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तूफ़ान की आँख? कनकलता को आज अख़बार में देखा तो भूगोल में दी गई तूफ़ान की तस्वीर और व्याख्या याद हो आई:

‘प्रत्येक तूफ़ान का एक केंद्र होता है जो आँख की शक्ल लिए रहता है। प्रचंड हवाओं के अंधड़ और मूसलाधार बादलों के झक्कड़ दो सौ मील प्रति घंटे की तेज़, सर्पिल गति से उस आँख के गिर्द परिक्रमा तो करते हैं लेकिन उसमें प्रवेश नहीं कर पाते। आँख शांत रहती है, सूखी रहती है . . .’

इसी दिसंबर के पिछले सप्ताह हरीश पाठक उसे मेरे क्लिनिक पर लाया था, “हर फ़ादर्स डेथ हैज़ डिमेन्टिड हर (इसके पिता की मृत्यु ने इसे विक्षिप्त कर रखा है)।”

पैर-घिस्सू चाल से कनकलता उसके पीछे रही थी और फिर एक बँधी गठरी-सी मेरे सामने की एक कुर्सी पर सिमट ली थी। क़ीमती डिज़ाइनर सलवार-सूट के साथ महीन कढ़ाई वाला एक बादामी पशमीना शॉल उसने अपने गिर्द लपेट रखा था, लेकिन उसके पहनावे से ज़्यादा ताज़ा कटे उसके बालों ने मेरा ध्यान अपनी ओर खींचा था। उसका लंबूतरा चेहरा विशुद्ध भारतीय था और उसके कानों पर ख़त्म हो रही उसके बालों की वह काट विशुद्ध विदेशी। 

“शी इज़ इन अ डिप्लोरेबल स्टेट (यह शोचनीय अवस्था में है),” हरीश पाठक ने एक रेशमी रूमाल के साथ चारखाना क़ीमती ट्वीड कोट के चार खाने समरूप रंग लिए थे: गहरा लाल, हलका हरा और तीखा काला। उसका चेहरा एक फ़ुर्तीलापन लिए था और उसके होंठ एक लीला भाव। आँखें उसकी छोटी ज़रूर थीं लेकिन उनमें चमक भी थी और उत्साह भी। 

”सविता,” मैंने अपनी सेक्रेटरी को पुकारा, “इनका फ़ॉर्म तैयार है?”

मेरे साथ अपॉइंटमेंट लेते समय मेरे क्लाइंट को एक फ़ॉर्म ख़रीदना पड़ता है। पहले पाँच सेशन की एक न्यासी रक़म जमा कर। फ़ॉर्म में पेशेंट की पारिवारिक पृष्ठभूमि पर प्रश्न पूछे जाते हैं, जिनके उत्तर क्लाइंट को भरने होते हैं। 

”जी, डॉक्टर साहब!” सविता ने कनकलता का फ़ॉर्म मुझे थमा दिया, “इन्हें अंदर ले जाऊँ?”

अंदर वाले कमरे में वह ’काउच’ है जिस पर अपना स्थान ग्रहण कर लेने पर मेरे मनोरोगी बेझिझक और अबोध अपने रहस्य मुझ पर खोलते हैं और मैं उनका उन्माद तोलती हूँ और अपनी मंत्रणा साधती हूँ। 

“हाँ, मैं वहाँ पहुँचती हूँ।”

“आइ ट्रस्ट यू विल स्ट्रेटन हर आउट (मुझे विश्वास है, आप उसकी उलझन सुलझा लेंगी।)” हरीश पाठक ने मुझसे आश्वासन लेना चाहा, “द होल टाउन सेज़ यू आर द बेस्ट थेरेपिस्ट (शहर-भर के लोग आपको सर्वोत्तम मनोचिकित्सक मानते हैं)।”

“सर्वोत्तम नहीं,” मैं मुस्कराई, “अनुभवी। केवल अनुभवी।”

स्थानीय मेडिकल कॉलेज के मनोरोग विभाग से मैं पैंतीस साल तक संबद्ध रही हूँ और पिछले ही वर्ष वहाँ से प्रोफ़ेसर के पद से रिटायर हुई हूँ। 

“आपने अपने पिता को इसी वर्ष खोया?” मैंने अपना सेशन शुरू किया। 

फ़ॉर्म में कनकलता के पिता की मृत्यु की तिथि दर्ज थी-11 अप्रैल, 2002। 

”हाँ।” मुँह में अपना तंबाकू डाले ही थे कि अचानक मानो हवा की नली में कुछ चला गया और वे खाँसते-खाँसते एकाएक चुप हो लिए।

”तीन भाई हैं?”

