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किशोरीलाल की खाँसी

किशोरीलाल की खाँसी का प्रारम्भ व अन्त अजीब व विवादास्पद रहा।

जिस दिन उसकी पत्नी के तपेदिक का इलाज शुरू किया गया, उसी दिन से किशोरीलाल को उसकी खाँसी ने जो पकड़ा सो उसकी पत्नी की मृत्यु के बाद ही उसे छोड़ा।

किशोरीलाल हमारा पड़ोसी था और उसकी बड़ी बेटी बारहवीं जमात तक मेरे साथ एक ही स्कूल में पढ़ती भी रही थी, फिर भी किशोरीलाल को उसकी व उसके परिवार-जनों की अनुपस्थिति में हम उसे ‘चचा’ अथवा ‘काका’ जैसे आदरसूचक सम्बोधन के बिना ही पुकारा करते थे। उसकी वज़ह गली में स्थित उसकी परचून की दुकान रही। गली में जिस किसी घर में, जब कभी भी किसी चीज़ की ज़रूरत पड़ती, तुरन्त बच्चों में से किसी को हिदायत मिल— “जाओ, दौड़कर किशोरीलाल की दुकान से पकड़ लाओ।”

बारहवीं जमात के बाद जहाँ किशोरीलाल की बड़ी बेटी ब्याह दी गई थी, प्राध्यापक व महत्वकांक्षी पिता की बेटी होने के कारण मुझे सी.पी.एम.टी. की परीक्षा देने के लिए प्रोत्साहित किया गया था और सौभाग्यवश मैं उसमें ऊँचे अंकों के साथ उत्तीर्ण भी हो गई थी। स्थानीय मेडिकल कॉलेज में मुझे दाख़िला मिल गया था और अपनी पढ़ाई के पाँचवें साल तक पहुँचते-पहुँचते मैं अपनी गली के सभी बीमार लोगों के इलाज का बीड़ा उठाने लगी थी। छोटी-मोटी बीमारी तो मैं सैम्पल में आई दवाइयों से ही भगा देती और यदि बीमारी क्रोनिक अथवा चिरकालिक प्रकृति की होती तो उसका इलाज मैं अस्पताल के डॉक्टरों से कहकर मुफ़्त करवा देती।

“माँ की खाँसी जाने का नाम ही नहीं ले रही,” किशोरीलाल की तीसरी बेटी एक दिन जब मुझे गली में दिखाई दी तो उसने मेरा मोपेड रोककर मुझ पर अपनी चिन्ता प्रकट की, “क्या कभी समय निकालकर आप हमारे घर पर माँ को देखने आ सकेंगी?”

“हाँ, हाँ, क्यों नहीं?” मैंने उसे आश्वासन दिया। किशोरीलाल की पत्नी के गुणों का बखान सारी गली के लोग खुले कण्ठ से किया करते। दुकान के ऊपर बने मकान के अन्दर बैठी वह दुकान का ढेर सारा काम निपटाया करती। दुकान में रखे अचार उसी के हाथ में बने रहते। लाल मिर्च, धनिया, गर्म मसाला, काली मिर्च, हल्दी इत्यादि के तैयार पैकेट भी उसी की बदौलत हाथो-हाथ गली के घर-घर में प्रयोग किए जाते। हम सब जानते थे वह कितनी मेहनत तथा ईमानदारी के साथ चीज़ें साफ़ करने के बाद स्वयं उन्हें अपने हाथों से सान पर पीसती थीं।

किशोरीलाल की पत्नी की खाँसी जब मुझे अस्वाभाविक लगी तो मैंने अपने अस्पताल से उसके थूक, उसके पेशाब व उसके खून का परीक्षण कराया। परिणाम आने पर पता चला कि उसे तपेदिक था।

मेरे वरिष्ठ अध्यापक-डॉक्टर ने नुस्ख़े में जो गोलियाँ लिखीं, उनमें आइसोनियाज़िड व इथैम्बुटोल तो अस्पताल में उपलब्ध रहीं, मगर राय-फैम्पिसिन तथा पायरैज़िनामाइड बाज़ार से मँगाने की बाध्यता थी।

“किशोरीलाल की दुकान ख़ूब चलती है,” मैंने अपने वरिष्ठ अध्यापक-डॉक्टर को बताया, “आप प्रचलित प्रथा के बाहर जाकर इन दूसरी गोलियों को मँगाने की चेष्टा मत कीजिए, सर! किशोरीलाल इन्हें बाज़ार से ख़ुद ख़रीद लेगा।”

