दूसरे दौर में
कथा साहित्य | कहानी दीपक शर्मा15 Nov 2025 (अंक: 288, द्वितीय, 2025 में प्रकाशित)
(1)
“रात मैंने देखा मेरे सामने एक शीशा रखा है,” थाली में आधी गाजर कद्दूकस कर चुकने के बाद ही मैं अपना मुँह खोलने की हिम्मत दिखाती हूँ, “और शीशे में एक मुँह है जिस के दाँत कुछ चबा रहे हैं . . .”
“गाजर का हलवा?” कांति, मेरी सौतेली माँ हँस पड़ती है।
मेरी ग़ुलामी के क्षण उसे ख़ूब गुदगुदाते हैं।
“गाजर तो आज आयी है,” अपनी मुस्कुराहट मैं दबा लेती हूँ, “वह भरा हुआ मुँह तो मैंने कल रात में देखा . . .”
“मालूम है?” कांति अपनी लहर में बहने लगती है, “मुकुंद और सुभाष जामुनी गाजर भी लाए हैं। काँजी के वास्ते।”
मुकुंद और सुभाष उसके भाई हैं। सुभाष सोलह का है और मुकुंद चौदह का। उधर उन लोग की सब्ज़ी की आढ़त है। जहाँ पास-पड़ोस के गाँवो-क़स्बों के लदे ट्रकों की सब्ज़ी ये लोग थोक में ख़रीदते हैं और फिर आगे बेच देते हैं, बड़े-छोटे बटखरों के तोल। कांति के पिता निरंतर बढ़ रहे अपने दमे के कारण बेशक अपने परिवार के कारोबार से अलग कर दिए गए हैं लेकिन इधर आते समय कांति के भाई मौसम की सब्ज़ी ज़रूर ही थोक में उठा लाते हैं। अपने दादा के सौजन्य से।
“मेरी बात आगे सुनिए,” मैं अधीर हो उठती हूँ, “उस शीशे के भरे मुँह पर मेरी नज़र जो जाती है तो फिर वहीं गढ़ जाती है। उस भरे मुँह के अंदर मैं हूँ और उसके जबड़े और दाँत आप के . . .”
“क्या . . . या . . . या?” गाजर छील रहे कांति के हाथ रुक जाते हैं।
उसकी दहल मेरे अंदर घुमड़ रही हँसी को बाहर ले आती है।
“मेरा मुँह क्यों?” कांति मुझ पर झपट पड़ती है, “चुड़ैल तो तू है। जो अपनी माँ को चबा गई। अब क्या मुझे चबाएगी?”
मैं रो पड़ती हूँ।
पिछले दिसंबर की वह धुँध भरी सुबह मेरे सामने आ खड़ी होती है जब माँ मुझे स्कूल पहुँचाने अपनी स्कूटी पर मुझे आगे बिठाए हुए थी और ऊँचे पुल की ढलान पर सामने से आ रहे एक अज्ञात ट्रक हमारे कानों में आन भड़भड़ाया था और माँ मेरे ऊपर औंधी आन गिरी थीं: दम तोड़तीं हुईं।
“दीदी,” सुभाष कांति को मुझसे अलग कर रहा है, “टकी-सी जान पर इतना अत्याचार? सोचो तो, यह मुकुंद से भी छोटी है . . .”
“तू इस की तरफ़दारी न कर,” कांति दोबारा मुझ पर लपकना चाहती है—लेकिन सुभाष हम दोनों से दो हाथ ऊँचा है, “तू कुछ नहीं जानता। यह लड़की चुड़ैल है। मुझे चबा लेना चाहती है . . .”
“आप जाओ यहाँ से,” सुभाष मुझसे कहता है, “दीदी को मैं समझा लूँगा।”
“मुझसे ठिठोली करती है,” कांति चिल्लाती है, “चोटी कहीं की . . .”
