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दर्ज़ी की सूई

सन् सैंतालीस के फ़साद की जब भी बात छिड़ती है मुझे श्रीमती खुशीचंद याद आती हैं। 

डायरी लिखने की अपनी आदत मैंने उन्हीं से सीखी। 

और सच पूछिए तो मुझे इस आदत से लाभ भी पहुँचा। 

एक तो डायरी लिखने से घटनाएँ लोप नहीं होतीं और दूसरे डायरी में दर्ज होते समय घटनाओं के तथ्य अपनी विलोढ़न-शक्ति से अलग हो जाते हैं और करारी से करारी चोट भी अपना डंक खोने लगती है। 

श्रीमती खुशीचंद बड़े मनोयोग से डायरी लिखतीं और रोज़ लिखतीं। उसमें तारीख़ और समय तो सुनिश्चित रहता ही साथ ही उस दिन के ऐतिहासिक घटनाक्रम की गति और ताप के साथ-साथ प्रभा का पूरा-पूरा हाल भी अवश्य होता। उनकी डायरी में एक भी प्रविष्टि ऐसी नहीं जिसमें प्रभा का उल्लेखन न हुआ हो और चूँकि सन् सैंतालीस के इतिहास तथा सन् सैंतालीस के प्रभा के दहेज़ के संग मेरा गहरा सम्बन्ध रहा, इसलिए श्रीमती खुशीचंद की उस समय की डायरियों के सार-संग्रह में मैं भी हाशिए पर विद्यमान हूँ। 

उन दिनों मैं अमृतसर के एक स्कूल की आठवीं जमात में पढ़ती थी और उसी स्कूल के छात्रावास में रहती थी। 

लाहौर से आठ मील की दूरी पर हमारी ज़मीनें थीं। अमरूद, नाशपाती और गुलाब के बाग़ थे। हमारी हवेली के अस्तबल में चार घोड़े थे और गैराज में दो मोटर गाड़ियाँ। 

हर सप्ताह में एक बार मेरे पिता ज़रूर ही अमृतसर मुझे मिलने आते थे और हर महीने एक बार मैं ज़रूर ही सभी से मिलने लाहौर जाती थी। किन्तु सन् सैंतालीस की उस अगस्त के किसी एक तारीख़ के बाद मेरे पिता मुझे मिलने कभी न आए। लाहौर के उस पते पर मैंने और मेरे स्कूल की प्रधानाध्यापिका ने कई पत्र भेजे किन्तु एक भी पत्र का उत्तर न आया। 

ऐसे में श्रीमती खुशीचंद ने मुझे अपने संरक्षण में ले लिया। 

वे उस स्कूल के पुस्तकालय की पुस्त-पाल थीं और विधवा होने के नाते उसी स्कूल के एक कमरे में अकेली रहती थीं। उनकी एकलौती बेटी प्रभा, सरकारी अस्पताल में नर्सिंग सीख रही थी तथा वहीं अस्पताल के आवासी क्षेत्र में रहती थी। 

स्कूल की मेरी फ़ीस के एवज़ में श्रीमती खुशीचंद ने मुझे पुस्तकालय में काम दिला दिया और छात्रावास की फ़ीस भरने की मेरी असमर्थता को देखकर वे मुझे अपने कमरे में ले आईं। 

मैं जानती हूँ मुझे हानि या चोट पहुँचाने की उनकी मंशा कभी न रही, न ही मैं यह कह सकती हूँ कि उन्होंने मेरा अहित अथवा उपकार किया और यह भी सच है मेरे साथ बरती गई उनकी सख़्ती अललटप्पू तथा संयोगजन्य थी, अपनी प्रभा के संग उनके प्रेम की उपज थी किन्तु उन दिनों की मेरी दुख-तकलीफ़ ने उनके लिए मेरे मन में एक कड़ी तह तो जमायी ही। 

स्कूल के बाद जिस समय मेरी सहपाठिनें गपियातीं अथवा खेलतीं, तैरती अथवा सोतीं मैं श्रीमती खुशीचंद की निगरानी में उनके पुस्तकालय पर रहती। 

