सीटी
कथा साहित्य | कहानी दीपक शर्मा1 Apr 2023 (अंक: 226, प्रथम, 2023 में प्रकाशित)
“वौल्ट” (फलांग भरो) माँ अपनी सीटी बजाती हैं।
स्कूल का लाट मेरे सामने है।
लगभग पैंतालीस मीटर की दूरी पर।
“कैरी” (थाम लो), अपनी दूसरी सीटी के साथ लाट के बुर्ज पर खड़ी माँ मेरी दिशा में वौल्ट की पोल लहराती हैं।
मेरे हाथ पोल सँभालते हैं और मैं उसके संग दौड़ पड़ती हूँ।
तेज़, बहुत तेज़!
“शिफ़्ट” (खिसक जाओ), माँ तीसरी सीटी देती हैं।
वौल्ट से पहले के मेरे डग पूरे हो चुके हैं।
पोल का बकस लाट के ऐन नीचे है।
पोल को उसमें बिठलाते समय मेरा निचला हाथ सरककर मेरे ऊपरी हाथ तक जा पहुँचता है।
इधर पोल अपने बकस में मज़बूती से बैठती है, उधर अपने दोनों हाथों को मैं अपने सिर से ख़ूब ऊपर उठा लेती हूँ।
एक गुलेल की तरह पोल तेज़ी से मुझे ऊपर उछालती है और मेरी टाँगें ऊपर की दिशा में घूम पड़ती हैं।
पोल की बगल-बगल।
माँ की सीटी की झूम की लय में बहती हुई।
आगे बढ़कर माँ मुझे झपट लेती हैं।
समूची की समूची।
हम दोनों अब एक साथ हैं।
एक-दूसरे की बाँहों में।
लाट के बुर्ज के पीछे।
“ज्योग्रफी मिस ने अपना क्वार्टर छोड़ दिया है।” मैं अपनी शिकायत पेटी खोल लेती हूँ, “अब वह अब हमारे क्वार्टर में आ गई हैं . . . ”
स्कूल के परिसर में अध्यापकों के लिए क्वार्टर बने हैं।
“मैं यही चाहती थी,” माँ हँस पड़ती है।
“ज्योग्रफी मिस ने पापा के साथ शादी कर ली है . . . ”
“मैं यही चाहती थी। मुझसे छिड़ी तेरे पापा की जंग उसकी तरफ़ उलट ले . . . ”
“लेकिन पापा उसके साथ बहुत ख़ुश हैं . . . ” मैं हैरान हूँ। पूरे स्कूल में प्यार बाँटने वाली माँ बस इन्हीं ज्योग्रफी मिस ही से तो नफ़रत करती रहीं, “पापा उसके साथ कभी झगड़ा नहीं करते। चौबीसों घंटे मधुर-मधुर पुकारा करते हैं। सारा झगड़ा अब मेरे साथ होता है। उसका भी। पापा का भी। मैं ही कष्ट में हूँ . . . ”
“तुम कब कष्ट में नहीं थी,” माँ मुझे अपनी बाँहों से अलग कर देती हैं।
“जब तुम मेरे पास थीं,” मैं रो पड़ती हूँ।
“मैं अब तुम्हारे ज़्यादा पास हूँ,” अपने हाथ माँ मेरे कंधों पर टिका देती हैं। “सिंड्रेला की कहानी याद है? उसे रात की डांस पार्टी में जाने के लिए सवारी किसने भेजी थी?”
“उसकी माँ ने . . . ”
“उसे पार्टी की बढ़िया पोशाक किसने पहनाई थी?”
“उसकी माँ ने . . . ”
“उसे राजकुमार के सामने कौन लाया था?”
“उसकी माँ . . . ”
“राजकुमार के कान में कौन फुसफुसाई थी, डांस करते समय सिंड्रैला का एक स्लीपर चुरा लो?”
“उसकी माँ . . . ”
“उस माँ के पास इतनी ताक़त कहाँ से आई?” माँ मेरे गाल थपथपाती हैं।
“मैं नहीं जानती कैसे।”
“नहीं जानती?” माँ हँसती हैं।
“वह ताक़त उसे उसकी मौत ने दी थी। जब तक वह ज़िन्दा थी, अपनी सिंड्रैला के लिए कुछ नहीं कर सकती थी। लेकिन मरने के बाद उसने सिंड्रैला को राजकुमार के महल में जा पहुँचाया . . . ”
“मुझे राजकुमार नहीं चाहिए।” मैं माँ के सीने के साथ जा चिपकती हूँ, “मुझे महल नहीं चाहिए। मुझे तुम्हारे पास रहना चाहिए। तुम्हारे साथ रहना चाहिए . . . ”
“ठीक है।” माँ झट मान जाती हैं, “मैं तुम्हें रोज़ इधर बुला लूँगी। आज की तरह। सीटी बजा कर। तुम रोज़ आओगी?”