मैं बाहर आ जाती हूँ।
गाजर से छुट्टी पाकर मैं प्रसन्न हूँ। गाजर क्या, किसी भी सब्ज़ी को काटने-पीटने में मेरी तनिक रुचि नहीं।
बावन क़दम पर खड़ी चालीस सीढ़ियों के पार पापा बैठे हैं। इस बौएज़ स्कूल की लाइब्रेरी में। माँ ने यहाँ तेरह साल काम किया है। बल्कि आज भी जिस मकान में हम रहते हैं उस में माँ ही के नाम की तख़्ती है: श्रीमती सुधा दीक्षित, लाइब्रेरियन।
पापा उसी तख़्ती पर अपना नाम लिखवाने का इरादा रखते हैं। लाइब्रेरी सांइस की उनकी पढ़ाई पूरी होने ही वाली है और स्कूल का मैनेजमेंट बोर्ड भी उन्हें माँ वाली नौकरी देने के पक्ष में है। जभी तो लाइब्रेरियन का पद वे लोग साल भर से ख़ाली रखे हैं। और पापा अपनी क्लर्क वाली कम तनख़्वाह पर भी पूरी लाइब्रेरी सँभाल रहे हैं।
“आओ,” नई किताबों से घिरे पापा उनके लिए लेबल काट रहे हैं, “क्या ख़बर लाई हो?”
“मम्मी ने आज फिर मुझ पर हाथ उठाया,” मेरी आवाज़ रोंआसी है।
“क्यों?” पापा सतर्क हो लिए हैं। कांति के बारे में कही-सुनी हर बात वह एकाग्रता से सुनते हैं।
“उनके कहने पर अच्छी-भली गाजर कद्दूकस कर रही थी कि . . .”
“गाजर? गाजर कहाँ से आई?
“सुभाष और मुकुंद लाए हैं। उधर मंडी से। मम्मी उन का हलवा बनाएँगी। दूध और खोया इधर से मँगवा ली हैं।
“दूध के साथ खोया भी?” पापा खीझ लिए हैं।
“और गाजर कद्दूकस मुझसे करवा रही थीं . . .”
“फिर मारा किस बात पर?”
“मेरे उन्हें अपना सपना सुनाने पर . . .”
“सपना? कैसा सपना?”
“कल रात मैंने अजीब सपना देखा था। एक शीशा है और मम्मी मुझे अपने मुँह में भर कर मुझे चबा रही हैं . . .”
“क्या . . . या . . . या?” पापा बुरी तरह चौंक गए हैं। उनकी कैंची उनके हाथ से छूट जाती है।
मैं भी चौंकती हूँ।
माँ की डायरियाँ उन्होंने पढ़ रखी हैं क्या?
कांति के लिए माँ की आलमारी ख़ाली करते समय जो मेरे हाथ लगीं थीं! जिन में माँ के कई भेद, कई घाव दर्ज थे: आधे खुले, आधे ढँके!
“यह सपना तुम्हारा नहीं हो सकता,” पापा काँप रहे हैं, “यह सपना तुम्हारा है ही नहीं। यह सपना तो सुधा का है। उसका आख़िरी सपना। उस आख़िरी सुबह जब वह पाँच बजे अलार्म बजने पर रोज़ की तरह उठी थी। नहायी-धोयी थी। फिर पूजा में बैठी थी और साढ़े छह बजे जब मेरी चाय मेरे पास लायी थी तो वहीं कुर्सी पर बैठ ली थी और कहे थी, आज अजीब सपना देखा मैंने। एक शीशा है। शीशे में एक भरा मुँह है और मुँह के अंदर मैं हूँ . . .”
मेरी झुरझुराहट दुगुनी हो चली है। माँ की डायरी में यह बात फिर क्यों और कैसे दर्ज रही थी? और वह भी आख़िरी पन्नों में नहीं? न ही सपने के रूप में? सीधे-सीधे वहाँ लिखा रहा था—एक भरे मुँह का निवाला हूँ मैं! और मुझे चबाया जा रहा है। रोज़-ब-रोज़। शीशा दिखाऊँगी कभी . . .
“मैंने माँ का यह सपना सुना था,” मैं पापा की बात बीच में काट देती हूँ, “और आप की डपट भी। आप माँ को बहुत डपटते थे, पापा। क्यों? पापा?”
“वह मुझे छोटा आदमी समझती थी। अल्पबुद्धि और निकम्मा। सदियों, सदियों से दुनिया भर की औरतें जिन कामों में दिलचस्पी लेती रहीं थीं, वही काम वह बेदिली और बेरुख़ी से करती थी। तुम्हें याद नहीं क्या? मैं जब भी कहता, आज पकौड़े खाए जाएँ, चटनी भी बनाई जाए तो वह हर बार मेरा कहा—बेकहा रहने देती थी . . .”
“मैं इन किताबों पर लेबल चिपका देती हूँ,” पापा का ध्यान मैं माँ से हटा देना चाहती हूँ। उनके मुँह से माँ की बुराई मुझसे सुनी नहीं जाती।
“लेबल लग जाएँगे,” पापा अपनी कुर्सी से उठ खड़े होते हैं, “पहले घर चला जाए . . .”