”साथ में तीन भाभियाँ भी हैं। उन्हीं के कहने पर भाई सभी अब अलग हो गए हैं। इतनी बड़ी बेकरी थी। उसके तीन टुकड़े कर दिए। इतना बड़ा मकान था, उसके तीन हिस्से कर दिए।”

“आपको कुछ नहीं दिया?”

“नहीं। नहीं दिया।”

“बहन आपकी कोई है नहीं। माँ भी बीस साल से नहीं। एतराज़ करने वाले फिर आपके पति ही बचे?”

“हाँ। वही एक हैं।”

“उन्होंने कुछ नहीं कहा? आपसे? आपके भाइयों से?”

“नहीं,” उसकी आवाज़ में अस्थिरता चली आई। 

“आपकी शादी पिछले वर्ष हुई 13 दिसंबर, 2001 के दिन?” मैं आगे बढ़ ली। 

“हाँ,” उसने सिर हिलाया। 

“उम्र में आपके पति आपसे नौ साल बड़े हैं? वे बयालीस के हैं और आप तैंतीस की?”

“उसकी पहली पत्नी भी मुझसे बड़ी रहीं। सात साल बड़ी।”

“आप उन्हें जानती थीं?” फ़ॉर्म में हरीश पाठक की पहली पत्नी के बारे में एक भी जानकारी दर्ज न थी। 

“हाँ। वे उसी स्कूल में पढ़ाती थीं जहाँ मैं अभी भी पढ़ाती हूँ . . .”

“वे कैसे मरीं?”

“कैंसर से। ब्लड कैंसर से।”

“आपकी सौतेली बेटी बारह साल की है? आपकी उसके साथ कैसी पटती है?”

“वह मुझे बात-बात पर डंक मारती है। मुझे देख-देखकर अपनी नाक सिकोड़ती है, होंठ सुड़सुड़ाती है, गाल चबाती है, जबड़े खोलती है, आँख मटकाती है, दाँत भींचती है, अपनी कॉपियों में मेरे कार्टून बनाती है . . .”

प्रमाण के रूप में अपने बटुए से कुछ रेखांकन निकालकर उसने मेरे सामने बिछा दिए, ”कार्टून पर लोमड़ी लिखा है और गाल मेरे हैं। चौंसिंघनी लिखा है और आँख मेरी है। बिल्ली लिखा है और होंठ मेरे हैं . . .”

कच्ची-अनगढ़, मोटी-झोटी, उलटी-सीधी उन लकीरों में बेशक न ढब रहा, न फब, लेकिन उनमें एक अजीब उछाल था, एक ज़बरदस्त वेग। साथ में रही एक असाधारण समानता। कनकलता की आँख के साथ, गाल के साथ, होंठ के साथ। 

सेशन के बाक़ी विस्तृत वर्णन में न जाकर मैं इतना ज़रूर बताना चाहती हूँ कि कनकलता ने बाक़ी सारा समय अपनी सौतेली बेटी द्वारा किए जा रहे अपने उत्पीड़न की व्याख्या देने ही में व्यतीत किया। 

“मैडम जा सकती हैं क्या, डॉ. साहब?” सविता को मेरा स्थायी आदेश है कि मेरे सेशन के पचास मिनट के समाप्त होते ही वह वह अंदर मेरे पास चली आया करे। 

“हाँ,” मैंने कहा, ”इनके पति इन्हें लेने आ गए क्या?”

“जी। इनकी बेटी भी साथ में आई हैं . . .”