पुरानी किताबों को पंक्तिबद्ध सूची में मैं रखती, कुछ पर मैं दफ्ती चिपकाती तो कुछ पर पारदर्शक रेखण-काग़ज़। नई किताबों की कार्ड-सूचिका भी मैं ही तैयार करती और उनकी सूची बनाकर उन पर नई जिल्दें भी मैं ही बाँधती। 

थक टूटकर जब मैं पुस्तकालय से लौटती तो श्रीमती खुशीचंद मेरे आगे प्रभा के लिए तैयार किए जा रहे दहेज़ का कोई न कोई सामान बिछा देतीं। 

उनके कमरे में मेरे खिसकने से उनके हाथ का काम बढ़ भी गया था। मेरे निजी सामान को अपने प्राधिकरण में देखकर वे उसमें प्रभा के अनुकूल आवश्यक रद्दोबदल करने लगी थीं। 

छात्रावास की मेरी शय्या लोहे की कमानी से बनी रही थी और मेरे बिछौने के गद्दे की ऊँचाई पूरे पाँच इंच रही थी। समय पाकर श्रीमती खुशीचंद ने उस गद्दे को खोल डाला था और उसकी रूई दो रजाइयों में बाँट ली थी। रजाइयों के खोल भी उन्होंने मेरी चादरों और पलंग पोशों से तैयार किए थे, मेरे संग। 

सिलाई की मशीन न होने के कारण सारी सूईकारी हाथ से ही की जाती। प्रभा के सभी कपड़ों के बखिए और घेरे मेरे ज़िम्मे रहते। उसके दुपट्टों को गोटा और किनारा भी मुझे ही लगाना पड़ता। हाँ रजाई में तागा डालते समय वे ज़रूर मेरे साथ समायोजन दिखातीं। एक सिरे में वे तागा डालतीं और दूसरे सिरे में मुझसे तागा डलवातीं। शायद रजाई की बेहतरी के लिए। और जब बाइस मार्च, सन् अड़तालीस की तिथि में प्रभा का विवाह सम्पन्न हुआ तो श्रीमती खुशीचंद ने बेहिचक मेरे बक्से में रखा मेरा ज़ेवर प्रभा को पहना दिया। मोतियों की माला, हीरे के कर्णफूल, पुखराज जड़ी अँगूठी और सोने की चार चूड़ियाँ। 

प्रभा की शादी के बाद श्रीमती खुशीचंद नई सनक पोसने लगीं, प्रभा के नए घर के लिए वे सामान जुटाएँगी। 

पुस्तकालय बन्द होते ही अब वे रोज़ बाज़ार करने निकलतीं और कुलीगीरी के लिए मुझे संग ले लेतीं। कितनी तो वे तेज़ चलतीं और कितनी तो वे दुकानों पर जातीं। 

एक-एक चीज़ का भाव चार-चार दुकानों से पूछतीं। 

एक बार एक दुकानदार ने चार सड़क छोड़कर पड़ने वाली अपनी पहली छोटी दुकान पर रखी एक लोहे की बाल्टी उन्हें चार आना (आज के पच्चीस पैसे) कम क़ीमत की बताई तो बस घुमा दिया उन्होंने मुझे भी। और लौटने में जब बाल्टी मुझे अपने हाथ में उठानी पड़ी तो रास्ते भर मैं उन्हें कोसती रही। 

मेरी दसवीं जमात ख़त्म होते ही श्रीमती खुशीचंद ने मुझे अपने पुस्तकालय में अर्द्धकालिक सहायक की नौकरी दिलवा दी: पचास रुपए महीने पर। ढूँढ़ने पर किसी दूसरे स्कूल में मुझे पढ़ाने का काम ज़रूर ही मिल जाता किन्तु मैं वह स्कूल नहीं छोड़ना चाहती थी। 

