छल-बल
कथा साहित्य | कहानी दीपक शर्मा15 Nov 2019
आज से साठ साल पहले उस सन १९५८ के उन दिनों बिट्टो की अम्मा की गर्भावस्था का नवाँ महीना चल रहा था।
एक दिन बिट्टो के स्कूल जाते समय उसके हाथ में उसके बाबूजी की चाभी रख कर अम्मा बोलीं, “ऊपर वाले खाने में एक ख़ाकी लिफ़ाफ़ा रखा है, वह मुझे ला दे।”
बिट्टो वह ख़ाकी लिफ़ाफ़ा तत्काल उठा लायी।
अम्मा ने उसमें से कुछ रुपए निकाले और साथ में एक चवन्नी।
चवन्नी बिट्टो को दे कर बोलीं, “यह तेरे स्कूल के नाश्ते के लिए है। तबीयत ढीली होने की वज़ह से आज मुझ से कुछ बनाते बन नहीं रहा।”
लिफ़ाफ़ा आलमारी में रखते समय उसी खाने में रखी उसके बाबूजी की डायरी उसकी नज़र से गुज़री।
अपनी डायरी क़ायम रखने में बिट्टो के बाबूजी शुरू ही से बहुत पक्के थे।
वह इंजन ड्राइवर थे। रेल कर्मचारियों की भाषा में मोटरमैन। उनकी ड्यूटी उन्हें दो-दो, तीन-तीन दिन तक घर से अलग रखा करती किन्तु घर लौटने पर फ़ुरसत पाते ही वह अपनी आलमारी का ताला खोलते और अपनी डायरी के साथ बैठ जाते। बिट्टो के पूछने पर कहते: इसमें मैं अपनी तनख्वाह का हिसाब रखता हूँ। घर का ख़र्च दर्ज करता हूँ और अपनी ड्यूटी के समय और स्थान का रिकॉर्ड रखता हूँ।
“देखूँ,” जिज्ञासावश बिट्टो ने वह डायरी झपट ली और उसे पलटने पर एक अनजाना शब्द उसे कई बार दिखाई दे गया।
अपनी तीसरी जमात तक पहुँचते-पहुँचते उन दिनों बिट्टो अँगरेज़ी के अक्षर पहचानने लगी थी और उस अनजाने शब्द को उसने अपने स्कूल की रफ़ कॉपी पर उतार लिया और डायरी वापस धर दी।
स्कूल पहुँचने पर उस शब्द का मतलब बिट्टो की अँगरेज़ी अध्यापक ने बताया: सैनेटोरियम। तपेदिक के रोगियों का आरोग्य-आश्रय जिसे विशेष रूप से किसी पहाड़ी स्थल पर बनाया जाता है ताकि रोगी के फेफड़े स्वस्थ, खुली हवा में साँस भर सकें।
बिट्टो घर लौटी तो उसने अम्मा से पूछा- “हमारे परिवार में तपेदिक किसे है?”
“मैं नहीं जानती,” अम्मा ने सिर हिलाया।
“तुम्हें बताना होगा, अम्मा। वरना मैं खाना छोड़ दूँगी। भूखी रहूँगी,” बिट्टो ने ज़िद पकड़ ली।
अम्मा की वह लाडली तो थी ही और अपनी बात मनवाने के लिए वह यही अचूक नुस्ख़ा काम में लाया करती थी।
उसे भूख के हवाले करना अम्मा के लिए असम्भव था। और वह बोली, “जहाँ तक मैं जानती हूँ तेरे बाबूजी की एक रिश्तेदारिन थी जिसे तपेदिक हुआ था। मगर उसे मरे हुए तो साल बीत गए. . .!”
“फिर तपेदिक के अस्पताल में बाबूजी अभी भी तीस रुपए किसे भेजते हैं?” बिट्टो ने पूछा।
“तूने कैसे जाना?” अम्मा का रंग पीला पड़ने लगा।
“आलमारी की चाभी दो। अभी तुम्हें बाबूजी की डायरी के पन्ने दिखलाती हूँ. . .” बिट्टो बोली।
अम्मा अँगरेज़ी नहीं जानती थी, लेकिन लिखी हुई रक़म की पहचान रखती थी।
डायरी देखते देखते अम्मा मूर्च्छित हो गयीं।
घबराकर बिट्टो ने पड़ोसिन को बुलाया, “मौसी. . .!”