“तपेदिक अब असाध्य रोग नहीं रहा,” किशोरीलाल के चिन्तित परिवार को मैंने सान्त्वना दी, “अब इसे छः महीने के अन्दर जड़ से ख़त्म किया जा सकता है। दो महीने तक ये बारह गोलियों की ख़ुराक जब रोज़ाना ले लेगी तो आधा तपेदिक तो वहीं ख़त्म हो जाएगा। बस, अगले चार महीने एक सप्ताह में ये चौरासी गोलियों की बजाय केवल सत्ताईस गोलियाँ ही काम दे देंगी और फिर साथ में जब इन्हें आप सब की ओर से ढेर-सा दुलार, ढेर-सा पौष्टिक आहार, ढेर-सा विश्राम मिलेगा तो ये छः महीने के अन्दर ही ज़रूर-ब-ज़रूर पूरी तरह से निरोग व स्वस्थ हो जाएँगी . . . ”

तपेदिक में खुली हवा का अपना एक विशेष महत्व रहता है, परन्तु मैंने किशोरीलाल व उसके परिवार से खुली हवा के बारे में एक शब्द भी न कहा।

दुकान के दाईं ओर से डेढ़ फुट की तंग चौड़ाई लिए किशोरीलाल के मकान की सीढ़ियाँ पड़ती थीं। पहली मंज़िल पर एक तंग कमरा और एक तंग रसोई उद्घाटित करने के बाद, वे सीढ़ियाँ आगन्तुक को दूसरी मंज़िल के तंग कमरे व गुसलखाने को प्रकट करने के बाद ऊपर छत पर ले जाती थीं। हवादारी के नाम पर किशोरीलाल की बीस ज़रब बाईस फुट की परचून की दुकान के ऐन ऊपर समान लम्बाई-चौड़ाई लिए इन दो मंज़िलों में केवल चार छोटी खिड़कियाँ रहीं। चारों खिड़कियाँ गली की ओर ही खुलती थीं क्योंकि गली के बीच वाला मकान होने के कारण बाक़ी तीनों तरफ़ बन्द दीवारें-ही-दीवारें थीं। मौसम और समय के अनुसार घर के सदस्य दिन अथवा रात का अधिकतर समय छत पर बिताते, हालाँकि वह छत भी तीनों ओर से अपने से ऊँचे मकानों की चौहद्दी दीवारों के बीच संकुचित व सिकुड़ी रहने के कारण खुलेपन का एहसास देने में सर्वथा असमर्थ रहती।

किशोरीलाल की पत्नी के तपेदिक की सूचना गली में बाद में फैली, किशोरीलाल की खाँसी पहले शुरू हुई।

शुरू में दूसरे लोगों के साथ-साथ मैं भी यही समझी कि पत्नी के फेफड़ों की संक्रामक खाँसी किशोरीलाल के फेफड़ों में चली गई होगी किन्तु जब मेरे बार-बार आग्रह करने पर भी किशोरीलाल अपनी पत्नी के तदनन्तर परीक्षण के लिए राज़ी न हुआ तो मुझे समझते देर न लगी कि किशोरीलाल अपनी पत्नी को अविलम्ब मृत्यु के हवाले कर देना चाहता था। शायद वह अपनी पत्नी के परिचर्या-व्यय से बचना चाहता था या शायद वह अपनी दुकान के उन ग्राहकों को अपनी दुकान पर लौटा लाना चाहता था जो उसकी पत्नी के तपेदिक की सूचना मिलते ही उसकी दुकान के तैयार मसालों व अचारों के स्पर्श-मात्र से कतराने लगे थे। भार-स्वरूप उसे पत्नी की खाँसी से अधिक उग्र खाँसना अवश्य ही अनिवार्य लगा होगा। इसीलिए जब-जब उसकी पत्नी खाँसते-खाँसते बेहाल होने लगती, तब-तब किशोरीलाल अपनी खाँसी का नखरा-चिल्ला त्वरित कर देता।

अगले वर्ष जब तपेदिक ने किशोरीलाल की पत्नी की जीवन-लीला समाप्त की तो किशोरीलाल की खाँसी ने, सहज में ही किशोरीलाल के कंठ को और आगे श्रम साधने से मुक्त कर दिया।

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