“मैं आऊँगी। रोज़ आऊँगी . . . ”
“अब नीचे चलें?” माँ मेरे गाल चूमती हैं।
“यहाँ से कूदेंगे?” मैं पूछती हूँ, “नीचे?”
लोप होने से पहले माँ इसी बुर्ज से नीचे कूदी थीं।
“नहीं, हम सीढ़ियों से नीचे जाएँगे . . . ”
माँ मुझे लाट के अंदर ले आती हैं। गोल दीवारों के बीच कई सीढ़ियाँ नीचे उतर रही हैं।
बिना टेक के।
बिना जंगले के।
“चलें?” अपनी टेक देकर माँ मुझे पहली सीढ़ी पर ले आती हैं।
“इन्हें गिनोगी?” वे पूछती हैं।
सीढ़ियों की संख्या जब भी ज़्यादा होती, माँ और मैं सीढ़ियों की गिनती ज़रूर करते।
“हाँ,” मैं गिनना शुरू करती हूँ।
नौ की गिनती पूरी होती है तो सीढ़ियों का पहला घुमाव आन प्रकट होता है।
“इसमें ऐसे नौ घुमाव हैं।” जंगले की तरह माँ मुझे अपनी बाँहों की ओट में ले रही हैं, “अब बताओ इसमें कितनी सीढ़ियाँ होगी?”
“निन्यानवे,” उत्तर देने में मुझे तनिक देर नहीं लगती है, “जैसे पहला घुमाव नौ सीढ़ियों के बाद आता है, आख़िरी घुमाव के बाद भी नौ सीढ़ियाँ होगी ही होगी . . . ”
“मेरी नन्ही जादूगरनी,” माँ झुककर मेरे बाल चूम लेती हैं।
“पापा कहते हैं, अर्थमैटिक में कोई जादू नहीं है। बस दिमाग़ को फ़ुर्ती दिखलानी चाहिए . . . ”
सारा स्कूल पापा को मैथ्स-विज़र्ड, गणित-जादूगर के नाम से जानता है।
“जैसे मेरे ट्रैक एंड फ़ील्ड स्पोर्ट में शरीर का फ़ुर्ती में आना और फ़ुर्ती में रहना ज़रूरी है?” माँ अपने अनुभव से बोल रही हैं। चक्रपट्टी और मैदान वाले खेलकूद में माँ बेजोड़ रही हैं। हमारी नई खेल टीचर माँ जैसा एक भी करतब-क्रिया नहीं कर पातीं। उनके पास पोल वौल्टिंग में माँ जैसा टेक-ऑफ़ नहीं, हाईजंप में माँ जैसी सिज़र्स नहीं, ईस्टर्न कट-ऑफ़ नहीं, वेस्टर्न रोल नहीं, स्ट्रैडल नहीं, ट्रिपल जंप में माँ जैसा हौप नहीं, स्टैप नहीं, जंप नहीं।
हम निन्यानवे सीढ़ी तक आ पहुँचे हैं।
“तुम घर जाओ,” माँ मुझसे विदा लेना चाहती हैं।
“तुम कहाँ जाओगी?” मैं पूछती हूँ।
“अपने लोक में। वहाँ कई ग्रह हैं। कई तारे। कुछ नीचे, कुछ बुलंद। कुछ चमकीले कुछ मंद। लेकिन कोई किसी को इशारा नहीं देता। किसी से इशारा नहीं लेता। अपने अपने दायरे में, अपने अपने इशारे पर वह अपना-अपना घूमते हैं। अपनी-अपनी मौज में, अपनी अपनी मर्ज़ी से . . . ”
“मैं तुम्हारे साथ चलूँगी,” मैं माँ की टाँगों से चिपक के लेती हूँ। पौने छह फुट की माँ के आगे दस साल के मेरे पौने चार फुट बौने हैं।
“नहीं!” अपनी मज़बूत बाँहों से माँ मुझे विलग कर देती हैं, “नहीं। तुम यहीं रहो। उधर हम एक-दूसरे से मिल भी नहीं पाएँगी। उधर सभी को अकेले रहना पड़ता है। तुम यहाँ रहोगी तो मैं तुम्हें इधर बुला सकूँगी . . . ”
“मुझे तुम्हारी सिटी का इंतज़ार रहेगा।”
लबडब लबडब लबडब मेरा दिल ज़ोर से धड़कता है। डोलता है।
माँ से मैं अभी बिछुड़ना नहीं चाहती। कभी बिछुड़ना नहीं चाहती।
“यह सीटी तुम पहन क्यों नहीं लेती?” माँ फ़ुर्ती से अपना हाथ घुमाती हैं और अपनी गर्दन ख़ाली कर देती हैं।
“लो!”