जिस रेलवे कॉलोनी में उस मोटरमैन का परिवार रहता था वहाँ आस-पड़ोस एक दूसरे के सुख-दुख बाँटने में पीछे नहीं रहता था। ज़रूरत पड़ने पर भोजन भी साझा कर लिया जाता।
पड़ोसिन तत्काल दौड़ी आयी।
और अगले ही पल उस ने अम्मा को पलंग पर लिटा कर बिट्टो को दाई बुलाने भेज दिया।
दाई ने आते ही बिट्टो को कमरे से बाहर रहने को बोला। अनमनी बिट्टो बाहर आन बैठी।
लेकिन जल्दी ही अम्मा की तेज़ कराहटों के बीच जैसे ही एक नन्हे बच्चे के रोने की आवाज़ आ शामिल हुई, बिट्टो को बताया गया- अब तू अकेली नहीं रही। भाई वाली है।
रात बाबूजी लौटे तो फूले नहीं समाए।
बिट्टो को हलवाई के पास भेज कर स्वयं आँगन में नहाने चले गए: लड़के को साफ़ हाथों से पकड़ूँगा, सुथरे कपड़ों में. . .
पचास के उस दशक में रेलगाड़ियाँ डीज़ल या बिजली की जगह भाप से चलती थीं, भाप छोड़ती हुई।
‘पर्फिंग बिलीज़’ इसीलिए उन्हें कहा जाता। मोटरमैन को उस समय कोयलों की भट्टी में कोयला स्वयं बेलचे से डालना पड़ता था। ऐसे में इंजन छोड़ते समय बाबूजी के कपड़े और हाथ गंधैले और दगैल हो जाया करते।
मोटरमैन ही क्यों, दूसरे रेल कर्मचारियों के पास भी आज जैसी सुविधाएँ नहीं थीं। एयरब्रेक्स की जगह ब्रेकमैन थे जो रेल के डिब्बों पर चढ़-चढ़ कर, उनके आर-पार, हाथ से ब्रेक सेट करते। डिब्बे की कपलिंग तक हाथ से की जाती, ऑटोमेटिक कपलर से नहीं।
जैसे ही बाबूजी नहा चुके उन्होंने लपक कर नन्हे को अपनी गोदी में उठा लिया और बिट्टो से बोले, “देख तेरा बन्धु कैसे मुस्करा रहा है. . . हमारा नन्हा. . . हमारा नन्हा. . .!”
नवजात बच्चे को बिट्टो पहली बार देख रही थी। उसका सिर उसके बाक़ी शरीर के अनुपात में ख़ूब बड़ा था। आँखें मूँदी थीं। लेकिन अन्दर छिपे उसके नेत्र गोलक अपने-अपने कोटर में तेज़ी से चल-फिर रहे थे। और वह मुस्करा रहा था।
“सच बाबूजी,” बिट्टो ने ताली बजायी, “और देखिए, इतना छोटा मुँह और इतनी बड़ी मुस्कान. . .!”
“इसी मुस्कान ही को तो जल्दी रही जो इसे हमारे पास बीस दिन पहले लिवा लायी. . .!” बाबूजी हँसे और अम्मा की बगल में बैठ गए।
अम्मा ने सारा दिन वहीं गुज़ारा था और अब भी वहीं लेटी थीं।
बाबूजी के वहाँ बैठते ही अम्मा ने अपना मुँह दीवार की तरफ़ फेर लिया।
“नन्हे,” बाबूजी अपनी तरंग में बहते रहे, “कल मुझे दो काम करने हैं। तेरे आने की ख़ुशी में सुनार से तेरी अम्मा को बीर कंगन दिलाना है और तेरी नानी को यहाँ लिवाना है. . .।”
“उन्हें मत लिवाइए। मुझे वहाँ छोड़ आइए,” अम्मा रोने लगीं।
“कोप का यह कौन समय है?” बाबूजी हैरान हुए।
“तुम इतना बड़ा छल करोगे तो क्या मैं ख़ुश रहूँगी,” अम्मा बोलीं।
“कैसा छल?” बाबूजी हैरान हुए।
“जब तुम्हारी राजेश्वरी ज़िन्दा थी तो तुमने उसे मरी हुई कैसे बता दिया? मुझे छला? मेरे परिवार को छला?”