“चलिए,” मैं उनके साथ हो लेती हूँ।
उनके क़दम से क़दम मिलाती हुई।
(2)
“गाड़ी कहाँ है?” माँ की स्कूटी को उसकी जगह पर न देख कर पापा पूछते हैं।
“सुभाष और मुकुंद उसे ले गए हैं,” कांति तत्काल रसोई से हमारे पास आन खड़ी होती है, “हलवे के लिए कुछ मेवा लाने।”
“टक्कर लगाने के वास्ते?” पापा ग़ुस्से पर सवार हो लिए हैं, “चालान करवाने के वास्ते? या फिर मरने-मराने के वास्ते?”
स्कूटी के मामले में पापा बहुत पक्के हैं। शुरू ही से वह इसे अपने कब्ज़े में, अपने अधिकार में रखते रहे हैं। उन से पूछे बिना माँ भी उसे कहीं नहीं ले जा सकती थी। हालाँकि उसे माँ ने ही ख़रीदा था। सात साल पहले। मुुझे मेरे नए स्कूल पहुँचाने-लिवाने। जो यहाँ से दूर पड़ता है। इस बौएज़ स्कूल की अपनी छह साल की नौकरी के बल पर लोन ले कर। जिसे उतारने में उन्हें आगामी पाँच साल लगे थे।
“शुभ-शुभ बोलिए, जी। मेरे भाई गाड़ी चलाना जानते हैं,” कांति पापा की बाँह अपने अंक में भर लेती है। पापा और कांति एक दूसरे को दुलारते रहते हैं। अक्सर और ख़ूब।
“टक्कर क्यों होगी? जी? चालान क्यों होगा? जी? और आपकी तो फिर भी हल्की गाड़ी है। स्कूटी। उधर वह भारी गाड़ी चलाते हैं। भांत-भांत के स्कूटर क्या और मोटर साइकिल क्या . . .”
“बक मत,” पापा अपनी बाँह छुड़ा लेते हैं, “बाप तेरा भिखमंगा। चौबीसों घंटे चारपाई पर पड़ा रहता है। और ये शहज़ादे स्कूटर चलाते हैं? मोटर साइकिल चलाते हैं?”
“हाँ, चलाते हैं। मेरे बाबूजी अपनी बीमारी की वजह से नहीं चला पाते तो क्या हुआ? उधर बाबूजी के पास न सही मगर घर में ताऊ लोग के स्कूटर हैं न! चाचा लोग के मोटर . . .”
“धौंस दिखाती है?” पापा कांति के चेहरे पर एक ज़ोरदार थप्पड़ लगाते हैं, “अकड़ दिखाती है? उन टुच्चों के बल पर? जिन्होंने तुझे इधर ख़ाली हाथ भेज दिया?”
अपनी गाल अपने हाथ से ढाँप कर कांति रसोई की ओर चल देती है।
पापा उसका पीछा करते हैं।
पापा का ग़ुस्सा तेज़ है और बुरा भी। माँ की डायरी में एक जगह लिखा भी रहा था: ‘इन में धैर्य की भी कमी है और क्षमा की भी। इस लिए इन्हें ग़ुस्सा बहुत आता है और बहुत जल्दी आता है . . .’
“भिखमंगों का प्लान तो देखो। गाजर लिए चलो। बहन के घर पर दूध है। चीनी है। खोया है। गैस है। हलवा कैसे नहीं मिलेगा?”
“मुझे अब हलवा बनाना ही नहीं,” कांति रोने लगती है।
“इधर आओ, वीरा,” पापा मुझे पुकारते हैं और दूध के दो पैकट और पुुरानी अख़बार में लिपटा खोया मेरी ओर बढ़ा देते हैं, “दोनों चीज़ वापस कर आओ। हलवा जब बनना ही नहीं तो इन्हें क्यों बरबाद किया जाए?”
