वृक्षराज
कथा साहित्य | कहानी दीपक शर्मा1 Sep 2021 (अंक: 188, प्रथम, 2021 में प्रकाशित)
कल रात मुझे अमृतसर का अपना पुराना पीपल फिर दिख गया। हूबहू वैसा ही, जैसा लगभग पचास वर्ष पूर्व हम पीछे छोड़ आए थे और जिसके काटे जाने पर वहाँ हुए हंगामे की ख़बर के साथ मैं पिछली रात सोने गयी थी।
साथ ही दिख गयी तिमंज़िले अपने किराए के मकान की तीसरी मंज़िल वाली वह खिड़की, जहाँ से माँ की संगति में हम भाई-बहन ने उस चीनी मिल को धराशायी होते हुए देखा था जहाँ हमारे पिता रसायनज्ञ थे।
वह मिल अमृतसर के औद्योगिक क्षेत्र, छहरटे, में स्थित थी। खांड वाले चौक के अंदर। जिसके ऐन सामने वह पीपल पड़ता था जिसने हमारी गली को उसकी पहचान दे रखी थी, पीपल वाली गली।
वह पीपल था तो हमारे मकान से बीस फुट की दूरी पर मगर उसके पत्ते गली के दूसरे ऊँचे मकानों की छतों की तरह हमारी छत पर भी आन झूमते थे। अपनी लंबी शाखाओं के संग। बिना किसी तेज़ हवा का झोंका लिए।
माँ कहतीं, इन पत्तों में देवता वास करते हैं। जभी तो इनमें ऐसी झूम है। जिस पर नास्तिक रहे हमारे बाबूजी हम भाई-बहन की ओर देख कर हँस देते, ये पत्ते तो इसलिए लहराया करते हैं क्योंकि उनकी डंडियाँ लंबी हैं और उनके ढाँचे चौड़े हैं जो अपने अंतिम छोर तक पहुँचते-पहुँचते क्रमशः पतले होते जाते हैं। हम दोनों भाई बहन भी बाबूजी की ओर देखकर हँसने लगते। बचपन में हम दोनों बाबूजी से एकमत रखते थे, माँ से नहीं। तिस पर भी माँ अपनी ज़मीन छोड़ती नहीं, अड़ी रहतीं। पीपल वाली बात पर भी अड़ जाया करतीं, “आपकी तिकड़ी के मानने न मानने से क्या होता है? यहाँ तो गली के हम तमाम लोग सुबह उठकर इसी की पूजा-अर्चना करते हैं। इसे ही जल चढ़ाते हैं। जानते जो हैं जड़ से यह ब्रह्मस्वरूप है, तने से विष्णुस्वरूप और अग्रभाग से शिव-स्वरूप। जभी तो भगवद् गीता में श्रीकृष्ण ने यह घोषणा भी की थी, ‘पेड़ों में मैं पीपल हूँ।’ और आप जो विज्ञान की बात करते हो तो आयुर्वेद भी तो वनस्पति-विज्ञान की समझ रखता है और उसी समझ से इस के पत्तों को दमे, मिरगी, मधुमेह, पीलिया और पेट के रोगों के इलाज के लिए प्रयोग में लाया करता है।” इस पर बाबूजी फिर मुस्कुराने लगते, “मगर आयुर्वेद पर विश्वास ही कितने लोग रखते हैं? हम लोग भी तो बीमारी में किसी एलोपैथ ही का इलाज मानते हैं। पचास-साठ वर्ष पहले जन-सामान्य में आयुर्वेद आज जितना लोकप्रिय नहीं रहा था।
तथापि स्थिति तत्थोथंभो नहीं रह पायी। अन्ततोगत्वा उस पीपल ने हम तीनों के मन में भी अपनी जगह बना ही डाली। सन् १९६५ के सितंबर माह में। जिस की ६ तारीख़ से हमारे एक पड़ोसी देश तथा हमारे देश की वायु सेनाओं के बीच भिड़ंतें शुरू हुई थीं, साथ ही उसकी सीमा से लगे हमारे अमृतसर के आकाश में लड़ाकू विमानों की आवाजाही और उनके युद्ध के संघर्ष। वैसे तो सन् १९६५ शुरू ही हुआ था कच्छ के रणक्षेत्र वाली भारत-पाक सीमा की झड़पों के साथ। जो अगस्त तक आते-आते सियालकोट तथा जम्मू-काश्मीर पर जा केंद्रित हुई थीं। फिर उधर से पाकिस्तान का ध्यान