कनकलता से पहले मैं बाप-बेटी के पास पहुँची। दोनों उस दीवार के पास खड़े थे जहाँ मैंने दो पुनर्मुद्रण लगा रखे हैं: एंड्रयू वायथ की पेंटिंग ’क्रिस्टीना’ज़ वर्ल्ड’ का और जॉर्ज क्रुकशैंक के कार्टून ’अ थंडरिंग हैंग-ओवर’ का। 

“क्रुकशैंक? वायथ?” मेरे पास पहुँचने पर हरीश पाठक मेरी ओर मुड़ लिया। 

“आप दोनों को जानते हैं?” मैं हैरान हुई। 20वीं सदी के वायथ की तुलना में 19वीं सदी के क्रुकशैंक को कम लोग जानते हैं। 

”नॉट जस्ट मी। माइ डॉटर टू (मैं ही नहीं, मेरी बेटी भी),” हरीश पाठक ने अपनी गर्दन लहराई। 

“ओलिवर ट्विस्ट के चित्र क्रुकशैंक ही ने तो बनाए हैं,” लड़की के मुँह में चुइंगगम थी। नीली जींस के साथ उसने चटख पीले रंग का पोलो नेक पुलोवर पहन रखा था। उसके बालों की काट हूबहू कनकलता जैसी थी, लेकिन उसके चेहरे-मोहरे के साथ पूरी तरह मेल खा रही थी। उसका मुँह गोलाई लिए था, हालाँकि उसका माथा ख़ूब चौड़ा था और नाक अच्छी नुकीली। होंठ उसके अपने पिता की तरह पतले रहे और नथुने भी उसी तरह ऐंठे हुए। 

“ओलिवर ट्विस्ट तुमने पढ़ रखा है?” मैंने उसे प्रोत्साहित करना चाहा। उससे बात करने की मेरे अंदर तीव्र उत्कंठा रही। बनकलता जैसे बॉर्डरलाइन पर्सनेलिटी केसेज़ में फ़ैमिली थेरेपी से अच्छे नतीजे देखने को मिल चुके थे। 

“हाँ,” लड़की ने अपनी चुइंगगम चुभलाई और क्रुकशैंक पर लौट आई, “क्रुकशैंक का यह कार्टून मैंने पहली बार देखा। इसमें डीमंज (पिशाच) उसने छोटे आकार के रखे हैं और बाक़ी फ़र्नीचर और आदमी सामान्य आकार के . . .”

वह कार्टून सचमुच निराला है। सोफ़ा और पुरुष एकदम सही अनुपात में बनाए गए हैं और उस पर अपने हथौड़ों और चिमटों की गाज गिराने को आतुर वे आठ-नौ पिशाच हास्यास्पद सीमा तक बौनेनुमा। 

“क्रिस्टीना’ज़ वर्ल्ड,” मैंने फिर उत्सुकता का प्रदर्शन किया, ”यह भी पहली बार देखा?”

“नहीं, नहीं, नहीं,” अति विश्वस्त, अकाल प्रौढ़ उस लड़की ने अपने को ऊँची पीठिका पर जा बिठलाया, “इसे मैंने देख रखा था। वायथ के परिचय के साथ। एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटैनिका की वेबसाइट पर। हाँ, ये रंग उसमें देख न पाई थी। इधर वाली घास उसमें भूरी न थी और उधर वाली घास हरी न थी . . .”

क्रिस्टीना,ज़ वर्ल्ड के बारे में मैं यहाँ यह बता दूँ कि उस पेंटिंग में निर्जन, भूरी घास पर अपने घुटने और हथेलियाँ टिकाए एकाकी और उदास एक युवती इधर पीठ किए मृगतृष्णु उस दुनिया की ओर पहुँचने की ताक में है जहाँ कुछ मकान सामने बिछे हैं, हरी और चमकीली घास पर। 

“ड्राइंग में बेटी की रुचि आपने बढ़ाई?” मैंने हरीश पाठक की ओर देखा। 

“यप्प,” उसके चेहरे पर गर्व छलक आया। 

“आप अंदर वाले कमरे में आइए! अकेले!”

अंदर पहुँचकर हरीश पाठक कहीं बैठा नहीं। मंद रोशनी छोड़ रहे टेबल-लैंप के पास जा खड़ा हुआ। तेज़ रोशनी वाले बल्ब खोलकर मैं उसके निकट चली आई। 

“कनकलता के अनुमान शायद निष्पक्ष नहीं, तटस्थ नहीं। शायद अनुकूलता के विरुद्ध जाना उसकी आदत में शामिल हो . . .”