सीटी अब मेरी गर्दन में है।
सरूर से भरकर सिटी के ऊपरी सिरे पर बने मुंहवाले छेद में मैं अपनी पूरी ताक़त के साथ साँस छोड़ती हूँ। सिटी की बंद दीवार से वह टकराती है और छेदवाली दूसरी दीवार से गूँज बनकर बाहर आ लपकती है।
लाट से क्वार्टर तक मैं सीटी बजाती जाती हूँ। धीमी-धीमी, मीठी-मीठी।
माँ को अपने साथ रखती हुई।
वहाँ पहुँचने पर दरवाज़े की घंटी की बजाय सीटी देती हूँ। माँ के अंदाज़ में। अंदर वालों को चौंकाने के वास्ते, चिढ़ाने के वास्ते। माँ की सीटी से दोनों की दुश्मनी पुरानी भी है और कड़ी भी।
“कौन?” मेरा अंदाज़ा सही साबित हुआ है। दोनों एक साथ दरवाज़े पर लपक लिए हैं।
चौंके-चौंके।
चिढ़े-चिढ़े।
जवाब में मैं सीटी बजा देती हूँ ख़ूब ज़ोर से।
“कहाँ मिली?” पापा पूछते हैं।
“लाट पर,” मैं कहती हूँ। उन्हें नहीं बताती सिटी के साथ माँ को भी इधर लिवा लाई हूँ।
“आज? कमाल है इतने दिन सबकी नज़र से बची रह गई?”
आज ही के दिन पाँच शुक्रवार पहले माँ घर से लोप हुई थीं।
“वही है क्या?” ज्योग्रफी मिस उत्तेजना से भर उठती है।
“देखता हूँ।” सीटी को पापा मेरी गर्दन से अलग कर देते हैं।
“क्या निशानी है?” ज्योग्रफी मिस अधीर हो रही है।
“इसकी डोरी वाली ठैठी पर मेरा नाम लिखा होना चाहिए . . . ”
“आपका नाम?”
“वह ऐसी ही थी। घर के लिए बरतन भी ख़रीदती तो मेरा नाम उन पर लिखवा दिया करती . . . ”
“यहाँ भी लिखा है,” ज्योग्रफी मिस कहती है, “और इसकी डोरी के मनके तो देखिए। मामूली तांबे के नहीं लगते।”
“क़ीमती लगते हैं . . . ”
“मेरी सीटी है।” सीटी के लिए उसका लालच मुझसे देखे नहीं बनता। झपटकर उसके हाथों से मैं सीटी अपने हाथों में ले लेती हूँ। अपनी गर्दन पर लौटाने।
“यह सीटी तुझे देनी पड़ेगी,” ज्योग्रफी मिस मेरी गर्दन की ओर बढ़ती है।
“सीटी हम ले लेंगे।” बीच ही में पापा उसे रोक देते हैं, “लेकिन ऐसे नहीं। आज नहीं। अभी नहीं . . .।”
“क्यों नहीं?” ज्योग्रफी मिस तमकती है, “जब मैं कह रही हूँ इसे आज ही लेना है, अभी ही लेना है। इसकी आवाज़ मैं सह नहीं सकती, इतनी तीखी, इतनी तेज़ . . . ”
“क्यों?” पापा अपना हाथ उठाते हैं और एक ज़ोरदार तमाचा उसके गाल पर छोड़ देते हैं . . . “मेरा कहा, कोई कहा नहीं? मेरा कहा नहीं सुनोगी? अपनी ही कहती जाओगी? मनवाती जाओगी?”
“मैंने क्या कहा?” एक झटके के साथ ज्योग्रफी मिस दरवाज़ा लाँघती है। अंदर अपने कमरे की तरफ़ मुड़ती है और लोप हो जाती है।
“यह सीटी मैं कभी नहीं दूंगी।” मैंने दोनों हाथों से उसे ढाँप लिया है।
“मत देना!” पापा मेरे गाल थपथपाते हैं।
इस नई जंग में वे मेरे साथ हैं।
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