बाँटने के निश्चय के साथ हमारी पैदल सेना अमृतसर से कुल जमा तीस मील की दूरी पर स्थित लाहौर की सीमा जा लाँघी थी। उस पर त्रिभुजीय धावा बोलती हुई। ६ सितंबर के दिन। वहाँ के बाटापुर, बरकी और डगराई के कई भाग अपने कब्ज़े में लेती हुई। और यों बढ़ते-बढ़ते हमारी सेना इच्छोगिल नहर तक भी पहुँच ली थी। और उसी शाम पाकिस्तानी वायुसेना ने जब हमारे पठानकोट, आदमपुर और हलवाड़ा के हवाई अड्डों पर बमबारी की तो जवाबी हवाई हमलों का दौर शुरू हो चला।
इतिहासकार बताते हैं कि दूसरे विश्वयुद्ध के बाद टैंकों से हुई यह लड़ाई सर्वाधिक भीषण रही थी जब एक-दूसरे के राज्य क्षेत्र में इंच भर भी आगे बढ़ने के लिए ज़बरदस्त टक्कर ली जाती थी।
किन्तु उस विकट समय में भी गली-वासी अपना जीवट अपने अधिकार में रखे रहे थे। आकाश में विचर रहे युद्धक विमान उनमें भय कम और जिज्ञासा अधिक जगाते थे। हमारे बाबूजी हैरान हो जाया करते जब वह देखते, ज़िला प्रशासन द्वारा जारी किए गए ए. आर. पी. (एयर-रेड प्रीकौशन्ज)- हवाई हमलों के दौरान ली जाने वाली सावधानियों की जानकारी के बावजूद हमारे वे गली-वासी उनका उल्लंघन करने में तनिक न हिचकिचाते और ख़तरे का पहला सायरन बजते ही वे अपनी छत पर या ऊँची खिड़कियों पर जा खड़े होते।
हालाँकि प्रशासन ने हम नागरिकों पर यह स्पष्ट कर रखा था कि हवाई बमबारी से अपने को सुरक्षित रखने का उत्तरदायित्व सीधा-सीधा प्रत्येक नागरिक को स्वयं निभाना था और हमारी सुविधा के लिए हमें सावधान करने हेतु प्रशासन ने सायरन बजाने का आयोजन किया था। राडार पर शत्रु विमान को देखते ही एकल सायरन बजता था। तीन मिनट तक अविराम। और फिर शत्रु के विमान के लौटने पर या ध्वंसित हो जाने पर ‘ऑल क्लियर’ का सिगनल देने हेतु तीन सायरन बजाए जाते थे, जिनमें प्रत्येक दो सायरनों के बीच दो-दो मिनट के अंतराल रहते थे।
तथा हमें यह विशेष रूप से समझाया जा चुका था कि पहले और अंतिम उन सायरनों के बीच के समय पर हमें या तो अपने घरों की ख़ाली ज़मीन पर खोदी गयी खन्दकों में शरण ले लेनी चाहिए या उन खन्दकों के उपलब्ध न रहने पर अपने कमरे के कोनों में जा खड़े होना चाहिए।
सच पूछें तो हमारे उन गलीवासियों के उस दु:साहस के पीछे दो कारक काम कर रहे थे।
पहला कारक उनका वह दृढ़ विश्वास रहा था कि उनका वह पीपल उन्हें बमबारी का अहेर बनने से उसी प्रकार बचा लेगा जैसे सन् १९४० के दशक में उस पीपल ने उन्हें साम्प्रदायिक दंगों से बचाए रखा था। सभी जानते हैं उन दिनों अमृतसर में भारी मारकाट हुई थी। बाबूजी बेशक उन लोगों का यह तर्क ख़ारिज कर देते। कहते “उस समय दंगई यदि इस गली में नहीं आए तो शायद इस कारण कि यहाँ दोनों सम्प्रदायों ने मिल-बैठकर एक सफ़ेद झंडा इस पीपल के शीर्ष पर टाँगे रखा था और वह झंडा एक ही वक्तव्य लिए था- 'इस गली में दोनों बिरादरियों की गिनती एक सी है, अमन क़ायम रखने का इरादा एक सा है।’ और फिर यह संदेश दोनों सम्प्रदायों की मातृभाषाओं में दर्ज हुआ था। ऐसे में दंगइयों के भाले और छुरे कैसे न लौट-लौट जाते?’