दो-दो तीन-तीन साल बाद भी विभाजन के समय बिछुड़े कई लोगों के मिलाप की ख़बरें जब-जब अख़बारों में छपती रहती थीं और मुझे डर था न मालूम किस दिन मेरे लापता परिवार जन में से मेरा कोई सगा मुझे ढूँढ़ता हुआ मेरे स्कूल आ पहुँचे और मेरा नया पता ये बेगाने लोग उसे दें न दें। 

आगामी सत्ताइस वर्ष भी मैंने उन्हीं के संग उन्हीं के कमरे में काटे। स्कूल के रजिस्टर में मैं ज़रूर एक अर्द्धकालिक सहायक से पूर्णकालिक सहायक नियुक्त कर दी गई थी किन्तु दुगुनी और फिर तिगुनी और उसके बाद चौगुनी हुई मेरी तनख़्वाह पर पूर्णाधिकार श्रीमती खुशीचंद के पास ही आरक्षित रहे। 

इस बीच दो अध्यापिकाओं ने मेरा विवाह कराने का प्रयास भी किया था किन्तु दोनों बार श्रीमती खुशीचंद ने नाक सिकोड़ लिया था, मेरी इस अमीरज़ादी से किसी ग़रीब की ग़ुलामी कैसे होगी? 

तीसरी बार मेरे लिए विवाह प्रस्ताव लाने का साहस फिर किसी ने न किया। 

पाँच जून उन्नीस सौ सतहत्तर को उन्हें अचानक दिल का दौरा पड़ा। वे तत्काल अस्पताल पहुँचा दी गईं। उनके अन्तिम क्षणों में प्रभा और मैं उनके समीप रहीं। उनके होंठ जैसे ही हरकत में आए, मेरा दिल धड़क लिया। 

क्या वे मुझसे माफ़ी माँगेगी? 

“प्रभा को अब तुझे ही देखना है,” मेरा हाथ पकड़कर वे बोलीं। 

वे क्या कह रही थीं? 

प्रभा मुझसे चार साल बड़ी थी, फिर उसे देखने को उसके पास पति रहे, उसके तीन बच्चे रहे . . . 

और मैं? 

एक एकाकी जीव? 

“मेरी ख़ातिर,” वे बुदबुदायीं। 

“नहीं,” मैं चीखी, “यह असम्भव है। एकदम असम्भव।”

“माँ अपनी आत्मा मुझे सौंप रही हैं,” मेरे कन्धे पर अपना सिर रख कर प्रभा बिलखने लगी। 

अंततः उनका कहा बेकहा न गया। उनकी डायरियाँ जब मेरी नज़र से गुज़रीं तो मैंने जाना वे स्कूल के अपने इस कमरे में आने से पहले नरक भोग चुकी थीं। 

अपने पति की वे विधवा न थीं, परित्यक्ता थीं। प्रभा के जन्म के बाद उनके पति ने दूसरी शादी कर ली थी। स्थायी रूप से अपने मायके रहना भी उन्हें अस्वीकार्य रहा था। वहाँ माँ उनकी सगी न थीं, सौतेली थी। दोनों दिशाओं की सम्मुख हवा को झेलना जब उनके लिए असम्भव हो उठा था तो उन्होंने धर्म परिवर्तन का आश्रय लिया था और इस स्कूल में आ टिकी थीं। दिग्बिन्दु उनकी प्रभा उस समय केवल अढ़ाई वर्ष की रही थी। स्वावलम्बन के लिए श्रम साधित उनकी लगन देखकर स्कूल में उनकी टिकान स्थायी कर दी गई थी और उनहत्तर वर्ष के अपने जीवन के अड़तालीस वर्ष उन्होंने इसी स्कूल के अपने कमरे में बिताए थे। दर्जी की सूई की मानिन्द। अपनी आँख की पुतली, प्रभा की ख़ातिर। 

आप इसे डायरियों का मन्त्र-तन्त्र कहें या टोनहाई कहें, लेकिन प्रभा गवाह है, उनकी मृत्यु के इतने वर्ष बाद आज भी मैं उन्हीं की इच्छा जनित धारणाओं को अपना लक्ष्य मान कर चलती हूँ। 

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