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पितृशोक

“आप से एक सर्टिफ़िकेट चाहिए था, डॉ. साहिबा,” नीरू का केस हमारे मनश्चिकित्सा विभाग के बाबू अशोक चन्द्र लाए थे, “जिस लड़की को हम लोग ठीकमठीक समझ कर अभी दो माह पहले अपने छोटे भाई से ब्याहे थे, वह ठीक नहीं निकली। ऐसे में मुसीबत के मारे हमारे भाई को वकील बता रहा है किसी बड़े मनोश्चिकित्सक से सर्टिफ़िकेट बनवा लेंगे तो तलाक़ की बुनियाद मज़बूत हो जाएगी.....”

अपने उस विभाग में मैं पिछले अठारह वर्ष से काम करती रही थी और उन दिनों विभागाध्यक्ष भी थी।

“लड़की कहाँ है? निश्चित रूप से सर्टिफिकेट देने से पहले मैं लड़की से मिलना चाहती हूँ, उसे जाने-सुने बिना मैं सर्टिफिकेट नहीं दे पाऊँगी.....”

“कुछ जानकारी तो हम भी दे दें,” अशोक चन्द्र झेंप गया, “लड़की का पिता तो सनकी था ही, उस की माँ की मानसिक प्रक्रिया भी पूरी तरह से ठीक नहीं। उसे भी लगभग विक्षिप्त ही समझिए.....”

“पिता कैसे सनकी थे?” मैंने पूछा।

“सनकी तो थे ही, साथ में दब्बू और डरपोक भी। एक दिन बॉस ने तनिक डाँट क्या दिया वह आत्महत्या कर बैठे.....”

“ठीक है,” मैं ने अपनी डायरी देख कर मिलने की तारीख तय कर दी।

नीरू अकेली नहीं आयी। उस की जेठानी उस के साथ रही।

“नीरू के साथ मुझे अकेले में बात करनी होगी,” घंटी बजा कर मैं ने चपरासी को बुलाया, “इन्हें दूसरे कमरे में बिठलाने ले जाओ।”

“तुम इस विवाह से ख़ुश नहीं क्या?” एकान्त पाते ही मैं असली वाद विषय पर उतर आयी।

“नहीं, मैम, मैं ख़ुश हूँ.....”

“फिर तुम्हारे पति तुम्हें तलाक़ देने की क्यों सोच रहे हैं?”

वह रोने लगी।

“अगर तुम तलाक नहीं चाहती तो कहो तुम ऐसी मुरझायी अलसायी सूरत क्यों लिए हो? माँ की चिन्ता लगी है क्या?”

“जी.....” उस की रुलाई बढ़ ली।

“बहुत बीमार हैं क्या? बहुत कष्ट में? तुम मुझे बताओ। सब बताओ। क्या कष्ट है उन्हें? क्या बीमारी?”

“मेरे बाबूजी अच्छे नहीं थे।”

अपनी हिचकियों के बीच उस ने दारुण अपनी कथा कह सुनायी, “मेरे इन्टर का रिज़ल्ट आया ही था कि उन का कस्बापुर से तबादला दूसरे शहर में हो गया। मुझे वह अपने साथ उधर ले गए। अपनी रसोईदारी और मेरी पढ़ाई का हवाला दे कर। वहाँ पहुँच कर मैं ने जाना उनके मन में खोट रहा था। उन्हें अपने पिता-धर्म से चूकना था.....”

“तुम परिवार में अकेली बेटी हो?”

मैंने पूछा, “बाकी भाई ही भाई हैं?”

“जी। दो भाई मुझसे बड़े हैं और दो छोटे। उन में केवल सबसे बड़े भाई ही विवाहित हैं। दूसरे बड़े एम.ए. कर रहे हैं और छोटे दोनों अभी स्कूल ही में हैं.....”

“तुम कहाँ तक पढ़ी हो?”

नीरू की आयु ज़्यादा न थी। अठारह-बीस ही की लग रही थी।

“इन्टर के बाद फिर मैं पढ़ कहाँ पायी?” उस का स्वर रोष से भर आया, “धर्म संकोच के प्रति अपने बाबूजी की अकल्पित वह अवज्ञा मुझे इतनी वीभत्स लगी कि अगले ही दिन मैं ने माँ को फोन से अपने पास बुला लिया। भीरु तो वे थीं ही। आयीं और बिना बाबूजी से कुछ कहे मुझे अपने साथ कस्बापुर लौटा ले लायीं। मेरे समूचे सामान के साथ..... फिर उसी रात हमें सूचना मिली बाबूजी आत्महत्या कर लिए हैं.....”

“अपनी आत्महत्या द्वारा वह अपने को दंड दे रहे थे,” मैं ने अपना विश्लेषण प्रस्तुत किया, “तुम्हारी माँ के मौन निराकरण तथा पदावनति ने उन पर स्पष्ट कर दिया होगा उन के उस अतिचार की क्षतिपूर्ति अब असम्भव थी और वह अपराध-भाव के बोध तले प्रायश्चित करना चाहते रहे होंगे। हमारी मनोश्चिकित्सा के प्रवर्तक सिगमंड फ्रायड का एक कथन भी है, सम्बन्धों में पुनर्लाभ की प्रति प्राप्ति में अपराध-भाव सब से बड़ा अवरोध रहा करता है.....”

“नहीं, मैम, मैं ऐसा नहीं सोचती। उन की आत्महत्या के पीछे उनका अपराध-बोध नहीं था। पश्चाताप नहीं था। डर था। केवल डर। पुलिस का डर। क़ानून का डर। सोचते रहे होंगे माँ वह सब बड़े भैया को जब कह सुनाएँगी तो वह ज़रूर उन के विरुद्ध थाने में जा रिपोर्ट लिखवा आएँगे.....”