मगर बाबूजी का तर्क वहाँ सुनने वाला कोई न रहा। हम दोनों भाई-बहन भी नहीं। उनकी अनुपस्थिति में, माँ की आँख बचाकर, गलीवासियों की देखा-देखी हम भी अपने आकाश में युद्धक उन विमानों की कलाबाज़ियाँ देखने कभी छत पर जा पहुँचते तो कभी अपनी तीसरी मंज़िल की उस खिड़की पर, जहाँ पीपल की एक डाल एक चंदवा सा बनाए रही थी। वह पीपल बहुत ऊँचा था। लगभग सौ फीट ऊँचा तो ज़रूर ही रहा होगा। तिस पर इतना घना और अलग-अलग तल्लों वाला कि गली की हर ऊँची छत की किसी न किसी खिड़की अथवा दीवार पर एक चंदवा सा तो बनाए ही रहता।
हमारे इस दु:साहस का दूसरा कारक रहा था: हमारे देश का रेडियो। जो हमें युद्ध की ताज़ा और सच्ची तस्वीर दिया करता। दूसरे देश के रेडियो की भाँति झूठी ख़बरें और अफ़वाहें नहीं फैलाता। वहाँ से उड़ायी गयी एक ख़बर ने तो हम अमृतसरवासियों को ख़ूब गुदगुदाया भी था। जब वहाँ से घोषणा की गयी थी, ‘पाकिस्तान की फ़ौज मुसलसल आगे बढ़ती हुई अमृतसर शहर पहुँच गयी है। हमारी फ़ौज ने हॉल गेट की घड़ी भी उतार ली है।’ अचरज नहीं जो ऐसी झूठी ख़बरें सुनकर ही हम लोगों ने उस रेडियो स्टेशन को नया नाम दे डाला था : रेडियो झूठीस्तान।
ऐसे में स्थिति की नज़ाकत को समझते हुए आकाशवाणी ने उस समय के सर्वाधिक लोकप्रिय एवं विश्वसनीय अपने उद्घोषक, श्री मेलवेल डिमैलो, को विशेष युद्ध संवाददाता के रूप में हमारे अमृतसर भेज दिया था ताकि सभी देशवासियों को युद्ध की वास्तविक स्थिति आँकने और जानने का अवसर मिले।
यों समझिए, दोनों सेनाओं की गतिविधियों के संग हमारा उलझाव उतना ही गहरा था जितना आजकल के लोगों का क्रिकेट के संग। घर-घर में, दुकान-दुकान में आजकल जैसे टी.वी. और मोबाइल पर लोगबाग क्रिकेट मैच के दौरान अन्तत: उसके चरण का पीछा किया करते हैं उसी प्रकार हम लोग, रेडियो और ट्रांजिस्टर के हरदम ‘औन’ अवस्था में रखा करते। हर गली, हर मोड़, हर घर में ख़बरें सुनायी दिया करतीं। ट्रांजिस्टर भी शायद उन्हीं दिनों बहुत बिके थे। और कुछ लोग तो इतने छोटे ट्रांजिस्टर ख़रीद लिए थे कि हरदम उन्हें अपनी जेब में डाले घूमते। लगभग वैसे ही जैसे आजकल जन-जन अपने मोबाइल। हमारे परिवार में भी पहला ट्रांजिस्टर उन्हीं दिनों आया था।
और मज़े की बात यह कि क्रिकेट में अपने खिलाड़ी के सेन्चुरी बनने पर लोग आजकल जैसे एक दूसरे के गले मिलते हैं, मिठाइयाँ बाँटते हैं, उन दिनों हम अमृतसरवासी भी अपने देश के सैनिकों की विजय का उत्सव मनाया करते। ख़ुशी मनाए जाने के दो विजयोत्सव तो मुझे भुलाए नहीं भूलते।
पहला हमें दिया अपनी सेना के ‘असल उत्तर’ ने। जिसमें काम आयीं कम्पनी क्वार्टर मास्टर अब्दुल हमीद की अद्वितीय वीरता और मेजर-जनरल गुरबख्श सिंह की चतुर युद्ध नीति।
आठ सितंबर के आते-आते पाक सेना अपने लाहौर के इच्छोगिल क्षेत्र से हमारी सेना को लौटाती हुई हमारे खेमकरण को अपने कब्ज़े में ले चुकी थी और अब खेमकरण-भिक्खीविन्ड-अमृतसर रोड की ओर बढ़ रही थी। अपने पैटन टैंकों से लैस उसी रोड पर ‘असल उत्तर’ को अपना केंद्रीय सेना मुख बनाकर मेजर जनरल गुरबख्श सिंह ने रक्षात्मक मोर्चाबंदी आन स्थापित की। घोड़े की नाल के आकार की। रात में उनकी डिवीज़न ने वहाँ रहे गन्ने के खेतों में पानी भर दिया और पाक सैनिकों के ९७ पैटन टैंक कीचड़ भरे उस दल-दल की धंसान में अपनी गति खो बैठे। परिणाम, १० सितंबर तक उनमें से कुछ ध्वस्त कर दिए गए और कुछ जीत लिए गए। बाद में उन जीते हुए पैटन टैंकों के प्रदर्शन के साथ वहाँ एक युद्ध स्मारक भी बनाया गया जिसका नाम रखा गया, पैटन नगर।