“यू मीन, अ मैल अडैप्टिव हैबिट?”

मनोविश्लेषण पर अच्छी सामग्री एकत्रित करता रहा हरीश पाठक! अपने लेटरहेड वाले काग़ज़ पर मैंने मैलेरिल की डोसेज़ लिख दी। 

“मैलेरिल?” उसने पूछा, ”अ न्यूरोलेप्टिक?”

“न्यूरोलेप्टिक। यह मेरी पहली पसंद है। अमोनो एमाइन ऑक्सीडेज़ इनहिबिटर मेरे साथ दूसरे नंबर पर आती है। न्यूरोलेप्टिक के नतीजे अच्छे रहे हैं। एक-दो केसेज़ में ज़रूर मांसपेशियों के संचालन में अनभिप्रेत गति की शिकायत सुननी पड़ी, लेकिन ज़्यादा बार इसके सेवन ने रोगी को दो सप्ताह के अंदर ही सामान्य व्यवहार पर लौटा दिया . . .”

“फैमिली थेरेपी?” वह हँसने लगा। 

“हर्ज क्या है?” मैं मुस्कराई, ”यक़ीन मानिए, आपकी बेटी को आपके विरुद्ध तनिक न भड़काऊँगी। मैं वचन देती हूँ . . .”

“डन,” वह मान गया। 

तीसरे दिन जैसे ही लड़की मेरे पास पहुँची, मैंने उसे ‘गुडइनफ़ ड्रा-अ-पर्सन’ टेस्ट दे दिया। 

“किसकी तस्वीर बनाना चाहोगी?” मैंने पूछा। 

“आपकी बना दूँ?” उसके होंठों पर पिता वाला लीला भाव आ बैठा। 

“बना दो,” मैंने कहा। 

मेरी मेज़ पर रखी पेंसिल लड़की ने उठाई, काग़ज़ अपने पास सरकाया और शुरू हो ली। 

बारह साल तक के बच्चों को मनोचिकित्सक अक़्सर यह टेस्ट दे दिया करते हैं। उनकी समझ मापने हेतु। माप के दो आधार रखे जाते हैं। पहला, जिस व्यक्ति का बच्चे ने चित्र बनाया है, उसमें गुणात्मकता का अंश कितना रहा और दूसरा, चित्र में बनाए गए ब्योरे कितने बराबर रहे। 

तस्वीर जब पूरी हुई तो मेरी हँसी निकल गई। मेरे बालों को छोड़कर सब कुछ ऊबड़-खाबड़ और टेढ़ा-मेढ़ा था उसमें! मेरे संदेह की पुष्टि हो गई। दो दिन पहले जिस समय कनकलता का मेरे साथ सेशन चल रहा था, हरीश पाठक इस लड़की के साथ बाहर मेरे दफ़्तर में बैठा रहा था और लड़की के पूछने पर—मैं देखने में कैसी हूँ?—हरीश पाठक ने सविता से एक काग़ज़ माँगा था, एक पेंसिल माँगी थी और वहीं बैठे-बैठे मेरा एक स्केच बना डाला था। फिर बड़ी चतुराई से सविता ने वह स्केच उससे हथिया लिया था। यह कहकर कि वह इसे अपने बच्चों और पति के लिए ले जाना चाहेगी जो आए दिन उससे पूछा करते हैं, ”जिस डॉक्टर से तुम इतना डरती हो, आख़िर देखने में वह है कैसी?” 

निस्संदेह लड़की के स्केच में हरीश पाठक वाले स्केच की तुलना में गुणात्मकता की भारी कमी थी, किन्तु इसमें भी उसकी तरह सबसे ज़्यादा महत्त्व मेरे बालों के ब्योरों को दिया गया था। उनके कैंची-मोड़, उनकी कंघी-पट्टी, उनकी रज्जु, उनकी रिक्तियाँ सभी बारीक़बीनी से दर्ज थीं। वहीं-वहीं के केशांतर रखे गए थे, जहाँ-जहाँ मेरे बाल ग़ायब हो चुके थे। रंग-सामग्री के लंबे प्रयोग के कारण। 

“तुम अच्छी ड्राइंग बना लेती हो,” मैंने कहा, “तुम्हारी माँ भी अच्छी ड्राइंग बनाती रहीं?”

