके सामने वाली सीट पर मैंने नज़र दौड़ाई, जहाँ तीन अधेड़ महिलाएँ बैठी पराँठा और आलू दम खा रही थीं। 

“हम तीनों अंबाला उतरेंगी,” उनमें से एक ने कहा। 

“आसनसोल से आ रही हैं,” दूसरी ने जोड़ा। 

“कल रात दस बजे से गाड़ी में बैठी हैं,” तीसरी बोली। 

उनका सामान दोनों निचली सीटों के नीचे और खिड़कियों के बीच वाली ख़ाली जगह पर फैला पड़ा था। 

“ऊपर वाली आपकी सीट पर आपका सामान है क्या?” मैंने युवक से पूछा। अपनी बर्थ पर मैं फ़ौरन पहुँच लेना चाहती थी। 

“हाँ, मेरा सामान है,” युवक ने अपने कंधे उचकाए और बीच वाला एक बर्थ खोलकर सीट पर उतारना शुरू कर दिया, अपने टीन का बक्सा। दो सूटकेस। दो पोटलियाँ। अमरूद का एक बड़ा लिफ़ाफ़ा और हाथ से सिले हुए तीन बड़े झोले। 

मेरे पास केवल एक छोटा सूटकेस था और एक कंबल। थकी हुई तो मैं थी ही, ऊपर की सीट पर पहुँचते ही सो गई। 

नींद मेरी तोड़ी उन तीनों अधेड़ महिलाओं ने। रात के तीन बजे। जो अपना सामान घसीट-घसीटकर रेलवे के उस डिब्बे के दरवाज़े की ओर ले जा रहीं थीं। 

बीच वाली पूरी की पूरी एक सीट पर अपनी फैली टाँगों पर कंबल ओढ़े वह युवक खर्राटे भर रहा था और उसकी स्त्री नीचे वाली सीट के आधे से भी कम हिस्से में बिना कुछ गर्म ओढ़े, सिकुड़ी काँप रही थी। अपनी शॉल उसने अपनी बच्ची को ओढ़ा रखी थी। उसकी सीट के आधे से ज़्यादा हिस्से पर उनका पूरा सामान धरा था। 

करवट बदलकर मैं अपनी तंद्रा में लौट ली। 

सुबह अभी हुई न थी जब मैंने गाड़ी को अपनी तेज़ गति एक बार फिर से धीमी करते हुए पाया। 

अपनी कलाई घड़ी देखी तो वहाँ पाँच बीस हो रहा था। 

ज़रूर लुधियाना आने वाला था। 

मैंने करवट सीधी की तो देखा बीच वाली बर्थ को हटाया जा चुका था। युवक तथा उसकी स्त्री संग-संग बैठे थे और उनका सामान उनके सामने वाली सीट पर जा टिका था। 

स्त्री की आँखें खिड़की से बाहर जीम थीं और युवक के माथे की त्योरी बता रही थी वह ग़ुस्से में था। 

“देखो, देखो, देखो,” स्त्री अपने दुधमुँही बच्ची से बतिया रही थी, “अभी तुम्हारी नानी आएँगी, तुम्हारे लिए मीठा लाएँगी। पूरी लाएँगी। आलू लाएँगी।” 

बच्ची मोटी-ताज़ी तो नहीं ही थी किन्तु स्त्री इतनी दुबली-पतली थी कि बच्ची अपनी माँ की तरह सींकिया तो नहीं ही लगती थी। 

मगर स्त्री की स्फूर्ति देखने लायक़ थी। उसकी गरदन की लचक ऐसी थी मानो उसमें कोई कमानी फ़िट हुई हो और आँखों की उछाल ऐसी मानो वह लपकी तब लपकी। 

“गू गू गू,” उसकी गोदी में झूल रही बच्ची माँ की ख़ुशी अपने अंदर खींच रही थी। 

“अम्मा, अम्मा,” गाड़ी प्लैटफ़ॉर्म पर जा पहुँची थी और हमारा डिब्बा शायद प्लैटफ़ॉर्म की उस जगह से आगे निकल आया था, जहाँ स्त्री की माँ खड़ी थी। 

“होश में रहो,” युवक ने स्त्री को डाँट पिलाई, “इतनी बदहवास होने की क्या बात है?” 

आते ही स्त्री की माँ ने उसे और बच्ची को अपने अंग से चिपका लिया। उसके अधपके बाल कंघी से बेगाने लग रहे थे। उसके पैर की चप्पल बहुत पुरानी थी और मोज़ों के बिना उसके पैर जगह-जगह से फटे थे। शॉल ज़रूर उसकी नई थी, मगर थी आधी सूती, आधी ऊनी। 

युवक ने उसे घूरा। 

”बधाई हो, वीरेन्द्र कुमार जी,” वृद्धा ने उसके अभिवादन में अपने दोनों हाथ जोड़े, “आपके पेंट वालों ने आपकी बात ऊँची रख ली। आपकी बात उड़ाई नहीं। वह बेगाना लखनऊ आपसे छुड़ा ही दिया और ठीक भी है। जैसी पेंट की फ़ैक्ट्री उनकी लखनऊ में, वैसी ही पेंट की फ़ैक्ट्री इधर अमृतसर में। जैसा पेंट वहाँ बनेगा, वैसा ही पेंट इधर भी बनेगा।” 

“आप मेरी चिंता छोड़िए।” युवक ने अपने चेहरे पर एक टेढ़ी मुस्कान ले आया, ”अपनी कहिए। इधर अकेली कैसे आईं? घर के बाक़ी लोग कहाँ रह गए?”