उधर दस सितंबर ही के दिन सुबह के आठ बजे चीमा गाँव के पास बढ़ आए पाक पैटन टैंकों ने भारी गोलीबारी शुरू की तो अब्दुल हमीद अपनी सेना टुकड़ी के साथ युद्धस्थल का बग़ली मोरचा आन सँभाले। अपनी जीप पर रिकौएल-गन टिकाए। यहाँ यह बताती चलूँ रिकौएल-गन हलके वज़न वाली ऐसी नलीदार तोप होती है, जिसके दागने पर पीछे झटका नहीं लगता। रिकौएल-गन में पारंगत तो कम्पनी क्वार्टर मास्टर हवलदार अब्दुल हमीद रहे ही, उन्होंने एक के बाद एक तीन पैटन टैंकों को पछाड़ डाला। घोर रूप से घायल हो जाने के बावजूद। और चौथे पैटन टैंक का सामना करते हुए शहीद हो गए। मुग्धकारी अपने देश-प्रेम को साथियों में अंतर्वाहित करते हुए। ‘असल उत्तर’ में उनके नाम का स्मारक आज भी मौजूद है और भारत सरकार ने उन्हें परमवीर चक्र से सम्मानित भी किया। जिसे उन की विधवा ने सगर्व स्वीकार किया।
दूसरा विजयोत्सव हमने १८ सितंबर को मनाया। जब अपने अमृतसर के आकाश में हवाई हमले करने आया शत्रु का सैबर विमान हमारी वायुसेना के नैट विमान ने मार गिराया। जिनके संकुल युद्ध के हम गलीवासी भी गवाह रहे थे। अपनी छतों और खिड़कियों पर लहरा रहे अपने पीपल के घने पत्तों के पीछे से ताकते हुए। टकटकी बाँध कर। सम्पूरित स्तब्धता के साथ। और जैसे ही हमारा नैट विमान उस सैबर विमान को पछाड़ने में सफल रहा तो उन पत्तों के संग हम भी झूम लिए थे, तालियाँ बजाते हुए और सामूहिक हमारी उछल-कूद और करतल-ध्वनि ने ‘ऑल क्लियर’ वाले सिगनल को कब जा पकड़ा था, हम जान नहीं पाए थे।
किन्तु अपूर्व रहे उस अनुभव का विजय-भाव छठे दिन ही खंडित हो गया।
सतरह दिन तक चले उस युद्ध का वह अंतिम दिन था।
संयुक्त राष्ट्र द्वारा दोनों देशों के लिये युद्धबंदी का फ़रमान पिछले ही दिन जारी किया गया था और दोनों देश उसे अपनी स्वीकृति भी दे चुके थे। मगर इधर जिस समय हमारे रेडियो पर उस युद्ध की समाप्ति की घोषणा की जा रही थी, ठीक उसी समय उधर से एक विमान ने हमारे क्षेत्र में आन बमबारी कर दी।
उस समय हम माँ के पास बैठे थे। माँ स्टोव पर शाम के नाश्ते के लिए प्याज़ के पकौड़े तल रही थीं। अमृतसर में गैस के सिलेण्डर सन् १९७० ही में आ पाए थे और भोजन बनाने के लिये हमारे घर में लकड़ी का चूल्हा, कोयले की अंगीठी और मिट्टी के तेल वाला स्टोव काम में लाया जाता था।
हम भाई-बहन ताज़ा तले पकौड़े अपनी-अपनी प्लेट में लेने के लिए अभी अपने हाथ बढ़ाए ही थे कि एक धमाका पूरे घर को झकोर गया। अपने साथ सामूहिक चीख़-पुकार और हो-हल्ले का हुल्लड़ लिए।
माँ ने तत्काल तेल की कड़ाही नीचे उतार दी और जल रहा स्टोव बंद कर दिया। फिर हम दोनों को अपनी बाँहों में समेटा और वृक्षराजाय: ते: नमः रटती हुई उस खिड़की पर जा खड़ी हुई जो बाबूजी की चीनी की मिल की तरफ खुलती थी।
वहाँ अफ़रा-तफ़री मची थी। एक कोने से आग की लपटें उठ रही थीं और कर्मचारियों के रेले मिल के गेट से बाहर निकल रहे थे। पीपल की दिशा में।
जभी एक और धमाका हुआ। पहले से ज़्यादा ज़ोरदार। हवा में चिथड़े, तिक्के, किरचें और किनके उछालता हुआ: हाड़-माँस के, कपड़े-लत्ते के, लोहे के पत्तरों के.....