“किसने कहा वह ज़िन्दा है?” बाबूजी ने अपने होंठ सिकोड़े। माथा मिचोड़ा।
“तुम्हारी डायरी ने। बिट्टो ने आलमारी क्या खोली, तुम्हारी ज़िन्दगी खोल दी. . .,” अम्मा ने कटाक्ष किया।
बाबूजी हड़बड़ा गए। बिट्टो ने उन्हें इस तरह हड़बड़ाते हुए पहली बार देखा।
नन्हे को पलंग पर लिटा कर बिना कुछ बोले, वह अपने कमरे की ओर चल दिए।
“राजेश्वरी कौन है?” बिट्टो ने अम्मा से पूछा।
“जाकर अपने बाबूजी से पूछ,” रुलाई और ग़ुस्से की तैश में अम्मा भूल गयीं वह बिट्टो पर चिल्ला पड़ी थीं। पहली बार।
अपने कमरे में बाबूजी पलंग पर लेटे थे। उनके पैताने जा कर बिट्टो उनके पैर दबाने लगी।
उन्हें मनाने की यह युक्ति उसने अम्मा से सीखी थी।
“क्या है?” बाबूजी ने अपने पैर खींच लिए। वह काँप रहे थे।
“मुझे माफ़ कर दीजिए,” बिट्टो का जी बाबूजी की घबराहट देख कर दुखा जा रहा था, “मुझे आपकी डायरी नहीं देखनी चाहिए थी. . .।”
“कोई बात नहीं,” बाबूजी मोमदिल थे। बहुत जल्दी पिघल जाया करते। अव्वल तो उन्हें ग़ुस्सा आता ही नहीं और कभी आता भी तो वह आपे से बाहर होने की बजाए आपा सँभालने में लग जाते।
“राजेश्वरी कौन है?” बिट्टो अपने प्रश्न पर लौटी।
“मेरी पहली पत्नी। उसे तपेदिक हो गया तो डॉक्टर ने मुझे उससे दूर रहने की सलाह दी। उसके मायके का घर भी हमारे जैसा छोटा घर था। उनके लिए भी उसे रखना मुश्किल था. . .,” बाबूजी का गला रुँध गया।
“और आपने उसे सेनेटोरियम भेज दिया?”
“सेनेटोरियम भेजने की मेरी समर्थ कहाँ? एक गाँव है जहाँ उसकी एक मौसेरी ताई अकेली रहती है। उसी के नाम हर महीने राजेश्वरी के लिए वे रुपए भेजा करता हूँ. . .।”
“अम्मा को बता आऊँ?” बिट्टो को अम्मा को वापस लीक पर लाने की जल्दी थी।
“उसे यह भी बता आना राजेश्वरी मर रही है, जल्दी मर जाएगी,” बाबूजी की आवाज़ उनके आँसुओं से भीग गयी।
“अम्मा,” बिट्टो ने अम्मा के गाल जा छुए, ”रोओ नहीं. . .,” अम्मा की गालें आँसुओं से तर थीं।
“राजेश्वरी मर रही है। जल्दी मर जाएगी, अम्मा. . .।”
अम्मा पर मानो कोई बिजली चमकी।
रोना भूल कर बिट्टो की गाल पर एक थपकी दे कर बोलीं, “धत! अपनी माँ का नाम लेती है। उसके लिए अशुभ बोलती है. . .?”
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अमिताभ वर्मा 2019/12/24 02:20 PM
बड़े अच्छे ढंग से समाप्त की है आपने कहानी! बधाई!