”क्या बताऊँ वीरेन्द्र कुमार जी,” वृद्धा के आँसू छलक गए, ”कहने भर को बेटे-बहू, पोते-पोतियाँ सभी हैं, मगर मजाल है जो उनमें किसी एक में भी अपने सगों जैसा कोई लक्षण ढूँढ़े से भी मिल जाए। अब उन्हें नहीं परवाह। तो नहीं परवाह। आजकल छोटों पर किसका ज़ोर चला है?”

युवक ने अपने दाँत भींचे और एक मोटी गाली देनी चाही मगर ऐसा न कर पाने की वजह से उसके होंठ विकृत हो आए। 

”मैं पानी लेकर आता हूँ,” युवक ने पानी की ख़ाली बोतल उठाई और गाड़ी से नीचे उतर लिया। 

”अब तो लखनऊ नहीं जाना है न?” वृद्धा ने पूछा। 

”पहले इसे छिपा ले,” स्त्री ने अपने किसी भीतरी वस्त्र से एक रूमाल निकाला और वृद्धा के हाथ में दे दिया। 

”कितने हैं?” वृद्धा फुसफुसाई। 

”पाँच सौ सत्तर हैं, स्त्री हँसी, “बड़ी मुश्किल से छिपा-छिपाकर जोड़े हैं। तेरी आँखों के चश्मे के वास्ते।” 

मेरे हाथ अनायास अपने बटुए में रखे उस लिफ़ाफ़े की ओर बढ़ चले जिसमें मैं गुप्त रूप से सात सौ रुपए उठा लाई थी। अपने पति व सास-ससुर की नज़र बचाकर। अपने भतीजे-भतीजियों को लाड़ लड़ाने हेतु। अपने विवाह से पहले भी मैं एक अध्यापिका रही थी और मेरी तनख़्वाह का सातवाँ-आठवाँ भाग तो उन बच्चे-बच्चियों को चॉकलेट-टॉफ़ी व पिज़्ज़ा-बर्गर खिलाने में जाता ही रहा था। 

लिफ़ाफ़ा सुरक्षित था। मेरे बटुए के अंदर छिपा। बुरा तो लगता था उसे छिपाने की ज़रूरत मुझे महसूस हुई थी। अपराधबोध भी रहा था और रोष भी। अपने पति व सास-ससुर के कारण। जो मुझसे यह अपेक्षा रखते थे कि अपने मायके वालों के साथ मेरा सम्बन्ध सिर्फ़ लेने का रहना चाहिए, देने का नहीं। 

“लेना . . . लुधियाने की तरह वहाँ भी कंबल-शॉल की बड़ी फ़ैक्टरियाँ हैं। उनमें तागने का काम आसानी से मिल भी जाता है। तेरे लखनऊ की चिकनकारी वाले काम जैसा महीन भी नहीं। मोटा काम है।”

”पकड़ूँगी। काम पकड़ूँगी ही। काम क्यों न पकड़ूँगी? वरना उस फुंकार के आगे कब तक साँस रोककर दम लूँगी?”

”गाड़ी अब चलने ही वाली है?” पानी के डिब्बे के साथ युवक लौट आया। 

”तुम अब उतर लो, अम्मा,” स्त्री ने वृद्धा के कंधे से चिपकी अपनी बच्ची अपने कंधे पर खिसका ली, ”इधर खिड़की से बात करते हैं . . .”

वृद्धा उसके गले दोबारा मिली और अपने कंधों का शॉल उसे ओढ़ाने लगी। 

”यह क्या अम्मा?” स्त्री की रुलाई छूट ली, ”मुझे नहीं चाहिए। मेरे पास सब है। बहुत है . . . ”

”यह तेरे लिए ही लिया था,” वृद्धा ने शॉल वाले अपनी बेटी के कंधे थापथपाए भी।

युवक ने पहले बरफी चखी। फिर मठरी। फिर पूड़ी-सब्ज़ी पर टूट पड़ा। 

”नानी आई थी?” स्त्री ने अपनी शॉल सहलाई और बच्ची को अपनी छाती से चिपकाकर उसे उसके अंदर ढाँप लिया। 

फिर उसके पेट में गुदगुदी की और अपना मुँह उसके कान के पास ले जाकर फुसफुसाई, ”नानी आई थी? हमारे लिए शॉल लाई थी? पूड़ी लाई थी? मटर-आलू लाई थी? बरफी लाई थी? मठरी लाई थी? नानी आई थी। नानी आई थी।”

बच्ची हँसी तो उसकी माँ उससे भी ज़्यादा ज़ोर से हँसने लगी। 

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