“तुम्हारी माँ ने भी यही सोचा-समझा?” मैंने पूछा।

“माँ ने कुछ सोचा-समझा ही नहीं। दुबक कर चुपचाप घर बैठ लीं। एक ही ज़िद पकड़ कर नीरू की शादी अब टालनी नहीं, निपटा देनी है”

“और तुम्हारे भाई लोग? वे क्या कहते-सोचते थे?”

“माँ ने उन लोग को न स्वयं कुछ बताया न मुझे ही कुछ बताने दिया। कहती, उस प्रकरण के बारे में मुँह खोलना अपनी गाल पर चपत लगाना है.....”

“हो सकता है तुम्हारे पिता की आत्महत्या से उन का क्षोभ-कलेश सब जाता रहा था और आपत्तिजनक उन के उस कुकृत्य को वह अब अपने चैतन्य, सचेतन, बोध, से दूर हटा देना चाहती थी.....”

“ऐसा ही होता तो फिर वह बाबूजी की मृत्यु के लिए मुझे क्यों दोष दिया करती? क्यों मुझे दिन रात कोसती? बाबूजी के कुत्सित उस कुकर्म के लिए मुझे ज़िम्मेदार क्यों ठहराती? ऐसा नहीं था, मैं माँ को लाख समझाती उन्हें बार-बार उस कथाक्रम पर ले जाती जिस ने मुझे उस अधोलोक की ओर जा धकेला था, जहाँ केवल प्रतिकार की, प्रतिशोध की, विद्रोह की रणभूमि ही तैयार हो सकती थी और फिर भी माँ अपनी तोपें मेरी ओर बढ़ाती हुई मुझी पर गोले बरसाती थीं.....”

“फिर तो तुम दोनों माँ-बेटी एक दूसरे पर अन्याय कर रही हो, ग़लत दिशा में जा रही हो, ग़लत ढंग से सोच रही हो। याद रखो टू रौंग्ज़ डू नॉट मेक़ अ राइट, दो अन्याय न्याय नहीं उत्पन्न करते केवल मनोमालिन्य ही को प्रबल करते चले जाते हैं। मेरी मानो और अपने पिता को क्षमा कर दो.....”

“मैं उन्हें क्षमा नहीं कर सकती, मैम। कभी नहीं.....”

“केवल इसलिए कि उन्हें दंड देने-दिलाने का अधिकार तुम अपने पास आरक्षित रखना चाहती थी और उनकी आत्महत्या ने तुम्हें तुम्हारे उस अधिकार से वंचित रखा?” मेरे स्वर में कठोरता उतर आयी।

“शायद..... शायद..... शायद.....,” बालसुलभ निष्कपटता से उस ने हामी भरी।

“क्या तुम जानती हो न्याय-संहिता का एक सिद्धांत है, पनिशमेंट मस्ट मैच द क्राइम, दंड का अपराध से मेल मिलाना ज़रूरी रहता है.....”

“नहीं मैम, नहीं जानती.....”

“जभी तुम समझ नहीं रही कि तुम्हारे पिता को उनके अपराध का उपयुक्त दंड मिल चुका है और अब उन्हें क्षमा देने ही में तुम्हारी भलाई है, सब की भलाई है.....” आशंकित मनोदशा में वह मेरा मुँह ताकने लगी।

“याद रखो क्षमा शब्द में तीन भाव एक साथ संघटित रहते हैं। कृपा, दया और करुणा। मालूम भी है हमारे हिन्दु धर्म के आधारभूत सद्गुणों में क्षमा भी एक है?”

नीरू की व्याधि का अन्दाज़ मुझे हो गया था; पिता के प्रति घना आक्रोश।

और मैं जान ली थी उस का उपचार भी उसी के पास था; पिता को क्षमा अनुदान।

“शायद आप ठीक कह रही हैं, मैम,” नीरू गहरी सोच में पड़ गयी।

“अगर तुम्हें मेरी बातें युक्ति-युक्त लगी हैं तो निषेधात्मक अपनी यह सोच तत्काल त्याग दो। अपनी मुद्रा बदलो। न स्वयं अप्रसन्न रहो और न ही दूसरों को अप्रसन्न रखो.....”

“जी, मैम। मैं ज़रूर बदलने की चेष्टा करूँगी और बदलूँगी भी। मगर आप से एक विनती है, मैम, मेरा भेद किसी से साझा मत करिएगा.....”

“तुम न भी यह कहतीं तो भी ऐसा होता.....” मैं मुस्कुरा दी, “और तुम जब चाहो मेरे पास आ सकती हो। बेझिझक।”

नीरू को बाहर भेजते ही मैंने बाबू अशोक चन्द्र को बुलावा भेजा।

“लड़की को मेरे सर्टिफ़िकेट की नहीं, मेरी सलाह की ज़रूरत थी। लड़की भली है मगर उसे एक ही समस्या है: पितृशोक जिस से वह अभी तक उबर नहीं पायी है, मगर उबरने में उसे अब अधिक समय नहीं लगेगा यदि उसे उबारने में आप लोगों का सहयोग उसे उपलब्ध रहेगा.....”

“जी, मैम, सच कहूँ तो हम लोग भी तलाक़ पर बड़ी मजबूरी ही में विचार कर रहे थे। असल में लड़की का बड़ा भाई उसी दफ़्तर की एक ऊँची कुर्सी पर बैठता है जहाँ छोटा वाला मेरा यह भाई क्लर्क है; ऐसे में यह तलाक़ उन दोनों के दफ़्तरी काम में आड़ी तो डालता ही डालता.....”
 

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