किस किस के अंश थे वे? किस किस के खंड? किन्हीं कर्मचारियों के? या फिर उन गन्नों के जिन्हें ट्रक और ठेले यहाँ लाया करते?
उन रोलरज के, जहाँ उन्हें पेरा जाता?
उन बौएलरज के, जिनके नीचे जल रही चूने की भट्टियाँ उस घोल को उबाला करतीं?
उन चिमनियों के, जो मिल के चालू होने का एलान अपने अंदर का धुँआ बाहर फेंकती हुई किया करतीं?
बाबूजी के रसायन विभाग के उन कार्बोनेटरज और क्रिस्टलाइरज के, जहाँ केमिकल्ज मिलाकर उस घोल से हासिल हुए गूदे को चीनी में परता जाता?
या फिर सेन्ट्रीफ़युगल उन मशीनों के जो उसे अंतिम रूप दिया करतीं?
या उन पैकरज के जो तैयार हुई उस चीनी को पुलिन्दों में बाँधा करते?
किस-किस की किरचें? किस-किस के तिक्के-बोटी?
उस समय मेरा भाई छठी में पढ़ता था और मैं नवमी में किन्तु बाबूजी के साथ उस चीनी मिल पर कई बार जा चुके थे और उसके सभी उपकरण, सभी साज-सामान देख-परख चुके थे और अब वह सब ढह रहा था.....
बिखर रहा था.....
ढेर हो रहा था.....
और उस सबके बीच बाबूजी भी वहीं कहीं थे क्या?
“बाबूजी कहाँ होंगे?” दोनों भाई बहन ने माँ से एक साथ पूछा था।
“नीचे चलकर देखते हैं,” अपनी वृक्षराजाय: ते: नमः की रट के साथ माँ हमें सीढ़ियों से नीचे ले आयी थीं।
खचाखच भरी गली में।
पीपल की ओर लपक रहे अपने गली-वासियों की होड़ा-होड़ी और हड़बड़ी से जुड़ती हुई। हमें जोड़ती हुईं।
पीपल के नीचे मिल की यूनिफार्म पहने कई कर्मचारी जमा थे।
संत्रस्त। खलबलाए।
उनमें कुछ तो घोर घायल अवस्था में दूसरे के कंधों की टेक भी लिए थे।
“तुम्हारे बाबूजी.....,” क़द में सब से ऊँची होने के कारण सबसे पहले माँ ने बाबूजी को चीन्हा था।
“बाबूजी.....”
“बाबूजी.....”
हम भाई बहन भी माँ के पीछे हो लिये थे। उन्हें पुकारते हुए।
अपने साथियों से बात कर रहे बाबूजी हमारी पुकार सुनते ही हमारी ओर बढ़ आए थे।
उनका प्रेम-स्पर्श पुनः पाने को लालायित। हम भाई बहन माँ का हाथ छोड़ दिए थे और उनकी ओर दौड़ पड़े थे।
और उस समय हमारी ‘तिकड़ी’ में से शायद कोई भी यह निर्णय नहीं कर पा रहा था कि हम धराशायी हुई उस चीनी-मिल के जान-माल को रोएँ या फिर बाबूजी एवं अपनी गली के बमबारी से अक्षुण्ण बने रहने पर अपने उस वृक्षराज को प्रणाम करें।
शत् शत्।
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