“ठीक है,” मैं उनके हाथ ख़ाली कर देती हूँ।
दूध की दुकान इस स्कूल के परिसर के गेट पर है। लगभग तीन सौ क़दम की दूरी पर।
पापा के संग उस दुकानदार की अच्छी लिहाज़दारी है और वह दोनों चीज़ लौटा ले लेता है। और उनके दाम मुझे पकड़ा देता है।
घर में मैं क़दम रखती हूँ तो स्कूटी को उसकी जगह पर वापस पाती हूँ।
लेकिन घर में सन्नाटा है।
(3)
मैं बरामदा पार करती हूँ तो कांति की हिचकियाँ मुझ तक चली आती हैं। उसके कमरे से। पापा वहाँ नहीं हैं।
“ये रुपए वापस हुए हैं,” कांति का दरवाज़ा मैं तभी लाँघती हूँ जब उसे लाँघने की मेरे पास ठोस वजह रहती है।
कांति बुरी हालत में है। चकनाचूर और अस्त-व्यस्त।
“भैया लोग दिखाई नहीं दे रहे?” मैं उसके पास जा खड़ी होती हूँ।
“उन्हें मैंने भेज दिया वापस,” वह अपना माथा पीटने लगती है, “वे भी समझ गए इस घर में मेरी कोई मर्ज़ी नहीं। मेरी कोई जगह नहीं . . .”
“मेरी माँ को भी अपना भाई वापस भेज देना पड़ता था,” मैं उसके हाथ पकड़ लेती हूँ, “मत करिए ऐसे . . .”
बारह वर्षीय मेरे हाथ बाइस वर्षीय उसके हाथों को घेर लेने में सफल रहते हैं।
मैं उसे ढाढ़स बँधाना चाहती हूँ। सुभाष की ख़ातिर।
सुभाष से कुछ देर मैं अभी और मिलना चाहती थी।
और उसका यों सहसा चले जाना मुझे खल रहा है।
रसोई में जब कांति मुझ पर अचानक टूट पड़ी थी तो सुभाष का वहाँ अकस्मात् पहुँच कर मुझे अपनी ओट में ले लेना मुुझे भला लगा था।
“क्यों?” कांति की जिज्ञासा उसकी क्लांति पर हावी हो रही है, “वह भी मेरी तरह किसी अभागे पिता की संतान रही? एक लाचार की?”
मैं उसे बताना नहीं चाहती माँ अपने पिता को अपने बचपन ही में गँवा चुकी थीं। और नानी ही ने उन्हें तथा उनके भाई को अपनी स्कूल अध्यापिकी के बूते पर बढ़ाया-पढ़ाया था।
उत्तर में उसके हाथों पर मैं अपने हाथों का दबाव बढ़ा देती हूँ, “पापा की सोच ऐसी ही रही। हमेशा कहते, मायके वालों को लड़की के घर से कुछ नहीं लेना चाहिए, न खाना, न कपड़ा, न रुपया . . .”
“और वह मान जातीं?” कांति की उत्सुकता बढ़ गई है। पापा से उसकी शादी को आठ महीने होने जा रहे हैं लेकिन माँ के प्रति उस में इतनी जिज्ञासा, इतनी उत्सुकता मैं पहली बार देख रही हूँ।
“नहीं। नहीं मानतीं। बहुत चीखतीं। बहुत चिल्लातीं। बहुत रोतीं . . .”
“फिर? फिर क्या होता?” कांति अपने क्लेश से बाहर आ रही है।
“आधे-एक घंटे बाद माँ अपने को सँभाल लेतीं और फिर अपने काम में जुट जातीं . . .”
“अपने काम में? उन का अपना क्या काम रहा करता था?”
“उन्हें उधर लाइब्रेरी का बहुत काम रहा करता,” अपने हाथ मैं खींच लेती हूँ।
माँ के भेद की रक्षा करने हेतु।
कांति को मैं नहीं बता सकती माँ डायरी रखतीं थीं। उस में रोज़ लिखती थीं।
उनकी आख़िरी डायरी के उस एक पृष्ठ पर वह क्या लिखा था?
‘यह युद्ध-स्थल कैसा है? जहाँ वह स्वयं को युद्ध-नेता मान कर चलता है और मुझे अपनी पैदल सेना? उसके ‘दाएँ मुड़’ पर मुझे ‘दाएँ’ ही मुड़ना है? और ‘बाएँ मुड़’ पर ‘बाएँ’ ही? और ‘सामने देख’ पर ‘सामने’ ही ‘देखना’ है?”
“मैं सोचती हूँ मैं भी कोई काम पकड़ लूँ,” कांति अपने बिस्तर से उठ खड़ी होती है, “बारहवीं कर चुकी हूँ। कंप्यूटर सीख लूँ और कोई नौकरी पकड़ लूँ . . .”
मैं कोई उत्तर नहीं देती हूँ।
वह बेआरामी जो कांति और मेरे बीच अभी कुछ पलों के लिए खिसक गई थी, फिर पलट रही है . . .
पसर रही है . . .
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