“नहीं। ड्राइंग सिर्फ़ पपा का सब्जेक्ट है। पपा का शौक़ है। मेरी ममा पढ़ने की शौक़ीन रहीं।”

“और तुम्हारी नई माँ? उन्हें क्या शौक़ हैं?”

“कनकलता को?” उस उद्दंड लड़की ने अपने से इक्कीस साल बड़ी कनकलता के नाम के संग तनिक लिहाज़ न बरता, “वह बहुत दुष्ट है। जिन दिनों मेरी ममा अस्पताल में थीं, वह पपा को दूसरी शादी के लिए तैयार कर रही थी, मेरा हवाला देकर . . .”

“तुम्हें किसने बताया?”

“मुझे मालूम है। जिस दिन मेरी ममा मरीं, बाज़ार जाकर उसने अपनी शादी वाली साड़ी ख़रीद डाली . . .”

“तुम्हें किसने बताया?” मैंने दोबारा पूछा। 

“पपा ने। वे मुझे सब कुछ बता देते हैं . . .”

“उससे उन्हें कभी प्यार न था। कनकलता ही उनकी खोज में रहा करती थी . . .”

“तुम्हारी ममा के सामने? तुम्हारे सामने?”

“सामने भी और पीछे भी। ऊपर से मेरी ममा की फ़्रेंड बनती थी, अंदर से पपा की फ़्रेंड बनना चाहती थी . . .”

“तुम उसे कब से जानती हो?”

“बचपन से। रोज़ ही हमारे घर आ धमकती थी। कभी केक के साथ तो कभी बिस्किट के साथ। कभी सैंडविच के साथ तो कभी बन-कबाब के साथ . . .”

“तब भी तुम्हें अच्छी नहीं लगती थी?”

“मैं उसके बारे में तब कुछ सोचती ही न थी। न अच्छा, न बुरा।”

“और अब?”

“अब वह बावली हो गई है,” वह भक्क से हँस पड़ी, “उसकी भाभियों ने उसके केक-शेक, उसके बिस्किट-शिस्किट उसके बन-शन सब बंद करा दिए हैं . . .”

“तुम्हें उस पर दया नहीं आती?”

“दया क्यों आएगी? उसे हमारी तनिक चिंता नहीं, तनिक परवाह नहीं। न मेरी, न पपा की, न घर की।”

“अपनी चिंता करती है? अपनी परवाह करती है?”

भौचक होकर लड़की मेरा मुँह ताकने लगी।

हरीश पाठक को उस दिन फिर मैंने अंदर बुलवाया। अकेले में। 

“समुद्र पर दोनों को आप ले जा रहे हैं . . .”

“व्हाट?” हरीश पाठक ने अनभिज्ञता जतलाई। 

“पत्नी को जलमग्न करने के लिए बेटी को जलपोत बना रहे हैं . . .”

“व्हाट फ़ोर?”

“अपने पिता की जायदाद में कनकलता को उसका हिस्सा मिलने की सम्भावना क्या ख़त्म हुई, आपने तूफ़ान बुला लिया। नहीं जानते, तूफ़ान आने पर बेटी भी डूब जाएगी?”

“से इट अगेन।”

“आप चाहें तो तूफ़ान रोक सकते हैं, लौटा सकते हैं . . .”

“आइ सस्पेक्ट सिनिलिटी हैज़ स्ट्रक यू (मुझे शक है, सठियापा आप पर असर दिखा रहा है),” हरीश पाठक तत्काल दौड़ पड़ा। दौड़ा-दौड़ी में कनकलता की अगली अपॉइंटमेंट लेना भी भूल बैठा। 

आप बूझ लिए होंगे, कनकलता वही स्त्री है, जिसकी तस्वीर आज अख़बार में छपी है। तीसरे पृष्ठ पर। उसकी आत्महत्या की सूचना के साथ। तेरह दिसंबर, दो हज़ार दो की शाम को जब उसने मैलिरिल की अति मात्रा का सेवन किया, उसके उद्योगपति पति अपनी इस दूसरी पत्नी के संग हुई अपनी शादी की पहली वर्षगाँठ मनाने की तैयारियों में जुटे थे। 

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